रविवार, 25 नवंबर 2018

सेब (Apple)

वैज्ञानिक नाम (Botanical name):- (Malus pulmila or Malus sylvestris Mill)
कुल (Family) :- (Rosaceae)
गुणसूत्र संख्या (Chromosome number):- 2n =  24


बुधवार, 21 नवंबर 2018

गेंहू



गेंहू (Wheat)

वैज्ञानिक नाम (Botanical name):- Triticum aestivum L.
कुल (Family) :- Gramineae
गुणसूत्र संख्या (Chromosome number) :- 2n= 



महत्त्व एवं उपयोग:-
विश्व की धान्य फसलों में गेंहू का बहुत ही महतवपूर्ण स्थान हैं। क्षेत्रफल की द्रष्टि से विश्व में धान के बाद गेंहू का स्थान आता हैं। भारत जैसे अविकसित देश में गेंहू का उपयोग प्रमुख रूप से रोटी बनाने के लिये किया जाता हैं, परन्तु विकासशील देशों में गेंहू के आटे में ग्लूटिन अधिक होने के कारण खमीर उत्पन्न करके आटे का प्रयोग डबल रोटी, बिस्कुट, बेकरी (Bakery) के लिए प्रयोग करना, सूजी या रवा, मैदा, चोकर (पशुओं के लिये), उत्तम किस्म की शराब बनाने और गेंहू का दलिया बनाकर खाने के लिये किया जाता हैं। इसके अलावा पशुओं को खिलाने के लिये भूसे का प्रयोग भी किया जाता हैं। गेंहू में मनुष्य का भोजन 74%, बीज 11% एवं पशुओं के भोजन, औद्योगिक उपयोग तथा व्यर्थ भाग 15% होता हैं ।

शुक्रवार, 16 नवंबर 2018

आलू


वैज्ञानिक नाम (Botanical name):-             सोलेनम ट्यूबरोजम (Solanum tuberosum L.)
कुल (Family) :-                                        सोलेनेसी (Solanaceae)
गुणसूत्र संख्या (Chromosome number):-  2n = 48

आलू:- सब्जी में आलू का प्रथम स्थान हैं। आलू अधिक पैदावार देने वाली फसल हैं। आलू की पैदावार 182.3 कुंतल प्रति हेक्टेयर हैं। संसार में क्षेत्रफल के हिसाब से भारत का चौथा स्थान एवं उत्पादन की दृष्टि से तीसरा स्थान हैं। भारत में आलू का 90 प्रतिशत उत्पादन जनवरी से मार्च माह में होता हैं। उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार, गुजरात, पंजाब, आसाम, व मध्य प्रदेश आदि आलू उगाने वाले प्रमुख राज्य हैं। जिनमें उत्तर प्रदेश का प्रमुख स्थान हैं। आगरा व मेरठ मण्डलों में आलू का काफी क्षेत्रफल हैं। 100 ग्राम शुष्क आलू पदार्थ से 310 किलो कैलोरी ऊर्जा, 100 ग्राम उबले आलू से 69 किलो कैलोरी ऊर्जा तथा 100 ग्राम कच्चे आलू से 80 किलो कैलोरी ऊर्जा प्रदान होती हैं।

उत्पत्ति:- आलू की उत्पत्ति दक्षिण अमेरिका के एण्डीस व चिलियन पठारों से मानी जाती हैं। सत्रहवीं शताब्दी में आलू पुर्तगालियों द्वारा भारत में लाया गया था।

जलयायु:- आलू की खेती विभिन्न प्रकार की जलवायु में सफलतापूर्वक की जा सकती हैं आलू को समुद्र तट से लगभग 3000 मीटर की ऊंचाई वाले क्षेत्रों में उगाया जा सकता हैं। आलू की खेती के लिए तापमान 20 डिग्री से० उपयुक्त हैं। पाले से फसल को काफी नुकसान होता हैं।

भूमि:- आलू की खेती क्षारीय भूमि को छोड़कर लगभग सभी प्रकार की भूमि में की जा सकती हैं। परन्तु हल्की दोमट भूमि जिसका पी०एच० मान 5 से 7 के बीच हो अच्छा माना जाता हैं। भूमि में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा पर्याप्त हो व जल निकास की व्यवस्था अच्छी हो।

