सोमवार, 30 अक्तूबर 2017

केला

केला (Banana)
 
वैज्ञानिक नाम (Botanical name):-              (Musa Paradisica)
कुल (Family) :-                                        (Musaceal)
गुणसूत्र संख्या (Chromosome number):-   2n =  

केला:-
केला भारत का प्राचीनतम फल हैं। खाने में स्वादिष्ट, अच्छी भण्डारण क्षमता तथा प्रति इकाई क्षेत्रफल में सर्वाधिक उत्पादन के कारण व्यवसायिक स्टार पर इसकी खेती की जाती हैं। उत्तर प्रदेश के तराई वाले जनपद बहराइच, गोन्डा, बस्ती, गोरखपुर, देवरिया इत्यादि इसकी खेती के लिये प्रमुख हैं।

उत्पत्ति:-
केले का मूल स्थान दक्षिण पूर्व एशिया का कोष्ण कटिबन्धीय भाग माना जाता हैं। इस भाग असम, वर्मा, थाईलैंड और इन्डोचीन की पहाड़ियों के संगम वाला स्थान हैं। आदिकालिक खाद्य अकेले म्यूजा एक्यूमिनाटा के द्विगुणित भेद थे, जो आज भी दक्षिण पूर्व एशिया के बड़े क्षेत्रफल में उगते पाए गये हैं। बाद में केले का विकास म्यूजा बल्बीसियाना के त्रिगुणित और चतुर्गुणित विभेद के अन्य जातियों के संकरण से हुआ। त्रिगुणित एक्यूमिनाटा टाइप (ए ए ए समूह) की उत्पत्ति सम्भवत: मलेशिया में हुई। संकर समूहों की उत्पत्ति एक्यूमिनाटा जाति के निकास केन्द्र के आस-पास हुई हैं और ए बी, ए ए बी और ए बी बी समूहों की उत्पत्ति भारत में हुई। ए ए तथा ए बी बी समूहों का द्वितीय विकास केन्द्र फिलीपीन रहा हैं। एक ए बी बी बी क्लोन इन्डोचीन में जन्मा लगता हैं। भारत में केले को प्राचीनकाल से उत्पादित करने के प्रभाव मिलते हैं। ईसा से 500-600 वर्ष पूर्व के पालि बौई ग्रन्थों में इसका वर्णन हैं।

जलवायु:-
पौधे की उचित वृद्धि के लिये कम से कम 11 डिग्री से० तापमान होना बहुत आवश्यक हैं। 170-200 सेमी० वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्र सर्वोत्तम हैं। केले की फसल के लिये गर्म जलवायु, पाला पड़ना, तूफान और तेज हवा का होना उपयुक्त नहीं हैं।

भूमि:-
केले की अच्छी फसल लेने के लिये गहरी दोमट भुरभुरी और उपजाऊ मिट्टी उपयुक्त हैं जिसका पी० एच० मान 7 हो।
 
केले का वर्गीकरण:-
अधिकांश खाद्य केले की जातियां म्यूजा वंश के समूह म्यूजा के अन्तर्गत आती हैं। म्यूजा की बागवानी संसार के विस्तृत क्षेत्रफल पर की जाती हैं। खाद्य केले की जातियाँ इसी समूह की जंगली जाति म्यूजा एक्यूमिनाटा और म्यूजा बल्बीसियाना से उत्पन्न हुई हैं। इसी समूह की कुछ जातियाँ (म्यूजाबासजो) रेशे भी पैदा करती हैं। चजिमैन (1949) के अनुसार म्यूजा पैराडिजिएका जंगली जाति म्यूजा एक्यूमिनाटा से विकसित हुई हैं। कुछ अन्य जातियाँ कल्बीसिया से और एक अन्य महत्वपूर्ण व्यापारिक जाति म्यूजा सेपिएन्टम इन दोनों जंगली जातियों के संकरण से उत्पन्न हुई हैं। अत: पैराडिजिएका उद्यमी किस्मों के लिऐ उपयुक्त हैं।
 
