सोमवार, 30 अक्तूबर 2017

केला

केला (Banana)
 
वैज्ञानिक नाम (Botanical name):-              (Musa Paradisica)
कुल (Family) :-                                        (Musaceal)
गुणसूत्र संख्या (Chromosome number):-   2n =  

केला:-
केला भारत का प्राचीनतम फल हैं। खाने में स्वादिष्ट, अच्छी भण्डारण क्षमता तथा प्रति इकाई क्षेत्रफल में सर्वाधिक उत्पादन के कारण व्यवसायिक स्टार पर इसकी खेती की जाती हैं। उत्तर प्रदेश के तराई वाले जनपद बहराइच, गोन्डा, बस्ती, गोरखपुर, देवरिया इत्यादि इसकी खेती के लिये प्रमुख हैं।

उत्पत्ति:-
केले का मूल स्थान दक्षिण पूर्व एशिया का कोष्ण कटिबन्धीय भाग माना जाता हैं। इस भाग असम, वर्मा, थाईलैंड और इन्डोचीन की पहाड़ियों के संगम वाला स्थान हैं। आदिकालिक खाद्य अकेले म्यूजा एक्यूमिनाटा के द्विगुणित भेद थे, जो आज भी दक्षिण पूर्व एशिया के बड़े क्षेत्रफल में उगते पाए गये हैं। बाद में केले का विकास म्यूजा बल्बीसियाना के त्रिगुणित और चतुर्गुणित विभेद के अन्य जातियों के संकरण से हुआ। त्रिगुणित एक्यूमिनाटा टाइप (ए ए ए समूह) की उत्पत्ति सम्भवत: मलेशिया में हुई। संकर समूहों की उत्पत्ति एक्यूमिनाटा जाति के निकास केन्द्र के आस-पास हुई हैं और ए बी, ए ए बी और ए बी बी समूहों की उत्पत्ति भारत में हुई। ए ए तथा ए बी बी समूहों का द्वितीय विकास केन्द्र फिलीपीन रहा हैं। एक ए बी बी बी क्लोन इन्डोचीन में जन्मा लगता हैं। भारत में केले को प्राचीनकाल से उत्पादित करने के प्रभाव मिलते हैं। ईसा से 500-600 वर्ष पूर्व के पालि बौई ग्रन्थों में इसका वर्णन हैं।

जलवायु:-
पौधे की उचित वृद्धि के लिये कम से कम 11 डिग्री से० तापमान होना बहुत आवश्यक हैं। 170-200 सेमी० वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्र सर्वोत्तम हैं। केले की फसल के लिये गर्म जलवायु, पाला पड़ना, तूफान और तेज हवा का होना उपयुक्त नहीं हैं।

भूमि:-
केले की अच्छी फसल लेने के लिये गहरी दोमट भुरभुरी और उपजाऊ मिट्टी उपयुक्त हैं जिसका पी० एच० मान 7 हो।
 
केले का वर्गीकरण:-
अधिकांश खाद्य केले की जातियां म्यूजा वंश के समूह म्यूजा के अन्तर्गत आती हैं। म्यूजा की बागवानी संसार के विस्तृत क्षेत्रफल पर की जाती हैं। खाद्य केले की जातियाँ इसी समूह की जंगली जाति म्यूजा एक्यूमिनाटा और म्यूजा बल्बीसियाना से उत्पन्न हुई हैं। इसी समूह की कुछ जातियाँ (म्यूजाबासजो) रेशे भी पैदा करती हैं। चजिमैन (1949) के अनुसार म्यूजा पैराडिजिएका जंगली जाति म्यूजा एक्यूमिनाटा से विकसित हुई हैं। कुछ अन्य जातियाँ कल्बीसिया से और एक अन्य महत्वपूर्ण व्यापारिक जाति म्यूजा सेपिएन्टम इन दोनों जंगली जातियों के संकरण से उत्पन्न हुई हैं। अत: पैराडिजिएका उद्यमी किस्मों के लिऐ उपयुक्त हैं।
 
प्रजातियाँ:-
  • पकाकर खायी जाने वाली किस्में:- हरीछाल, रोबस्टा, चीनिया, मालभोग, पूवान, अल्पान।
  • सब्जी वाली किस्में:- कोढ़िया, कम्पेयेरगंज, हाजरा, काबुली, बत्तीसा।
  • अन्य किस्में:- मन्थन, सफ़ेद बेल्ची, पहाड़ी केला, बसराई ड्वार्फ, कोठिया, मुन्यन।
प्रवर्धन एवं रोपण (Propagation and planting):-

पौधों की रोपाई के लिये सबसे पहले 2-3 मीटर दूरी पर 50 X 50 X 50 सेमी० आकार के गड्ढ़े मई माह में खोद देने चाहिये। गड्ढ़े को 15-20 दिन तक खुला रखने के बाद 20-25 किग्रा० सड़ी हुई गोबर की खाद और क्लोरोपाईरीफॉस 50 प्रतिशत  ई० सी० 3 मिली० प्रति 5 लीटर पानी में घोलकर ऊपर की की मिट्टी के साथ अच्छी तरह से मिलाकर गड्ढ़े में भर देना चाहिये। उसके बाद गड्ढ़े की सिंचाई कर देनी चाहिये।
बौनी किस्मों को 1.8 X 1.8 मिटर की दूरी पर तथा अधिक बढ़ने वाली चम्पा, नेन्द्रेन जैसी किस्मों के लिये 2.4 X 2.4 मीटर की दूरी  पौधे लगाये जाते हैं।
     केले का प्रसारण अधोभूस्तरी (Suckers) द्वारा वानस्पतिक तरीके से किया जाता हैं। अधोभूस्तरी दो तरह की होती हैं।
  • नुकीली पत्तियों वाले अधोभूस्तरी (Sword Suckers):- ये अधोभूस्तरी तीन माह की तलवारनुमा, जिनका घनकन्द पूर्ण विकसित व् गठीला हो. का प्रयोग किया जाता हैं। आन्तरिक रूप से ताकतवर होते हैं। लेकिन देखने में कमजोर लगते हैं। प्रसारण के लिये इनका ही प्रयोग किया जाता हैं।
  • चौड़ी पत्तियों वाले अधोभूस्तरी (Water सुस्केर्स):- पत्तियाँ चौड़ी होती हैं। आन्तरिक रूप से कमजोर होते हैं। देखने में ताकतवर दिखाई पड़ते हैं। ये भूस्तारी प्रसारण के लिये प्रयोग नहीं किये जाते हैं।
बुवाई का समय:-
असिंचित क्षेत्र में जून-जुलाई और सिंचित क्षेत्रों में फरवरी-मार्च में बुवाई की जाती हैं।

कृन्तन (Pruning):-
केले की खेती में एक कहावत प्रचलित हैं'केला सदा रहे अकेला'। अधिकांश जहाँ केले रोपे जाते हैं। सभी पौधों को उगने दिया जाता हैं। जिससे भूमि में उपलब्ध भोज्य पदार्थ सभी पौधों में बँट जाते हैंजो  गलत हैं। केले में रोपण के दो माह के अन्दर ही बगल से नई पुत्तियाँ निकलती हैं इन पुत्तियों को समय-समय पर काटते रहना चाहिए। रोपण के दो माह बाद 30 सेमी० व्यास का 25 सेमी० ऊँचा चबूतरा नुमा आकृति बना देनी चाहिये। इससे पौधों को आवश्यक सहारा मिल जाता हैं। तथा इन पत्तियों को सावधानीपूर्वक निकालकर अन्य जगह रोपण किया जा सकता हैं। जून में निकल रही पत्तियों को प्रत्येक पौधे के पास छोड़ देना चाहिये तथा निकालते रहे।

खाद:-
केले की फसल में नाइट्रोजन 250 ग्राम, फॉस्फोरस 100 ग्राम और पोटाश 200 ग्राम प्रति एक पौधा प्रति एक वर्ष देनी चाहिये। फॉस्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा पौधे के चारों तरफ 30 सेमी० चौड़ी नाली बनाकर मिट्टी में मिला देना चाहिये तथा नाइट्रोजन पौधे के चारों और फैलाव में छिड़ककर मिट्टी में मिला देना चाहिये। ऊर्वरकों की मात्रा को तीन बार में दिया जाता हैं। एक बार रोपने के समय, दूसरी बार रोपने एक महीने और तीसरी बार पाँच महीने बाद बराबर मात्रा में उर्वरक देना चाहिये। पाँच महीने बाद फसल  उर्वरक देना लाभदायक नहीं रहता हैं।