खेत की तैयारी:- 2-3 जुताई करके खेत को खाली छोड़ दे आलू की फसल बोने से पहले पलेवा करना जरूरी हैं। ओट आने पर आवश्यकतानुसार जुताई करे व पाटा लगाकर खेत को समतल कर ले।

बीज:- बुवाई के लिये रोगमुक्त बीज-कन्द का प्रयोग करना चाहियेबीज 3.5 - 4.0 सेमी० आकार का होना चाहिये। बीज-कन्द बड़ा होने पर काटकर बोना चाहिये हैं। ऐसी स्थिति में एक टुकड़ा कम से कम 40 से 50 ग्राम भार का होना चाहिये, जिसमें 2 या 3 स्वस्थ आंखे भी होनी चाहिये। कटे बीज-कन्द को सितम्बर-अक्टूबर के बाद ही बोना चाहिये, अन्यथा वर्षा होने पर शीघ्र सड़ने का भय रहता हैं। तथा रोगग्रस्त भी हो जाता हैं। बीज उत्पादन के लिये केवल सम्पूर्ण कन्द को ही बोना चाहिये।
बोने का समय:- आलू की अगेती फसल की बुवाई 15 सितम्बर के आस-पास की जाती हैं। मुख्य फसल की बुवाई 15 अक्टूबर से 25 अक्टूबर तक की जाती हैं, इस समय तापमान 18-20 डिग्री से० (न्यूनतम) से 30-32 डिग्री से० (अधिकतम) रहता हैं। पछेती फसल की बुवाई का समय 15 अक्टूबर से 15 नवम्बर तक हैं।

बीज दर:- बुवाई के लिये आलू की बीज दर बीज के टुकड़ों के आकार एवं भार पर निर्भर करती हैं। आलू का बीज 35-40 कुंतल प्रति हेक्टेयर लगता हैं। जिसका आकार 3.5 से 4.0 सेमी०भार 40 से 50 ग्राम होना चाहिये।

बुवाई का तरीका:- आलू की बुवाई करने से पूर्व खेत का पलेवा करने से अंकुरण जल्दी एवं समान होता हैं। मशीन से बुवाई करने पर लाइन से लाइन की दूरी 60 सेमी० एवं कन्द की दूरी 20 सेमी० होनी चाहिये। गुलों (मेंड़) में बुवाई करने पर बीज की गहराई 8-10 सेमी० होनी चाहिये।

उपचार:- आलू के कटे बीज-कन्द को ज़िंक मैगनीज कार्बोनेट डाइथेन एम-45 के 0.5 प्रतिशत के घोल में 10 मिनट तक उपचारित करना चाहिये। उपचारित करने के बाद एक दिन के लिये बीज-कन्द को टाट से ढ़क देना चाहिये। फिर बुवाई कर देनी चाहिये। आलू को शीत गृह में भेजने से पूर्व आलू कन्द को बोरिक एसिड 3 प्रतिशत के घोल में 15 से 20 मिनट तक शोधित करके छाया में सुखा लेना चाहिये। एक बार बनाये गये घोल को 4-5 बार प्रयोग करना चाहिये।

फसल अवधि के आधार पर आलू की प्रजातियाँ:-
अगेती फसल (अवधि 70 से 80 दिन):- कुफ़री चन्द्रमुखी(200-250 कु०/हे०), कुफ़री अशोक(250-300 कु०/हे०), कुफ़री पुखराज(350-400 कु०/हे०)
मध्यम फसल (अवधि 90 से 100 दिन):- कुफ़री बहार(250-300 कु०/हे०), कुफ़री लालिमा(250-300 कु०/हे०), कुफ़री ज्योति
पछेती फसल (अवधि 110 से 120 दिन):- कुफ़री बादशाह(350-400 कु०/हे०), कुफ़री सतलुज(250-300 कु०/हे०), कुफ़री सिन्दूरी(300-400 कु०/हे०), कुफ़री आनन्द(350-400 कु०/हे०), कुफ़री चित्सोना-1, कुफ़री चित्सोना-2
प्रसंस्करण हेतु आलू की किस्म:- कुफ़री चित्सोना-1(350-400 कु०/हे०), कुफ़री चित्सोना-2(300-350 कु०/हे०), कुफ़री चन्द्रमुखी, कुफ़री ज्योति, लवकार