प्रजातियाँ:-
  • पकाकर खायी जाने वाली किस्में:- हरीछाल, रोबस्टा, चीनिया, मालभोग, पूवान, अल्पान।
  • सब्जी वाली किस्में:- कोढ़िया, कम्पेयेरगंज, हाजरा, काबुली, बत्तीसा।
  • अन्य किस्में:- मन्थन, सफ़ेद बेल्ची, पहाड़ी केला, बसराई ड्वार्फ, कोठिया, मुन्यन।
प्रवर्धन एवं रोपण (Propagation and planting):-

पौधों की रोपाई के लिये सबसे पहले 2-3 मीटर दूरी पर 50 X 50 X 50 सेमी० आकार के गड्ढ़े मई माह में खोद देने चाहिये। गड्ढ़े को 15-20 दिन तक खुला रखने के बाद 20-25 किग्रा० सड़ी हुई गोबर की खाद और क्लोरोपाईरीफॉस 50 प्रतिशत  ई० सी० 3 मिली० प्रति 5 लीटर पानी में घोलकर ऊपर की की मिट्टी के साथ अच्छी तरह से मिलाकर गड्ढ़े में भर देना चाहिये। उसके बाद गड्ढ़े की सिंचाई कर देनी चाहिये।
बौनी किस्मों को 1.8 X 1.8 मिटर की दूरी पर तथा अधिक बढ़ने वाली चम्पा, नेन्द्रेन जैसी किस्मों के लिये 2.4 X 2.4 मीटर की दूरी  पौधे लगाये जाते हैं।
     केले का प्रसारण अधोभूस्तरी (Suckers) द्वारा वानस्पतिक तरीके से किया जाता हैं। अधोभूस्तरी दो तरह की होती हैं।
  • नुकीली पत्तियों वाले अधोभूस्तरी (Sword Suckers):- ये अधोभूस्तरी तीन माह की तलवारनुमा, जिनका घनकन्द पूर्ण विकसित व् गठीला हो. का प्रयोग किया जाता हैं। आन्तरिक रूप से ताकतवर होते हैं। लेकिन देखने में कमजोर लगते हैं। प्रसारण के लिये इनका ही प्रयोग किया जाता हैं।
  • चौड़ी पत्तियों वाले अधोभूस्तरी (Water सुस्केर्स):- पत्तियाँ चौड़ी होती हैं। आन्तरिक रूप से कमजोर होते हैं। देखने में ताकतवर दिखाई पड़ते हैं। ये भूस्तारी प्रसारण के लिये प्रयोग नहीं किये जाते हैं।
बुवाई का समय:-
असिंचित क्षेत्र में जून-जुलाई और सिंचित क्षेत्रों में फरवरी-मार्च में बुवाई की जाती हैं।

कृन्तन (Pruning):-
केले की खेती में एक कहावत प्रचलित हैं'केला सदा रहे अकेला'। अधिकांश जहाँ केले रोपे जाते हैं। सभी पौधों को उगने दिया जाता हैं। जिससे भूमि में उपलब्ध भोज्य पदार्थ सभी पौधों में बँट जाते हैंजो  गलत हैं। केले में रोपण के दो माह के अन्दर ही बगल से नई पुत्तियाँ निकलती हैं इन पुत्तियों को समय-समय पर काटते रहना चाहिए। रोपण के दो माह बाद 30 सेमी० व्यास का 25 सेमी० ऊँचा चबूतरा नुमा आकृति बना देनी चाहिये। इससे पौधों को आवश्यक सहारा मिल जाता हैं। तथा इन पत्तियों को सावधानीपूर्वक निकालकर अन्य जगह रोपण किया जा सकता हैं। जून में निकल रही पत्तियों को प्रत्येक पौधे के पास छोड़ देना चाहिये तथा निकालते रहे।