सिंचाई:-
पौधे को रोपने के तुरन्त बाद सिंचाई करनी चाहिये। वर्षा ऋतु को छोड़कर शेष सभी ऋतुओं में सिंचाई की जाती हैं। पौधे को किसी भी अवस्था में पानी की कमी से नुकसान नहीं होना चाहिये। गर्मियों में पौधों की 7-10 दिन, वर्षा ऋतु में 15-20 दिन और जाड़ों में 10-12 दिन अन्तर पर सिंचाई की जाती हैं। पौधों की छोटी अवस्था में चारों तरफ छोटी क्यारियाँ बनाते हैं और बाद में क्यारियों का आकार बढ़ा लेते हैं।

मल्चिंग:-
केले के थालों में पुआल, गन्ने की पत्ती व पॉलीथिन बिछा देने से सिंचाई की मात्रा आधी रह जाती हैं। खरपतवार नहीं उग पाते हैं। पौधों की वृद्धि, फलोत्पादन तथा गुणवत्ता में वृद्धि हो जाती हैं।

मिट्टी चढ़ाना:-
पौधों पर वर्षा ऋतु के बाद सदैव मिट्टी चढ़ायी जाती हैं। क्योंकि पौधे के चरों तरफ की मिट्टी घुल जाती हैं।

अन्त: सस्यन:-
बैंगन, अरबी आदि सब्जी इसके बाग़ में उगायी जा सकती हैं। केले में कद्दु वर्गीय सब्जियाँ नहीं उगायी जाती हैं। क्योंकि इनसे विषाणु रोग फैलने की सम्भावना रहती हैं। केले की मिलवां फसल  के रूप में सुपाड़ी, नारियल, कॉफ़ी आदि फसल उगायी जा सकती हैं।

फूल आना:-
प्रथम फसल के लिये केलों के रोपण के प्रव्यक्रम निकलने तक (रोपाई से लेकर फल निकलने तक) 9-12 महीने का समय लगता हैं। इसके बाद की फसल में जलवायु व बाग प्रबन्धन के अनुसार 5-7 महीने लगते हैं। निकलने के तीन महीने बाद फल परिपक्व हो जाते हैं।

फलों को तोड़ना:-
फूल आने के लगभग तीन-चार माह बाद फल तुड़ाई के लिये तैयार हो जाता हैं। जब कलियों की चारों धारियाँ तिकोनी न रहकर गोलाई लेने लगे। उसी समय फलों को पूर्ण विकसित समझना चाहिये। पूर्ण विकसित फल को तेज धार वाले औजार से काटना चाहिये।

फलों को पकाना:-
किस्म की अनुसार फल को बन्द कमरे में भरकर केले की पत्ती से ढ़क दिया जाता हैं। एक कोने में उपले जलाकर या जलती अंगीठी रखकर कमरा गीली मिट्टी से सील कर दिया जाता हैं। 48-72 घन्टे में केला खाने के लिये तैयार हो जाता हैं। प्राय: बन्द कमरे में कार्बाइड को पुड़ियों को रखकर, रख दिया जाता हैं। कार्बाइड से स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता हैं। आकर्षक रंग एवं शीघ्र पकाने के लिये इथोपान 1000 पी० पी० एम० (इथरेल 2.5 मिली० प्रति एक लीटर) सान्द्रता का घोल बनाकर और कास्टिक सोडा की 5-10 गोलियाँ मिलाकर कमरे में लकड़ी के बक्से में या केले के साथ रखने से 24 घण्टे के अन्दर फल पककर तैयार हो जाता हैं।

उपज:-
केले की फसल में समय पर रोपण करने और उचित मात्रा में खाद एवं उर्वरक का प्रयोग किया गया हैं तो 200-250 कुंतल प्रति एक हेक्टेयर तक उपज प्राप्त की जा सकती हैं।

भण्डारण:-
ड्वार्फ कैविन्डिस व रोबस्टा किस्म के पके हुये फलों को 1 डिग्री - .5 डिग्री से० तापमान तथा 80-90 प्रतिशत सापेक्ष आद्रता पर 3 सप्ताह तक शीत भण्डारित किया जा सकता हैं। बसराई के पके फलों को पकाने के लिये 11.1 डिग्री - 12.77 डिग्री से० तापमान और 85-90 प्रतिशत आद्रता पर 3 सप्ताह तक भण्डारित किया जा सकता हैं। हरे पके फलों को पकाने के लिये 20 डिग्री- 21.1 डिग्री से० तापमान और 80-85 प्रतिशत आद्रता पर 1-2 सप्ताह तक भण्डारित किया जा सकता हैं। हरे परिपक्व फलों को 12.7 डिग्री से० स निचे भण्डारित  फलियाँ ठंडक से क्षतिग्रस्त हो जाती हैं और बाद में उचित तापमान पर पकाने से भी नहीं पकती हैं।

कीट:-
वीटिल:- यह कीट कोमल पत्ती व् फलों का छिलका खुरचते हैं। बरसात में पत्ती व हरे फलों पर काली धारियाँ बन जाती हैं। फलों की वृद्धि रुक जाती हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिये जुलाई-अगस्त में प्रकोप को देखते ही मोनोक्रोटोफॉस 36 प्रतिशत एस० एल0 3 मिली० प्रति एक लीटर पानी में घोलकर दो छिड़काव करने चाहिये।
केले का धुन या बीवील:- यह कीट भूमिगत प्रकन्द में छेद करके खाना शुरू कर देता हैं। प्रकन्द सड़ने लगता हैं और पूरा पौधा नष्ट हो जाता हैं।
रोकथाम:- इस कीट से बचाव के लिये पत्तियों को एल्ड्रिन में डुबोकर रोपाई करनी चाहिये। बाग में प्रभावित पौधे के चारों तरफ एल्ड्रिन धूल 30-35 ग्राम प्रति एक पौधे के चारों तरफ बिखेरना चाहिये।

रोग:-
पनामा रोग:- इस रोग को केले का सूखना भी कहते हैं जो फ्यूसेरीयम ओक्सीस्पोरम मट्टी से जन्म लेने वाले कवक से होता हैं। पुरानी पत्ती किनारों से पिली पड़कर सूख जाती हैं। ऐसे पौधों में फलों का गुच्छों का पूर्ण विकास नहीं होता हैं।
रोकथाम:- रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिये। एक किलोग्राम सिरालन बेट 300 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिये।
बन् टॉप:- यह विषाणु जनित रोग हैं। रोगी पौधे की पट्टी छोटी होकर गुच्छे का रूप धारण कर लेती हैं। पौधे की वृद्धि एवं फलत रुक जाती हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिये रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर नष्ट  कर देना चाहिये। बाग में कद्दूवर्गीय फसलें नहीं बोनी चाहिये।
कालव्रण:- यह रोग पके फलों पर लगता हैं। फलों पर काले धब्बे पड़ने के बाद फल सड़ जाते हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिये रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर नष्ट  कर देना चाहिये। प्रभावित पौधों पर बोर्डों मिश्रण का 3-4 बार छिड़काव करना चाहिये।
पत्तियों पर धब्बे (Leaf spot):- यह केरोस्पोरा मुसेक कवक द्वारा फैलता हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिये बोर्डों मिश्रण का 4:4:50 का छिड़काव करना चाहिये।

final 

मंगलवार, 24 अक्तूबर 2017

मटर

वैज्ञानिक नाम (Botanical name):-             पाइसम सटाइवम (Pisum sativum)
कुल (Family) :-                                        लेग्यूमिनोसी (Leguminoseae)
गुणसूत्र संख्या (Chromosome number):-  2n = 14

मटर:-
मटर की खेती उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में सर्दी में और पहाड़ी क्षेत्रों में गर्मी में की जाती हैंइसकी खेती मुख्य रूप से हरी फली प्राप्त करने के लिये की जाती हैं।

उत्पत्ति:-
बाग वाली मटर का जन्म स्थान इथियोपिया तथा खेत वाली मटर का जन्म स्थान हिमालय का तराई प्रदेश अथवा सागरीय प्रदेश हैं।

जलवायु:-
मटर ठंडे मौसम की फसल हैं। मटर की फसल के लिये 13-19 डिग्री से० तापमान सर्वोत्तम हैं। बीज अंकुरण 22 डिग्री से० पर अच्छा होता हैं। तापक्रम का फल की संख्या, खट्टापन, रंग और पौष्टिक गुणों पर बहुत असर पड़ता हैं। फूल व छोटी पत्ती पाले से अधिक प्रभावित होती हैं।