खाद एवं उर्वरक:-
यदि खेत में हरी खाद वाली फसल ना लगायी गयी हो तो इस अवस्था में गोबर की सड़ी हुई खाद 50-300 कुंतल प्रति हेक्टेयर खेत तैयार करते समय प्रयोग करते हैं। 150 कुंतल प्रति हेक्टेयर गोबर की खाद डालने से फास्फोरस और पोटाश की लगभग आधी मात्रा और 300 कुंतल प्रति हेक्टेयर प्रयोग करने से लगभग सम्पूर्ण मात्रा मिल जाती हैं। यदि गोबर की खाद नही हैं तो रसायनिक उर्वरक द्वारा नाइट्रोजन 90 किग्रा० (360 किग्रा० कैल्शियम, अमोनियम नाइट्रेट), फास्फोरस 80 किग्रा० (500 किग्रा० सिंगल सुपर फॉस्फेट) और पोटाश 100 किग्रा० (170 किग्रा० म्यूरेट ऑफ पोटाश) को अच्छी तरह से मिलाकर बनायी गयी नाली में बीज- कन्दों से 5 सेमी० नीचे प्रति हेक्टेयर की दर से डालते हैं। शेष बची हुयी नाइट्रोजन की 90 किग्रा० (196 किग्रा० यूरिया) मात्रा बुवाई के 25-30 दिन बाद मिट्टी चढ़ाते समय प्रयोग करते हैं। उस समय पौधे 8-10 सेमी० के लम्बे होते हैं। मृदा में जस्ता की कमी होने पर 25 किग्रा० ज़िंक सल्फ़ेट और लोहा की कमी होने पर 50 ग्राम फेरस सल्फ़ेट प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करते हैं।
प्रसंस्करण के उद्देश्य से उगायी जाने वाली फसल को अधिक पोषण देने की वैज्ञानिक सिफ़ारिश की गयी हैं। इसके लिये नाइट्रोजन 270 किग्रा०, फास्फोरस 80 किग्रा० और पोटाश 150 किग्रा० देना चाहिये।
निराई-गुड़ाई एवं खरपतवार नियंत्रण:- बुवाई के 20-25 दिन बाद गुड़ाई करते हैं इस अवस्था में पौधे 8-10 सेमी० ऊंचाई के होते हैं। निराई-गुड़ाई के लिये लाइनों के बीच स्प्रिंग- टाइन कल्टीवेटर का प्रयोग करे। और खुरपी से खरपतवार निकालने का कार्य करना चाहिये। इसी दौरान ट्रैक्टर चालित रिजर से मेंड़ों पर मिट्टी चढ़ा देनी चाहिये।
  • बुवाई से एक या दो दिन पहले फ्ल्यूक्लोरालिन 0.7-1.0 किग्रा० सक्रिय तत्व या पैन्डीमिथेलिन 1.0 किग्रा० सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करे
  • अंकुरण से पूर्व (बुवाई के 2-3 दिन पश्चात) मैट्रीब्यूजीन 0.7-1.0 किग्रा० या आइसोप्रोटुरान 0.6 किग्रा० सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करे
  • अंकुरण होने के पश्चात (5 प्रतिशत अंकुरण होने तक) पैराक्वाट 0.5 किग्रा० प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करे। ध्यान रखें कि पौधों पर प्रत्यक्ष रूप से घोल ना गिरे।
सिंचाई:- आलू में कुल 7-8 सिंचाई की आवश्यकता होती हैं। सिंचाई करते समय ध्यान रहे कि आलू कि मेंड़ पानी में दो तिहाई से अधिक ना डूबे अन्यथा पानी की अधिकता से आलू सड़ने का भय रहता हैं।
  • पहली सिंचाई:- अंकुरण से पूर्व (बुवाई के 8-10 दिन पश्चात)
  • दूसरी सिंचाई:- स्टोलन (बरोह या शाखा) बनते समय (बुवाई के 20-21 दिन पश्चात)
  • तीसरी सिंचाई:- कन्द बनने कि प्रारम्भिक अवस्था में (बुवाई से 28-30 दिन पश्चात)
  • अन्य शेष सिंचाइयाँ:- हल्की मृदाओं में 10-12 दिन के अन्तराल पर भारी मृदाओं में 12-15 दिन के अन्तराल पर (ध्यान रहे कि अन्तिम सिंचाई आलू की खुदाई से 10 दिन पूर्व बन्द कर देनी चाहिये)