खाद:-
केले की फसल में नाइट्रोजन 250 ग्राम, फॉस्फोरस 100 ग्राम और पोटाश 200 ग्राम प्रति एक पौधा प्रति एक वर्ष देनी चाहिये। फॉस्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा पौधे के चारों तरफ 30 सेमी० चौड़ी नाली बनाकर मिट्टी में मिला देना चाहिये तथा नाइट्रोजन पौधे के चारों और फैलाव में छिड़ककर मिट्टी में मिला देना चाहिये। ऊर्वरकों की मात्रा को तीन बार में दिया जाता हैं। एक बार रोपने के समय, दूसरी बार रोपने एक महीने और तीसरी बार पाँच महीने बाद बराबर मात्रा में उर्वरक देना चाहिये। पाँच महीने बाद फसल  उर्वरक देना लाभदायक नहीं रहता हैं।

सिंचाई:-
पौधे को रोपने के तुरन्त बाद सिंचाई करनी चाहिये। वर्षा ऋतु को छोड़कर शेष सभी ऋतुओं में सिंचाई की जाती हैं। पौधे को किसी भी अवस्था में पानी की कमी से नुकसान नहीं होना चाहिये। गर्मियों में पौधों की 7-10 दिन, वर्षा ऋतु में 15-20 दिन और जाड़ों में 10-12 दिन अन्तर पर सिंचाई की जाती हैं। पौधों की छोटी अवस्था में चारों तरफ छोटी क्यारियाँ बनाते हैं और बाद में क्यारियों का आकार बढ़ा लेते हैं।

मल्चिंग:-
केले के थालों में पुआल, गन्ने की पत्ती व पॉलीथिन बिछा देने से सिंचाई की मात्रा आधी रह जाती हैं। खरपतवार नहीं उग पाते हैं। पौधों की वृद्धि, फलोत्पादन तथा गुणवत्ता में वृद्धि हो जाती हैं।

मिट्टी चढ़ाना:-
पौधों पर वर्षा ऋतु के बाद सदैव मिट्टी चढ़ायी जाती हैं। क्योंकि पौधे के चरों तरफ की मिट्टी घुल जाती हैं।

अन्त: सस्यन:-
बैंगन, अरबी आदि सब्जी इसके बाग़ में उगायी जा सकती हैं। केले में कद्दु वर्गीय सब्जियाँ नहीं उगायी जाती हैं। क्योंकि इनसे विषाणु रोग फैलने की सम्भावना रहती हैं। केले की मिलवां फसल  के रूप में सुपाड़ी, नारियल, कॉफ़ी आदि फसल उगायी जा सकती हैं।

फूल आना:-
प्रथम फसल के लिये केलों के रोपण के प्रव्यक्रम निकलने तक (रोपाई से लेकर फल निकलने तक) 9-12 महीने का समय लगता हैं। इसके बाद की फसल में जलवायु व बाग प्रबन्धन के अनुसार 5-7 महीने लगते हैं। निकलने के तीन महीने बाद फल परिपक्व हो जाते हैं।

फलों को तोड़ना:-
फूल आने के लगभग तीन-चार माह बाद फल तुड़ाई के लिये तैयार हो जाता हैं। जब कलियों की चारों धारियाँ तिकोनी न रहकर गोलाई लेने लगे। उसी समय फलों को पूर्ण विकसित समझना चाहिये। पूर्ण विकसित फल को तेज धार वाले औजार से काटना चाहिये।

फलों को पकाना:-
किस्म की अनुसार फल को बन्द कमरे में भरकर केले की पत्ती से ढ़क दिया जाता हैं। एक कोने में उपले जलाकर या जलती अंगीठी रखकर कमरा गीली मिट्टी से सील कर दिया जाता हैं। 48-72 घन्टे में केला खाने के लिये तैयार हो जाता हैं। प्राय: बन्द कमरे में कार्बाइड को पुड़ियों को रखकर, रख दिया जाता हैं। कार्बाइड से स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता हैं। आकर्षक रंग एवं शीघ्र पकाने के लिये इथोपान 1000 पी० पी० एम० (इथरेल 2.5 मिली० प्रति एक लीटर) सान्द्रता का घोल बनाकर और कास्टिक सोडा की 5-10 गोलियाँ मिलाकर कमरे में लकड़ी के बक्से में या केले के साथ रखने से 24 घण्टे के अन्दर फल पककर तैयार हो जाता हैं।