भूमि:-
मटर की खेती सभी प्रकार की भूमि में की जा सकती हैं। लेकिन उचित जल निकास वाली भुरभुरी दोमट मिट्टी सर्वोत्तम होती हैं। मृदा का पी०एच० मान 6-7 अच्छा रहता हैं। अम्लीय भूमि इसके लिये अनुपयुक्त होती हैं।

खेत की तैयारी:-
खेती की 3-4 जुताई देशी हल से करते हैं। उसके बाद पाटा चलाकर खेत को समतल  करके मिट्टी को भुरभुरा बना लिया जाता हैं।

बोने का समय:-
मटर की बुवाई सिंचाई करके करनी चाहिये। मटर की बुवाई मैदानी भागों में अक्टूबर से नवम्बर तक की जाती हैं। प्राय: अगेती किस्म की बुवाई सितम्बर के दूसरे पखवाड़े में, मध्यम किस्म की बुवाई अक्टूबर के दूसरे या तीसरे सप्ताह में तथा पछेती किस्म की बुवाई अक्टूबर के अन्तिम सप्ताह से नवम्बर के प्रथम सप्ताह तक की जाती हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में मटर की बुवाई का उपयुक्त समय मार्च से मई होता हैं।
 
बीज दर:-
अगेती किस्म के लिए 100-120 किग्रा० तथा मध्यकालीन या पछेती फसल के लिए 80-90 किग्रा० प्रति हेक्टेयर की दर से बीज की जरूरत होती हैं।

बुवाई का तरीका:-
बीज को छिटकवाँ या पंक्ति दोनों विधि से बोया जाता हैं। छिटकवाँ विधि से बोने पर बीज अधिक लगता हैं। पंक्तियों में बुवाई के लिए पंक्ति से पंक्ति 30-60 सेमी० तथा पौधे से पौधे 5-10 सेमी० की दूरी  रखी जाती हैं। बीज को 2-5 सेमी० की गहराई तक बोया जा सकता हैं।
 
बीज उपचार:-
बीज को राइजोबियम कल्चर से उपचारित करके बोना चाहिये। इससे पौधे की जड़ों में अधिक जीवाणु ग्रंथिकायें बनती हैं। 3 से 5 ग्राम राइजोबियम कल्चर से प्रति एक किलोग्राम बीज को उपचारित किया जा सकता हैं।

प्रजातियाँ:-
बागवानी मटर को दो भागों में बांटा गया हैं-
  • चिकने बीज वाली मटर (Smooth seeded)
  • खुरदरे बीज वाली (Wrinkled seeded)
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली द्वारा प्रस्तावित जातियाँ निम्नलिखित हैं-
अगेती जातियाँ:-
  • असौजी तथा मेटियोर- चिकना दाना, हरी फली, 60-65 दिन में तैयार
  • अर्ली बदगर- दाना खुरदुरा, बौनी किस्म, हरी फली, 60-65 दिन में तैयार
  • आर्केल- दाना खुरदुरा, पौधे छोटे, फली अच्छी तरह भरी हुई 8-10 सेमी० लम्बी 7-8 दाने वाली, 65-70 दिन में तैयार, औसत उपज 40-60 कुंतल प्रति हेक्टेयर
  • अन्य जातियाँ- हरा बोना, जवाहर मटर-3, जवाहर मटर-4, एल्डरमैन, अर्ली जाइन्ट लिटिल मरवेल, पी०एम०-1, पी०एम०-2, वी०पी०-7802 आदि इस वर्ग की प्रमुख जातियाँ हैं।
मध्यम जातियाँ (Mid season varieties):-
  • बोनविले- दान खुरदुरा, 85 दिन में तैयार, फली लम्बी व गहरी हरी तथा दाना भरा हुआ, दाने मोटे व मीठे, उपज 100 कुंतल प्रति हेक्टेयर
  • अन्य जातियाँ- जवाहर मटर-1, जवाहर मटर-2, न्यूलाइन परफेक्सन, लिंकन, वी०एल०-2, यू०डी०-2, पी०-87, जवाहर पी०-54, जवाहर पी०-83, आजाद मटर आदि इस वर्ग की प्रमुख जातियाँ हैं।
पछेती जातियाँ (Late varieties):-
  • एन०पी०-29- दाना खुरदुरा, 100 दिन में तैयार
  • अन्य जातियाँ- सिल्विया, मल्टीफ्रीजर आदि इस वर्ग की प्रमुख जातियाँ हैं।
अन्य जातियाँ:-
  • सुपीरियर, अर्लीपरफेक्सन प्राइड ऐस, न्यू इरा आदि कैनिंन के लिए उपयुक्त हैं।
  • सिल्विया, मेल्टिंग सुगर, ड्वार्फ ग्रे सुगर आदि छिलके सहित खाने वाली जाति में प्रमुख हैं।
  • अर्ली जाइंट तथा एल्डरमैन आदि पर्वतीय क्षेत्र के लिए प्रमुख हैं।
  • न्यूलाइन परफेक्सन व ब्रिदगर- राष्ट्रीय बीज निगम द्वारा प्रस्तावित जातियाँ हैं।
  • पी०-8, पी०-35, पी०-23, मैरोफेट तथा टेलीफोन- पंजाब द्वारा प्रस्तावित जातियाँ हैं।
  • टा०-17 (चिकने दाने वाली), टा०-31, टा०-56 व यू०पी०-119 (खुरदुरे दाने वाली)- उत्तर प्रदेश द्वारा प्रस्तावित जातियाँ हैं।
  • चन्द्र शेखर कृषि एवंप्रोधोगिकी विश्वविधालय, कानपुर द्वारा मटर की नयी बौनी प्रजाति स्वाति (के०एफ०पी०डी०-24) विकसित की गई हैं। विशेषता- इसी जगह द्वारा विकसित मटर की बौनी प्रजाति अपर्णा से 7 दिन अगेती होने के साथ ही 20-25 प्रतिशत अधिक उपज देती हैं। दाना बड़ा, दाना के भार अधिक (250 ग्राम प्रति 1000),  पौधा बौना (40-50 सेमी०), उपज 35-40 कुंतल प्रति हेक्टेयर, सिंचित व असिंचित दोनों दशाओं के लिए उपयुक्त हैं।
खाद एवं उर्वरक:-
गोबर की सदी हुई खाद 200 कुंतल प्रति हेक्टेयर की दर से डालकर खेत को तैयार किया जाता हैं। नाइट्रोजन 20-50 किग्रा०, फास्फोरस 50 किग्रा० और पोटाश 30-80 किग्रा० प्रति हेकटहर की दर अन्तिम जुताई से पूर्व दी जाती हैं। नाइट्रोजन की आधी मात्रा, फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा अन्तिम जुताई से पूर्व दी जाती हैं। शेष नाइट्रोजन की मात्रा बुवाई के 20-25 दिन बाद टॉपड्रेसिंग द्वारा दी जाती हैं।

सिंचाई:-
मटर कम पानी चाहने वाली फसल हैं। मटर में पहली सिंचाई फूल आने के समय व दूसरी सिंचाई पहली सिंचाई के 25-30 दिन बाद की जाती हैं। पाला पड़ने की सम्भावना होने पर खेती की हल्की सिंचाई करनी चाहिये।

खरपतवार नियंत्रण:-
मटर की फसल में 1-2 निराई-गुड़ाई खुर्पी या कुदाल द्वारा की जाती हैं। इसके अलावा बुवाई के पूर्व या बुवाई के दो दिन बाद तक वासालीन 2-3 लीटर या पेन्डीमैथीलिन 3.3 लीटर मात्रा 1000 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करे।
 
कीट:-
माहू एवं थ्रिप्स:- ये कीट पौधे का रस चूसते हैं।
रोकथाम:- इमिडाक्लोरपीड़ 0.5 मिली०, रोगोर 30 प्रतिशत ई०सी० 1 लीटर मात्रा या मेटासिस्टाक 25 प्रतिशत ई०सी० 0.25प्रतिशत प्रति एक लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करे।
लीफ माइनर:- इस कीट की सूँडी पत्ती में पतली-पतली सुरंग बनाती हैं। तथा का पत्ती का रस चूसते हैं।
रोकथाम:- रोगोर 30 प्रतिशत ई०सी० 1 लीटर या मेटासिस्टाक 25 प्रतिशत ई०सी० 0.25प्रतिशत को 600 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से 600 लीटर पानी में घोलकर 15 दिन के अन्तराल पर आवश्यकतानुसार छिड़काव करना चाहिये।
फली छेदक कीट:- इस कीट की सूँडी फल व दाने को खाकर नुकसान करती हैं।
रोकथाम:- इन्सल्फान 35 प्रतिशत  या मैलाथियान 50 प्रतिशत ई०सी० 1.25 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से 600 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करे।