रोग (Diseases):-
पछेती झुलसा (Late blight):- यह बीमारी फाइटोफ़थोरा इंफेस्टान्स नामक फफूंद द्वारा फैलती हैं। यह रोग पौधे की पत्ती, डण्ठल व कन्द आदि भागों पर दिखाई देता हैं। इस बीमारी में पत्ती पर छोटे, हल्के पीले अनियमित आकार के धब्बे बन जाते हैं। जो शीघ्र बड़े होकर ब्राउन से काले रंग के हो जाते हैं। साथ ही पत्ती की निचली सतह पर सफ़ेद रुई सी दिखाई देती हैं। शुष्क मौसम में फफूंद से प्रभावित भाग भूरे रंग का हो जाता हैं। कन्द पर छिछला, लाल भूरे रंग का शुष्क गलन पाया जाता हैं। रोग का प्रकोप 10-20 डिग्री से० तापमान, 80 % आद्रता व वर्षा होने की स्थिति में अधिक होता हैं।
रोकथाम:- रोग आने की पूर्व (रोग होने की सम्भावना होने पर) मेन्कोजेब 0.20 प्रतिशत , रोग आने पर मेटालेक्सिल 0.25 प्रतिशत प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करे
काली रूसी (Black scurf):- फफूंदी की रोगकारी अपूर्ण अवस्था राइजोक्टोनिया सोलेनाई तथा थेनाटेफोरस कुकुमेरिस पूर्ण अवस्था के कारण यह रोग होता हैं। इसमे आलू की सतह पर गहरे भूरे रंग से काले रंग के धब्बे बन जाते हैं।
रोकथाम:- भंडारण पूर्व कन्दों को बोरिक एसिड 3 प्रतिशत के घोल में 25 मिनट तक डुबोकर उपचारित करते हैं
साधारण खुरन्द्र रोग (Common scab):- यह रोग स्ट्रेप्टोमाइसिस के कारण होता हैं। इस रोग से पैदावार में कमी नही आती लेकिन कन्द भददे हो जाते हैं। कन्द पर लाल या भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं। जिससे आलू की त्वचा खुरदुरी हो जाती हैं। यह बीमारी बीज-कन्द द्वारा फैलती हैं।
रोकथाम:- बोरिक एसिड 3 प्रतिशत के घोल में 30 मिनट तक कन्दों को डुबोकर उपचारित करते हैं। कन्द बनने की प्रारम्भिक अवस्था में खेत में नमी बनाये रखे।
वायरस द्वारा फैलने वाले रोग:- आलू के X, A, S, PVX, PVY, PVA, PVM आदि वायरस से 10 से 80 प्रतिशत तक पैदावार में कमी आती हैं। PVX वायरस पौधे की पत्ती पर हल्की चित्ति पैदा करता हैं, जिसे छाया में रखकर देखा जा सकता हैं। PVA वायरस पर्ण शिराओं की पत्तियों में हल्की मृदु  चित्ती या झुर्री पैदा करता हैं। PVM वायरस से ग्रसित पत्ती मुड़न लिए होती हैं। PVY वायरस से ग्रसित पौधे बौने रह जाते हैं। PVZ + A वायरस से पत्ती में उग्र झुर्रीदार चित्ती पड़ने से पौधे का रूप बिगड़ जाता हैं।
रोकथाम:- रोग रहित बीज का प्रयोग करे, रोगी पौधों को उखाड़ दे। माहु कीट की संख्या दिखाई देने पर ही डण्ठलों को काट दे। बीज आलू पर डाईमेथोएट 30 प्रतिशत ई०सी० 1.0 लीटर या मिथाइल ऑक्सी-डेमेटान 25 प्रतिशत ई०सी० 1 लिटर मात्रा 1000 लीटर पानी में घोलकर दिसम्बर -जनवरी में 1 से 2 छिड़काव करे।
फफूंद द्वारा फैलने वाले रोग:- अगेती व पछेती झुलसा रोग फफूंद द्वारा लगते हैं। इस रोग में पत्ती पर काले रंग के धब्बे बनते हैं। जिसके तीव्र प्रकोप से पूरा पौधा झुलस जाता हैं।
रोकथाम:- जिनेब 2.5 किग्रा० को 800 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करे