उपज:-
केले की फसल में समय पर रोपण करने और उचित मात्रा में खाद एवं उर्वरक का प्रयोग किया गया हैं तो 200-250 कुंतल प्रति एक हेक्टेयर तक उपज प्राप्त की जा सकती हैं।

भण्डारण:-
ड्वार्फ कैविन्डिस व रोबस्टा किस्म के पके हुये फलों को 1 डिग्री - .5 डिग्री से० तापमान तथा 80-90 प्रतिशत सापेक्ष आद्रता पर 3 सप्ताह तक शीत भण्डारित किया जा सकता हैं। बसराई के पके फलों को पकाने के लिये 11.1 डिग्री - 12.77 डिग्री से० तापमान और 85-90 प्रतिशत आद्रता पर 3 सप्ताह तक भण्डारित किया जा सकता हैं। हरे पके फलों को पकाने के लिये 20 डिग्री- 21.1 डिग्री से० तापमान और 80-85 प्रतिशत आद्रता पर 1-2 सप्ताह तक भण्डारित किया जा सकता हैं। हरे परिपक्व फलों को 12.7 डिग्री से० स निचे भण्डारित  फलियाँ ठंडक से क्षतिग्रस्त हो जाती हैं और बाद में उचित तापमान पर पकाने से भी नहीं पकती हैं।

कीट:-
वीटिल:- यह कीट कोमल पत्ती व् फलों का छिलका खुरचते हैं। बरसात में पत्ती व हरे फलों पर काली धारियाँ बन जाती हैं। फलों की वृद्धि रुक जाती हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिये जुलाई-अगस्त में प्रकोप को देखते ही मोनोक्रोटोफॉस 36 प्रतिशत एस० एल0 3 मिली० प्रति एक लीटर पानी में घोलकर दो छिड़काव करने चाहिये।
केले का धुन या बीवील:- यह कीट भूमिगत प्रकन्द में छेद करके खाना शुरू कर देता हैं। प्रकन्द सड़ने लगता हैं और पूरा पौधा नष्ट हो जाता हैं।
रोकथाम:- इस कीट से बचाव के लिये पत्तियों को एल्ड्रिन में डुबोकर रोपाई करनी चाहिये। बाग में प्रभावित पौधे के चारों तरफ एल्ड्रिन धूल 30-35 ग्राम प्रति एक पौधे के चारों तरफ बिखेरना चाहिये।

रोग:-
पनामा रोग:- इस रोग को केले का सूखना भी कहते हैं जो फ्यूसेरीयम ओक्सीस्पोरम मट्टी से जन्म लेने वाले कवक से होता हैं। पुरानी पत्ती किनारों से पिली पड़कर सूख जाती हैं। ऐसे पौधों में फलों का गुच्छों का पूर्ण विकास नहीं होता हैं।
रोकथाम:- रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिये। एक किलोग्राम सिरालन बेट 300 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिये।
बन् टॉप:- यह विषाणु जनित रोग हैं। रोगी पौधे की पट्टी छोटी होकर गुच्छे का रूप धारण कर लेती हैं। पौधे की वृद्धि एवं फलत रुक जाती हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिये रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर नष्ट  कर देना चाहिये। बाग में कद्दूवर्गीय फसलें नहीं बोनी चाहिये।
कालव्रण:- यह रोग पके फलों पर लगता हैं। फलों पर काले धब्बे पड़ने के बाद फल सड़ जाते हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिये रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर नष्ट  कर देना चाहिये। प्रभावित पौधों पर बोर्डों मिश्रण का 3-4 बार छिड़काव करना चाहिये।
पत्तियों पर धब्बे (Leaf spot):- यह केरोस्पोरा मुसेक कवक द्वारा फैलता हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिये बोर्डों मिश्रण का 4:4:50 का छिड़काव करना चाहिये।

final 

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