रोग:-
पाउडरी मिल्डयू:- पत्तियों, फलियों एवं तनों पर सफ़ेद पाउडर सा दिखाई देता हैं।
रोकथाम:- गन्धक 25-30 किग्रा० या कैराथेन 0.06 प्रतिशत को पानी में घोलकर 7 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करे।
उकठा:- इस रोग से पूरा पौधा मुरझा जाता है, तना सिकुड़ जाता हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिए फसल चक्र अपनाये तथा उपचारित बीज की बुवाई करे। बेवस्टीन या थीरम 3 ग्राम प्रति एक किग्रा० बीज की दर से उपचार करना चाहिये।
रस्ट (रतुआ):- सर्वप्रथम पौधे की पत्ती, तना, पर्णवृन्त तथा फली पर भूरे धब्बे पड़ते हैं। पत्ती पीली पड़कर गिरने लगती हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिए क्षतिग्रस्त पौधे को
नष्ट कर देना चाहिये। उचित फसल चक्र अपनाये तथा बीज को उपचारित करके ही बुवाई करे। पौधो पर शुरुआत से ही बोर्डों मिश्रण (5:5:50) अथवा जिनेब 3 किग्रा० प्रति हेक्टेयर की दर से पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिये।
जड़ गलन (Root rot):- उपचारित बीज का प्रयोग करे।
रोकथाम:- बीज को एरासन 2 ग्राम, थीरम या कैप्टान 3 ग्राम तथा बेवस्टीन 1 ग्राम प्रति एक किलोग्राम की दर से उपचारित करके बुवाई करनी चाहिये।

फलों की तुड़ाई:-
सब्जी की लिये हरी मटर की तुड़ाई उचित अवस्था पर करनी चाहिये। हरी फली प्राप्त करने के लिये लगभग 3 तुड़ाइयाँ की जाती हैं। प्राय: अगेती क़िस्म 50-60 दिन में मध्यकालीन एवं पछेती क़िस्म 90-100 दिन में तैयार हो जाती हैं।
  • मटर संसाधन उधोग में मटर की परिपक्वता की जांच 'हेन्ड्रोमीटर' द्वारा की जाती हैं।
उपज:-
अगेती किस्मों से 30-40 कुंतल तथा मध्यकालीन व पछेती क़िस्मों से 70-80 कुंतल प्रति हेक्टेयर की दर से हरी फली प्राप्त होती हैं।

भन्डारण:-
साधारण अवस्था में ताजी बिना छिली हुई फली का 2-3 दिन तक भन्डारण किया जा सकता हैं। परन्तु 32 डिग्री फ़रेन्हाइट तापक्रम पर तथा 85-90 प्रतिशत आपेक्षिक आदरता पर प्रशीतक ग्रहों में दो सप्ताह तक भन्डारण किया जा सकता हैं।

फ़ाइनल

सोमवार, 23 अक्तूबर 2017

मिर्च

मिर्च  (Chillie)
 
वैज्ञानिक नाम (Botanical name):-             केपसीकम एनम (Capsicum annuum L.)
कुल (Family) :-                                       सोलेनेसी (Solanaceae)
गुणसूत्र संख्या (Chromosome number):-   2n = 24,36,48
 
मिर्च:-
भारत में मिर्च 8.26 लाख हेक्टेयर भूमि में उगाया जाता हैं तथा 5.11 लाख टन सूखी मिर्च का उत्पादन होता हैं। उत्तर प्रदेश में कुल 20100 हेक्टेयर भूमि में खेती होती हैं। मिर्च का उपयोग सब्जियों और चटनियों में इस्तेमाल होने वाले प्रमुख मसाले के रूप में किया जाता हैं।
  • मिर्च में तीखापन या तेजी ओलियोरेसिन कैप्सिन नामक एक उड़नशील एल्केलाईड के कारण तथा उगता कैप्साइसीन नामक एक रवेदार उग्र पदार्थ के कारण होती हैं। बड़ी तथा छोटी 'मीठी' मिर्च एस्कार्षिक अम्ल की घवी होती हैं।
उत्पत्ति:-
 
जलवायु:-
मिर्च गर्म और आद्र जलवायु में भली-भाँती उगायी जा सकती हैं, परन्तु इसके फलों को पकते समय शुष्क मौसम का होना भी जरूरी होता हैं। बीज का अच्छा अंकुरण 18-30 डिग्री से० पर होता हैं। मिर्च को समुद्रतल से 2000 मीटर की ऊँचाई वाले क्षेत्रों में आसानी से उगाया जा सकता हैं। 15 डिग्री से० से कम और 33 डिग्री० से अधिक तापमान बड़ी मिर्च के फलों को बनने रोक देता हैं। तेज मिर्च अपेक्षाकृत अधिक गर्मी सह लेती हैं। उच्च तीव्रता वाला प्रकाश पैदावार को बढ़ाता हैं, परन्तु मिर्च में कैप्सिसिन की मात्रा को घटाता हैं तथा फलों के रंग विकास में भी पर्याप्त देरी कर देता हैं।
 
भूमि:-
मिर्च की खेती के लिये अच्छे जल निकास वाली जीवांशयुक्त दोमट मिट्टी सर्वोत्तम होती हैं। मिट्टी का पी० एच० मान 6.5 से 8 उपयुक्त रहता हैं। लेकिन जहाँ पर फसलकाल छोटा होता हैं वहाँ पर बलुई तथा दोमट मिट्टी को प्राथमिकता दी जाती हैं। मिर्च की खेती के लिये अम्लीय मिट्टी अनुयपयुक्त होती हैं।
 
भूमि की तैयारी:-
खेत में सबसे पहले मिट्टी पलटने वाले हल से एक गहरी जुताई करनी चाहिये। उसके बाद भूमि में गोबर की सड़ी खाद ड़ालकर हैरों या देशी हल से 3-4  जुताई करके, पाटा चलाकर खेत को समतल कर लेना चाहिये। ताकि अन्य जुताई के बाद गोबर की खाद मिट्टी में अच्छी तरह से मिल जाये । जिससे सिंचाई करते समय कठिनाई ना हो।
 
बोने का समय :-
  • जाड़ों की फसल:- इस वर्ग में मैदानी तथा दक्षिण क्षेत्रों में मिर्च की खेती की जाती हैं। इसकी बुवाई जून से जुलाई में तथा रोपाई अगस्त से सितम्बर में की जाती हैं।
  • गर्मी की फसल:- इसकी बुवाई नवम्बर में तथा रोपाई जनवरी में की जाती हैं।
  • बरसाती फसल और पहाड़ी क्षेत्र:- इसकी बुवाई मार्च से अप्रैल में तथा रोपाई अप्रैल से मई में की जाती हैं।
  • पाला पड़ने वाला क्षेत्र:- इसकी बुवाई अप्रैल से मई तथा रोपाई मई से जून में की जाती हैं।
बीज दर:-
मिर्च का बीज 600-700 ग्राम प्रति एक हेक्टेयर के लिए पर्याप्त  होता हैं।
 
प्रजातियां:-
मिर्च की पन्त सी-1, एन० पी० 46-ए , चंचल, पूसा ज्वाला, के०-5452, बी० सी०-1, पी० सी०-2, जवाहर-218, पूरी रैड, फजलिका-6, फजलिका-7, अबोहर-7, अबोहर-12 आदि प्रमुख किस्म हैं।
 
बीज एवं भूमि उपचार:-
बीज को बोने से पहले भूमि और बीज दोनों को उपचारित करना आवश्यक होता होता हैं। बीज को उपचारित करने के लिये थीरम 2  ग्राम प्रति 1 किलोग्राम या कॉपर सल्फेट के घोल में 8-10 मिनट तक उपचारित करना चाहिए। तथा भूमि शोधन के लिये एल्ड्रिन 5 प्रतिशत धूल 20 -25  किग्रा ० प्रति एक हेक्टेयर के लिये प्रयोग किया जाता हैं।
 