कीट (Insects and pests):-
माहू या चैंपा (Aphid):- माहू वायरस फैलाने में वाला मुख्य कीट हैं। माहू से 40-85 प्रतिशत तक नुकसान होता होता हैं। इसका प्रकोप नवम्बर के अन्तिम और दिसम्बर के प्रथम सप्ताह में अधिक दिखाई देता हैं। फसल की गुणवत्ता पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता हैं।
रोकथाम:- फोरेट 10 जी० 10 किग्रा० प्रति हेक्टेयर की दर से मिट्टी चढ़ाते समय प्रयोग करे। कीट का प्रकोप होने पर डाइमेथोएट 30 प्रतिशत ई० सी०, एजैडिरैक्टिन(नीम तेल) 0.15 प्रतिशत ई०सी० 2.5 लीटर या मिथाइल ऑक्सी-डेमेटान 25 प्रतिशत ई०सी० 1.0 लीटर मात्रा को 1000 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करे।
लीफ हॉपर:- यह एक हरा व भूरे रंग का कीड़ा होता हैं। इस कीट के निम्फ़ व प्रौढ़ हरी पत्तियों का रस चूसते हैं। जिसके कारण पत्ती भूरे रंग की होकर सूख जाती हैं। इसका प्रकोप अगेती फसल पर अधिक होता हैं।
रोकथाम:- मोनोक्रोटोफॉस 40 प्रतिशत ई०सी० 1.0  लीटर मात्रा या मिथाइल ऑक्सी-डेमेटान 25 प्रतिशत ई०सी० 1.0 लीटर को 1000 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करे। दूसरा छिड़काव 10 से 15 दिन के अन्तर पर करे।
माइट:- यह कीट पत्ती को काटते हैं। पत्तियाँ नीचे की और मुड़ जाती हैं। पत्ती का आकार छोटा व पत्ती के नीचे का हिस्सा ताँबे के रंग का हो जाता हैं। अगेती फसल पर अधिक रोग होता हैं।
रोकथाम:- डाइकोफोल 18 प्रतिशत ई०सी० को 2.0 लीटर मात्रा को 1000 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करे
कट वर्म कीट:- यह कीट की ईल्ली फसल को नुकसान करती हैं। सर्वप्रथम डण्ठल, तना व शाखा उसके बाद कन्द में छिद्र बनाकर नुकसान करता हैं।
रोकथाम:- मोनोक्रोटोफॉस 20 प्रतिशत ई०सी० 2.5  लीटर मात्रा को 1000 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करे
सफ़ेद मक्खी:- इस मक्खी के प्रकोप से आलू की फसल में वायरस संवाहन होता हैं। मक्खी पत्ती का रस चूसती हैं। जिससे पौधा कुरूप हो जाता हैं। यह अगेती व मुख्य दोनों फसलों में लगता हैं।
रोकथाम:- एमिडाक्लोप्रिड 0.3 प्रतिशत का छिड़काव करे

खुदाई एवं भण्डारण:- आलू की खुदाई का कार्य जनवरी-फरवरी माह में शुरू हो जाता हैं। अर्थात अगेती फसल की खुदाई 60-70 दिन बाद कर लेते हैं। 30 डिग्री से० तापक्रम बढ़ने से पूर्व खुदाई का कार्य समाप्त कर लेना चाहिये। खुदाई के बाद कम से कम 10-15 दिन तक छिलका मजबूत होने के लिए ढेर पर रखे। आलू का ढेर छाया में बनाना चाहिये। भण्डारण करने से पूर्व 10-15 दिन बाद आलू की छटाँई का कार्य करना चाहिये

उपज:-
जल्दी तैयार होने वाली फसल पैदावार कम देती हैं जबकि लम्बी अवधि वाली फसल अधिक उपज देती हैं सामान्य किस्म की अपेक्षा संकर किस्म अधिक पैदावार देती हैं आलू की पैदावार 600-800 कुंतल प्रति हेक्टेयर हैं

final