नर्सरी तैयार करना:-
मिर्च की अच्छी पैदावार लेने के लिये पहले मिर्च को नर्सरी में बोते हैं। पौध तैयार करने के लिये भूमि से 15-20 सेमी० ऊँची उठी तथा एक मीटर चौड़ी तथा लम्बाई आवश्यकतानुसार की एक क्यारी तैयार की जाती हैं। दो क्यारी के बीच 50 सेमी० गहरी और 8-10 सेमी०  चौड़ी नाली बनाते हैं, जिससे नर्सरी को आसानी से सिंचित किया जा सके और फालतू पानी को बहार निकाल सके। नर्सरी में गोबर की सड़ी हुई खाद 1-15 किग्रा० प्रति एक वर्ग फीट की दर से अच्छी तरह मिलाते  हैं। नर्सरी में बीज लाइन में बोना चाहिये। लाइन से  लाइन की दूरी 5 सेमी० तथा गहराई 1-2 सेमी० होनी चाहिये। नर्सरी को एक सप्ताह तक भूसे या सूखी घास से ढक देते हैं। एक सप्ताह तक सुबह-शाम दिन में दो बार नर्सरी को पानी से भिगोते हैं।
  • डैम्पिंग ऑफ रोग से बचाने के लिये 1 प्रतिशत बोर्डों मिश्रण का 12-15 के अन्तराल पर छिड़काव करना चाहिये।
  • कीट के प्रकोप से बचाने के लिये 2 मिली० प्रति एक लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिये।
पौध रोपण:-
पौध की रोपाई शाम के समय करनी चाहिये। पौध जब 4-6 सप्ताह की हो जाये तब रोपाई करनी चाहिये। रोपाई के तुरन्त बाद खेत में हल्का पानी देना। पौध को नाइट्रोजन यूरिया के घोल से दी जाये तो पौधे स्वस्थ रहते हैं। खरीफ में पौध की रोपाई करते समय लाइन से लाइन की दूरी 60 सेमी० और पौधे से पौधे की दूरी 45 सेमी० तथा जायद में लाइन से लाइन की दूरी 45 सेमी० और पौधे से पौधे की दूरी 30 सेमी० होनी चाहिये।
 
खाद एवं उर्वरक:-
खेत की तैयारी करते समय अन्तिम जुताई से पूर्व गोबर की सड़ी हुई खाद 200-300 कुन्तल प्रति एक हेक्टेयर की दर फैलाकर भूमि में अच्छे से मिलाना चाहिये। इसके अलावा रोपण के समय नाइट्रोजन  किग्रा०, फॉस्फोरस  किग्रा० और पोटाश  किग्रा० प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिये। नाइट्रोजन की आधी  मात्रा रोपण के समय और शेष मात्रा रोपण के बाद
 
सिंचाई:-
पहली सिंचाई रोपाई के तुरन्त बाद करनी चाहिये। इसके बाद 8-10 दिन के अन्तराल पर आवश्यकतानुसार सिंचाई।
 
निराई-गुड़ाई:-
सामान्यत: मिर्च में पहली निराई-गुड़ाई 20-25 और दूसरी निराई-गुड़ाई  35-40 दिन बाद करनी चाहिये। खेत में निराई-गुड़ाई का कार्य हाथ से खुरपे द्वारा, डोरा या कोलपा द्वारा करनी चाहिये।
 
खरपतवार नियन्त्रण:-
 खरपतवार नियन्त्रण के लिए समय-समय पर निराई-गुड़ाई करते रहना चाहिये।
 
कीट:-
थ्रिप्स :- यह कीट पत्ती का रस चूसकर हानि पहुँचाता हैं। मार्च से नवम्बर तक इस कीट का प्रकोप अधिक होता हैं।
रोकथाम:- इस कीट से नियन्त्रण के लिये मैलाथियान 50 प्रतिशत ई० सी० 0.05 प्रतिशत या मैलाथियान 5 प्रतिशत धूल 20-25 किग्रा० प्रति एक हेक्टेयर की दर से बुरकना चाहिये।
फुदका कीट:- यह कीट पत्ती तथा मुलायम शाखा का रस चूसकर हानि पहुँचाता हैं। इस कीट का प्रकोप मार्च से अक्टूबर तक अधिक होता हैं।
रोकथाम:- इस कीट से नियन्त्रण के लिये फॉस्फोमिडान 0.03 प्रतिशत, मैलाथियान 50 प्रतिशत ई० सी० 0.05 प्रतिशत या एण्डोसल्फान 0.04 प्रतिशत का पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिये।
पिली माइट:- यह कीट पत्ती का रास चूसते हैं और मिर्च में मुर्दा रोग फैलाते हैं। इसका अधिक प्रकोप फरवरी से अगस्त तक अधिक होता हैं।
रोकथाम:- इस कीट से नियन्त्रण के लिये मैटासिस्टाक्स 0.03 प्रतिशत, मोरोसाइड 0.04 या फोसालोन 0.05 प्रतिशत को पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिये।
 
रोग:-
फल गलन:- यह रोग कॉलेस्ट्रोटरीक हम कैप्सिस नामक फफूँदी के कारण होता हैं। इससे फलों पर गहरे भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं और फलों का रंग उड़ जाता हैं।
रोकथाम:- इस रोग से नियन्त्रण के लिये बीज को एग्रोसन जी० एन० से उपचारित करके बुवाई करनी चाहिये।
मोजेक:- इस रोग से पौधों की बढ़वार रुक जाती हैं। पत्ते मोटे व् मुड़ जाते हैं। पौधा झाड़ीनुमा हो जाता हैं। पत्ती पिली पड़ जाती हैं।
रोकथाम:- इस रोग से नियन्त्रण के लिये मैलाथियान 5 प्रतिशत धूल 1.0 प्रतिशत का पानी में घोल बनाकर 10-15 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करना चाहिये। रोगी पौधों को उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिये। रोग प्रतिरोधी किस्म की बुवाई करनी चाहिये।
आद्र गलन:- यह रोग पिथियम स्पीसीज या फाइटोफथोरा स्पीसीज नामक फफूँदी के कारण होता हैं। इस रोग से पौधे छोटे ही  हैं।
रोकथाम:- इस रोग से नियन्त्रण के लिये डाईथेन एम-45 का 0.03 प्रतिशत का पानी में घोल बनाकर छिड़काव किया जाता हैं।
 
फलियों की तुड़ाई:-
मिर्च की फलियाँ जब पककर लाल हो जायें तब इनकी तुड़ाई करनी चाहिये। आमतौर से फलियाँ दिसम्बर से जनवरी में पकती हैं।
 
उपज:-
ताजी मिर्च की पैदावार 40-60 कुन्तल तथा सूखी मिर्च 10-15 प्रति एक हेक्टेयर प्राप्त होती हैं।
 
भण्डारण:-
हरी मिर्च के फलों को 7-10 डिग्री से० तापमान तथा 90-95 प्रतिशत आद्रता पर 14-21 दिन तक भण्डारित किया जा सकता हैं। लाल मिर्च को 3-10 दिन तक सूर्य की तेज धुप में सुखाकर 10 प्रतिशत नमी पर भण्डारण करना चाहिये।
 
बीज उत्पादन:-
यह स्वपरागित फल हैं फिर भी परपरागण की बहुत सम्भावना रहती हैं। दो किस्मों बीच लगभग 400 मीटर की दूरी रखते हैं। बीज उत्पादन के लिये अच्छे स्वस्थ एवं पूर्ण विकसित फलों को चुना जाता हैं। पूरी पकने पर ही फल को तोड़ा जाता हैं। शिमला मिर्च में  पूरा रंग लेकर सिकुड़ने लगे, बीज के लिये तभी तोड़ना चाहियें। बीज की औसत उपज 50-80 किग्रा० प्रति एक हेक्टेयर प्राप्त होती हैं। यह उपज विभिन्न किस्मों में अलग-अलग मात्रा में पायी जाती हैं।

फाइनल 

शनिवार, 21 अक्तूबर 2017

टमाटर (Tomata)

टमाटर (Tomata)
 
वैज्ञानिक नाम (Botanical name):-         लाईकोपरसिकोन एस्कुलेंटम (Lycopersicon esculentum mill)
कुल (Family) :-                                    सोलेनेसी (Solanaceae)।
गुणसूत्र संख्या(Chromosome number):- 2n = 24

टमाटर:-
पौष्टिक सब्जियों में टमाटर का महत्वपूर्ण स्थान हैं। इसे विलायती बैंगन भी कहते हैं। पका हुआ टमाटर सब्जी के अतिरिक्त फल की भांति भी प्रयोग किया जा सकता हैं। भाजी के अतिरिक्त टमाटर की चटनी, केचप, सलाद, रस आदि निर्माण करके भविष्य में प्रयोग हेतु सुरक्षित रख सकते हैं। अधिक गूदेदार टमाटर की डिब्बाबंदी भी की जाती हैं।
 
उत्पत्ती:-
टमाटर की उत्पत्ती उष्ण कटिबंधीय अमेरिका में पेरू व् मैक्सिको क्षेत्र में मानी जाती हैं। मैक्सिको में इसे जिटा टोमेटो कहा जाता हैं जो बाद में टमेटो हो गया। लगभग सोलहवीं शताब्दी में स्पेनवासियों द्वारा इसे यूरोप में लाया गया। फिर यूरोपवासियों द्वारा इसे अमेरिका तथा कनाड़ा में लाया गया। भारत में यह पुर्तगालियों द्वारा लाया गया और पिछले दस दशकों में ही यह सब्जी के रूप में लोकप्रिय हो गया।
 
जलवायु:-
 टमाटर की फसल को अधिक गरमाहट से भरपूर वातावरण अधिक प्रिय हैं। ठण्ड अधिक होने पर फल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हैं। फलों की अपेक्षा पत्तियाँ अधिक ठण्ड सहन कर लेती हैं। अधिक वर्षा होने पर पौधों में मोजेक रोग का आक्रमण होता हैं।
 
भूमि:-
टमाटर की फसल को सभी प्रकार की भूमि में उगाया जा सकता हैं। टमाटर की फसल के लिये उचित जल निकास वाली दोमट मिट्टी सर्वोत्तम हैं। टमाटर की फसल के लिए मृदा का पी० एच० मान 6-7 उपयुक्त होता हैं।
 
भूमि की तैयारी:-
खेत में सबसे पहले मिट्टी पलटने वाले हल से गहरी जुताई करनी चाहिये। उसके बाद हैरों या देशी हल से 2-3 जुताई करके मिट्टी भुरभुरी कर लेनी चाहिये। फिर पाटा चलाकर खेत को समतल कर लेता हैं जिससे सिंचाई करते समय कठिनाई ना हो।
 
बोने का समय:-
मैदानी भागों में टमाटर जून के अन्त से लेकर नवम्बर तक बोया जाता हैं। जिन क्षेत्रों में मौसम शीघ्र ठण्डा होने लगता हैं। वहाँ पर सबसे अगेती फसल जून से जुलाई के मध्य तक बोयी जाती हैं। और जहाँ ठण्ड देर से होती हैं उन क्षेत्रों में मध्य जुलाई से मध्य अगस्त तक बोई जा सकती हैं। दूसरी अगेती फसल मध्य अगस्त से मध्य अक्तूबर तथा तीसरी फसल का बिज मध्य अक्तूबर से नवम्बर तक बोया जाता हैं। पहाड़ी क्षेत्रों में यह मार्च से मई तक बोया जाता हैं। उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में टमाटर की मुख्य रूप से दो फसल ली जाती हैं-
  • बरसात की फसल:- जून से जुलाई में पौध तैयार करके जुलाई से अगस्त तक पौधा रोपण का कार्य किया जा सकता हैं। फल अक्तूबर से नवम्बर तक तैयार हो जाता हैं।
  • सर्दी की फसल:- अक्तूबर में पौध तैयार करके नवम्बर में पौधा रोपण का कार्य की जा सकता हैं। इस समय संकर किस्मों को लगाना लाभदायक होता हैं। फल जनवरी से लेकर अप्रैल तक उपलब्ध होते हैं।
 
बीज दर:-
टमाटर का बीज 400 से 500 ग्राम और संकर किस्म का बीज 100 से 150 ग्राम प्रति एक हेक्टेयर की दर से लगता हैं। टमाटर का बीज 4 वर्ष तक अंकुरण की क्षमता रखता हैं। 25 ग्राम में लगभग 8000 से 9000 बीज होते हैं। इसका बीज सब सब्जियों से हल्का होता हैं। अच्छा बीज 85-90 प्रतिशत तक अंकुरण करता हैं।

प्रजातियाँ:-
  • बरसात की किस्म:-
  • र्दी की फसल:- कल्यानपुर टा०-2, आजाद टा०-2, कल्यानपुर अंगूरलता, पूसा गौरव,
  • बौनी किस्म:- पूसा अर्ली ड्वार्फ, रोमा, एच० एस०-102 (पूसा अर्ली ड्वार्फ X एस०-12), एच० एस-101 (सलैक्शन 2-3 X एक विदेशी जाति),
  • फैलने वाली किस्म:- सू, पूसा रेड प्लम,
  • मध्यम फैलने वाली किस्म:- अर्का सौरभ,
  • संकर किस्म:- स्वर्ण वैभव, अविनाश-2, रुपाली,
  • अन्य किस्म:- पन्तटमाटर-1, आजाद टा०-3, पंजाब छुआरा, पूसा रूबी, पंजाब केसरी, पूसा शीतल, काशी अमृत, काशी अनुपम, काशी, पूसा आदि मुख्या किस्म हैं।
 
पौध तैयार करना:-
बीज बोने के लिये 15 सेमी० ऊँची उठी हुई क्यारी, चौड़ाई 1 मीटर और लम्बाई आवश्यकतानुसार होनी चाहिये। बीज बालू, रेत या राख के साथ मिलाकर छिटककर बो दिया जाता हैं या बीज की बुवाई पंक्तिमें भी कर सकते हैं। बीज को 1.5 से 2 सेमी० गहराई पर बोते हैं। बोने के तुरन्त बाद फुव्वारे से पानी देना चाहिये। एक हेक्टेयर भूमि में रोपाई करने के लिए लगभग 150 वर्ग मीटर पौध क्षेत्र पर्याप्त हैं। अंकुरण के समय पौधों की कड़ी धूप व् वर्षा से रक्षा करनी चाहिये। अंकुरण लगभग 20 दिन में दिखाई देना लगता हैं। जब पौधे एक सप्ताह के हो जायें तो उन पर बावस्टीन 2 ग्राम प्रति एक लीटर पानी का घोल बनाकर छिडकाव करना चाहिये। पौधशाला में पत्तियों पर कभी-कभी कीट का प्रकोप हो जाता हैं उसके लिये मोनोक्रोटोफ़ॉस 2 मिलीग्राम प्रति 1 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करना चाहिये। सिंचाई आवश्यकतानुसार करनी चाहिये अधिक सिंचाई करने से पौधे शीघ्र बढ़कर कोमल हो जाते हैं जिससे रोपाई के बाद पौधे शीघ्र संभल नहीं पाते हैं। 4-6 सप्ताह के पौधे की रोपाई की जाती हैं।
 
पौध रोपण:-
 पौधों को खेत में हमेशा शाम के समय लगाना चाहिये। जब पौधे 5-6 पत्ती के और ऊँचाई 15-20 सेमी० की हो जाये तब रोपाई करनी चाहिये। रोपण के लिए 60 सेमी० चौड़ी तथा जमीन की सतह से 20 सेमी० ऊँची उठी हुई क्यारी बनानी चाहिये, जिनके दोनों तरफ 20 सेमी० चौड़ी नाली बनाई जाती हैं। बनाई गयी क्यारी में पौधों की रोपाई की जाती हैं। पौधे से पौधे की दूरी 30 सेमी० होनी चाहिये। रोपाई के बाद नाली में हल्की सिंचाई कर देनी चाहिये जिससे पौधे अच्छी तरह से स्थापित हो जाते हैं। बरसात की फसल की रोपाई ऊँचे थालों या मेंड़ों पर करना बहुत अच्छा रहता हैं।

खाद एवं उर्वरक:-
खेत की तैयारी करते समय गोबर की सड़ी हुई खाद 200 कुन्तल प्रति हेक्टेयर की दर फैलाकर भूमि में अच्छे से मिलाना चाहिये। इसके अलावा रोपण के समय नाइट्रोजन 150 किग्रा०, फॉस्फोरस 60 किग्रा० और पोटाश 60 किग्रा० प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिये। नाइट्रोजन की आधी मात्रा रोपण के समय और शेष मात्रा रोपण के बाद दो बार में देनी हैं। पहली मात्रा रोपाई के 30 दिन और दूसरी मात्रा 60 दिन बाद देनी हैं।
 
सिंचाई:-
पहली सिंचाई रोपण के तुरन्त बाद की जाती हैं। बाद की सिंचाई आवश्यकतानुसार 20-25 दिन के अन्तराल पर की जाती हैं।
 
खरपतवार नियन्त्रण:-
टमाटर की फसल के अच्छे उत्पादन के लिए समय-समय पर निराई-गुड़ाई करके खरपतवार को नष्ट कर देना चाहिये। इसके अलावा रोपाई के 1 से 2 दिन बाद पेंन्डीमेथीलीन 3.3 लीटर मात्रा 1000 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव कर सकते हैं।
 
निराई-गुड़ाई:-
रोपाई के बाद पहली निराई-गुड़ाई 20-25 दिन बाद दूसरी 40-45 दिन बाद निराई-गुड़ाई करनी चाहिये। प्रत्येक निराई-गुड़ाई के बाद पौधों पर मिट्टी चढ़ाना आवश्यक हैं।

कीट:-
फल भेधक सुंडी:- प्रौढ़ कीट मध्यम आकार का पीले भूरे रंग का होता हैं। इसके पृष्ठ भाव व् दोनों किनारों पर एक-एक हल्की पिली धारी होती हैं। इसके पृष्ठ भाग के दोनों किनारे हरे या काले रंग के होते हैं। यह अप्रैल से सितम्बर तक हानि पहुँचाता हैं। इसकी सुंडी कच्चे तथा पके टमाटर में छेद करके अन्दर का गूदा खा जाती हैं।
रोकथाम:- मैलाथियान 50 प्रतिशत ई० सी० 1 लीटर, सेविन 50 प्रतिशत डबल्यू०पी० 2 किग्रा० या थायोडान 35 प्रतिशत ई० सी० 1.5 किग्रा० प्रति एक हेक्टेयर की दर से पानी में घोलकर छिडकाव करना चाहिये।
चूर्णी बेग:- छोटे व प्रौढ़ कीट पत्ती, उनके वृत्तों व् मुलामय प्ररोहों से रस चूसते हैं। इनका प्रकोप नवम्बर तक अधिक रहता हैं।
रोकथाम:- मैलाथियान 50 प्रतिशत ई० सी० या एन्डोसल्फान 0.04 प्रतिशत का घोल बनाकर छिडकाव करना चाहिये।

रोग:-
डैम्पिंग ऑफ:- इसका प्रकोप मुख्यत: नर्सरी में पौध पर भूमि के समीप तने पर होता हैं। जिससे पौध गिर जाती हैं। यह पिथियम स्पीसीज या राइजोकटिनिया स्पीसीज या फाइटोफथोरा स्पीसीज द्वारा होता हैं।
रोकथाम:- इस रोग से पौधे को बचाने के लिये नर्सरी की मिट्टी स्टरलाईज और बीज बोने से पहले किसी भी कॉपर कम्पाउंड से उपचारित कर लेना चाहिये।
अर्ली ब्लाइट अगेती झुलसा:- यह आल्टरनेरिया सोलेनाई नामक फफूँदी से होता हैं। पौधों की पत्तियों व तने पर भूरे व  काले रंग के धब्बे पड़ जाते हैं। रोग का प्रकोप अधिक होने पर फल गिरने लगते हैं। पौधा सुख जाता हैं।
रोकथाम:- रोगग्रस्त बीज का प्रयोग नहीं करना चाहिये। कॉपर कम्पाउंड का बार-बार छिडकाव करके इस रोग से रोकथाम की जा सकती हैं। कॉपर ओक्सीक्लोराइड 50 प्रतिशत डबल्यू०पी० 3 ग्राम प्रति एक लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करना चाहिये।
लीफ कर्ल:- इस रोग में पत्तियाँ सिकुड़ कर मुड़ जाती हैं। पत्तियाँ खुरदुरी व् मोटी हो जाती हैं। यह रोग बरसात के मौसम में अधिक लगता हैं। जो सफ़ेद मक्खी के द्वारा फैलता हैं।
रोकथाम:- मोनोक्रोटोफॉस 36 प्रतिशत एस० एल० 2 मिली० प्रति एक लीटर या मेटासिस्टोक्स 25 प्रतिशत ई० सी० 1 लीटर मात्रा 1000 लीटर पानी में घोलकर 3-4 बार छिडकाव करना चाहिये।
फ्रूटरॉट:- यह फाइटोफथोरा स्पीसीज द्वारा होता हैं। जिस स्थान से फल भूमि के सम्पर्क में आ जाता हैं उस स्थान पर भूरे रंग के फलों पर धब्बे पड़ जाते हैं तथा फल सड़ जाता हैं।
रोकथाम:- भूमि का जल निकास अच्छा होना चाहिये। पौधों को मेड़ों पर और लकड़ियों के सहारे चढ़ाना चाहिये। पौधों पर बोर्डो मिश्रण का छिडकाव करना लाभकारी होता हैं।
रूट नॉट नेमोटोडस:- इस रोग का आक्रमण जड़ों पर होता हैं।
रोकथाम:- भूमि को शोधित करके बुवाई करनी चाहिये। रोग अवरोधी किस्म की बुवाई करनी चाहिये।

पौधों की संघाई:-
टमाटर की अधिकतर प्रजातियाँ फैलने वाली होती हैं जिससे शाखायें भूमि के ऊपर गिर जाती हैं। इस कारण हवा और प्रकाश न मिलने के कारण तथा फलों का सिंचाई के पानी में पड़े रहने के कारण फल रोगग्रस्त हो जाते हैं। इसे अलावा फलों में आकर्षण रंग भी नहीं आता हैं। इसके लिये पौधों को कम से कम 3-4 सेमी० मोटी लकड़ी का सहारा देना चाहिये। जिससे पौधे पूर्ण रूप से प्रकाश पाकर फल आकर में बड़े और आकर्षक होते हैं।
 
फल लगना:-
बसन्त ऋतु के प्रारम्भ में कम तापक्रम और शरद ऋतु से पहले अधिक तापक्रम रहने से फल कम लगते हैं। जिन दिनों में रात्रि का तापक्रम 13 डिग्री फे० से कम और 38 डिग्री फे० से अधिक होने लगता हैं तब पराग सेचन व् फल लगने पर बुरा प्रभाव पड़ता हैं। अच्छी फलत, अगेती फसल तैयार होने, फलों में कम बिज होने और अच्छी अच्छी उपज के लिये- पैरा-क्लोरीफीनोक्सी एसीटिक एसिड 15-50 पी० पी० एम०, 2-4 डाईक्लोरोफीनोक्सी एसीटिक एसिड 1-5 पी० पी० एम०, जिब्रेलिक एसिड 50 पी० पी० एम०, सी० आई० पी० पी० 25 पी० पी० एम०, एन० ओ० ए० 50-100 पी० पी० एम० आदि हार्मोन्स का प्रयोग बहुत लाभकारी होता हैं।

फलों की तुड़ाई:-
टमाटर का फल लगभग 1 माह में पकने लगता हैं। तुरन्त प्रयोग करने के लिये फल पूर्णरूप से सुर्ख हो जाने पर ही तोड़ना चाहिये। दूर भेजने के लिए फलों की तुड़ाई तब करते हैं जब फल पर ललाई आने लगती हैं।
 
उपज:-
टमाटर की उपज 300-400 कुन्तल प्रति एक हेक्टेयर होती हैं।
 
भण्डारण:-
समीप वाले बाजारों में टमाटर शाम को तोड़कर सुबह को भेज दिया जाता हैं। टमाटर के लिये संग्रह घर का तापक्रम 12 से 15 डिग्री से० होना चाहिये। परिपक्व हरे टमाटर संग्रह घर में 10 से 15 डिग्री से० पर लगभग एक माह तक रखे जा सकते हैं। पके हुये टमाटर लगभग 10 दिन तक 4.5 डिग्री से० तापक्रम पर रखे जा सकते हैं।

बीज उत्पादन:-
बीजों में मुख्य रूप से स्व-परागण होता हैं, किन्तु कीटों द्वारा कुछ अंशों में पर-परागण भी होता हैं। अंत: दो किस्मों के बीच 200 मीटर की दूरी रखनी चाहिये। फसल का तीन बार निरिक्षण किया जाता हैं। पहला फूल आने से पहले, दूसरा फूल आने के समय एवं तीसरा फलों की पूर्ण वृद्धि हो जाने पर करते हैं। स्वस्थ फल को बिज के लिए पौधों पर ही छोड़ दिया जाता हैं। पकने पर उन्हें तोड़ लिया जाता हैं। फल का बाहरी छिलका हटा देते हैं तथा फल को छोटे-छोटे भागों में काट लेते हैं। इस प्रकार बीज गूदे से आसानी से निकल जाते हैं इसके बाद बीजों को पानी में डूबा देते हैं। हल्के बीज पानी में तैरने लगते हैं। उन्हें छानकर हटा देते हैं। अब बीजों को हल्की धूप में सुखाते हैं। इसकी औसत उपज 125 से 200 किलोग्राम प्रति एक हेक्टेयर होती हैं।

final

 

मंगलवार, 17 अक्तूबर 2017

भिण्डी (Okra)

भिण्डी (Okra)
 
वैज्ञानिक नाम (Botanical name):-             एबेलमोलकस एस्कुलेंटस (Abelmoschus esculentus)
कुल (Family) :-                                        मालवेसी (Malvaceae)
गुणसूत्र संख्या (Chromosome number):-  2n = 22

भिण्डी:-
भिण्डी के हरे मुलायम फल का प्रयोग सब्जी, सूप फ्राई तथा अन्य रूप में किया जाता हैं। आजकल भिण्डी की कैनिंग और फ्रिजिंग भी की जा रही हैं। पौधे का तना व जड़ गुड एवं खोंड बनाते समय रस साफ करने के काम आता हैं। इसके रेशे से रस्सी बन सकती हैं तथा डंठलों को कागज बनाने के काम में प्रयोग किया जाता हैं।

उत्पत्ति:-
भिण्डी का उत्पत्ति स्थान दक्षिणी अफ्रीका अथवा एशिया माना जाता हैं (थॉमसन एवं कैली)। अफ्रीका में इसकी खेती अमेरिका खोज के बहुत पहले से होती आ रही हैं। यह भारतीय भी हो सकती हैं क्योंकि यहाँ यह जंगली रूप में उगती हुई पायी जाती हैं।

जलवायु:-
भिण्डी गर्म मौसम की फसल होने के कारण लम्बे एवं गर्म मौसम को चाहती हैं। भिण्डी कोमल होने के कारण पाला के प्रति असहनशील होती हैं। भिण्डी के बीज 20 डिग्री से० से कम तापमान पर अंकुरण नही कर पाता हैं।

भूमि:-
 भिण्डी सभी प्रकार की भूमि में उगायी जा सकती हैं। लेकिन अच्छी खेती के लिए अच्छे जल निकास वाली भुरभुरी एवं कार्बनिक पदार्थयुक्त दोमट भूमि उपयुक्त होती हैं। भिण्डी की खेती के लिए उचित पी०एच० मान 6-6.8 होता हैं।

भूमि की तैयारी:-
खेत में सबसे पहले मिट्टी पलटने वाले हल से 20-25 सेमी० गहरी जुताई करनी चाहिये। उसके बाद हैरों या देशी हल से 2-3 जुताई करके मिट्टी भुरभुरी कर लेनी चाहिये। फिर पाटा चलाकर खेत को समतल कर लेता हैं जिससे सिंचाई करते समय कठिनाई ना हो।

खाद एवं उर्वरक:-
बुवाई के 15-20 दिन पूर्व 200-250 कुंतल प्रति हेक्टेयर गोबर की सड़ी हुई खाद खेत में फैलाकर मिला देना चाहिये। इसके अलावा नाइट्रोजन 60 किग्रा०, 50 किग्रा० फास्फोरस और 60 किग्रा० पोटाश प्रति एक हेक्टेयर की दर से देना चाहिये। खरीफ में नाइट्रोजन की मात्रा 70 किग्रा० कर देनी चाहिये। शेष नाइट्रोजन की मात्रा बुवाई के 30 दिन बाद और दूसरी मात्रा 60 दिन बाद देनी चाहिये।

बीज दर:-
बुवाई के समय के आधार पर बीज दर भी अलग-अलग होती हैं। गर्मी में 18-20 किग्रा० तथा बरसात में 10-15 किग्रा० की दर से बीज बोया जाता हैं। भिण्डी में अंकुरण का प्रतिशतांक बुवाई से 24 घंटे पूर्व पानी में या 30 मिनट पहले एसीटोन या एल्कोहल में भिगोकर बढ़ाया जा सकता हैं।

बुवाई का समय:-
भिण्डी को मैदानी भागों में फरवरी मध्य से मार्च के आरम्भ तक बोया जाता हैं। बरसाती फसल को जून के अन्त से जुलाई के आरम्भ तक बोया जाता हैं। पहाड़ों पर भिण्डी अप्रैल से जुलाई तक बोयी जाती हैं। भिण्डी की फसल को लगातार प्राप्त करने के लिये भिण्डी की बुवाई के मौसम में 10-15 दिन के अन्तराल पर कई बार की जाती हैं।

बुवाई का तरीका:-
बीज की बुवाई लाइन में डिबलिंग द्वारा, सीडड्रील या हल के पीछे करते हैं। इसमें लाइन से लाइन की दूरी 30 सेमी०, पौधे से पौधे की दूरी 20-30 सेमी० और एक स्थान पर दो बीज को डालकर बोया जाता हैं, बाद में अगर दोनों बीज जम जाये तो कमजोर पौधे को निकाल देना चाहिये। बरसात में भिण्डी की बुवाई छोटी-छोटी मेंड़ों पर करनी चाहिये। इसमें लाइन से लाइन की दूरी 45-60 सेमी० तथा पौधे से पौधे की दूरी 30 सेमी० की होनी चाहिये। बीज को लगभग 2.5 सेमी० की गहराई पर बोना चाहिये।
 
प्रजातियाँ:-
  • पूसा मखमली- इसका फल 6-8 इंच लम्बे, सीधे, चिकने और हरे रंग के होते हैं। गर्मी में बुवाई के 50 दिन और वर्षा ऋतु में 60 दिन के बाद फल तोड़ने लायक हो जाते हैं।
  • पूसा सावनी- इसे भारत के सभी भागों में उगाया जा रहा हैं। इसे वर्षा और ग्रीष्म कालीन फसल के रूप में उगाया जा सकता हैं। गर्मी में बुवाई के 40-45 दिन और वर्षा ऋतु में 60-65 दिन के बाद फल तोड़ने लायक हो जाते हैं। इस किस्म पर मोजेक का प्रकोप कम और उपज 100 कुन्तल प्रति एक हेक्टेयर प्राप्त होती हैं।
  • लाल भिन्डी- इसके फल लाल, लम्बे, सीधे, गूदेदार तथा पूसा सावनी से कम बीज वाले होते हैं।
  • आई० एच० आर-31- इसके फल लम्बे(24 सेमी०), मोटे गूदे वाले तथा हल्के हरे रंग के होते हैं। प्रति पौधे फल की औसत संख्या 20-25 तथा उपज 350-375 कुन्तल प्रति एक हेक्टेयर होती हैं। फल 5 धारियों वाले तथा फुल खिलने के 8-10 दिन बाद फल तोड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं। यह किस्म पत्तिशिरा मोजेक विषाणु से मुक्त पायी गयी हैं।
  • पंजाब नं०-13- यह गर्मी के लिए उपयुक्त हैं। बुवाई के 50 दिन बाद पहली तुड़ाई शुरू हो जाती हैं। फल मुलायम, हल्के हरे रंग के और उपज 75-80 कुन्तल प्रति एक हेक्टेयर प्राप्त होती हैं।
  • अन्य प्रजातियाँ- पकिन्स लौंग ग्रीन, सलैक्शन-1, सलैक्शन-2, पंजाब पदमिनी, प्रभनी क्रान्ति, वर्षा उपहार, हिसार उन्नत, पूसा-ए-4, आजाद क्रान्ति व लखनऊ ड्वार्फ अच्छी किस्में हैं।

खरपतवार नियंत्रण:-
भिन्डी की फसल में मौसमी खरपतवार की समस्या बनी रहती हैं जिससे फसल को बहुत हानि होती हैं। इसलिये खरपतवार को नष्ट करना जरूरी होता हैं। भिन्डी का खेत यदि बुवाई के बाद प्रथम 30-40 दिन तक खरपतवार रहित रह जाये तो इसके बाद खरपतवार फसल पर विशेष कुप्रभाव नहीं डालते हैं। एलाक्लोर 2.5 किग्रा० या पेन्डीमेथीलीन 1.5 किग्रा० प्रति एक हेक्टेयर का छिडकाव करना चाहिये।
 
निराई-गुड़ाई:-
 शुरुआत से ही खरपतवार को नष्ट करने के लिए निराई-गुड़ाई करते रहना चाहिये। घने पौधे रहने पर अतिरिक्त पौधे निकाल देने चाहिये। जिससे फसल वाले पौधे की बढ़वार ठीक हो सके।

सिंचाई:-
बुवाई हमेशा पलेवा करके करनी चाहिये। ताकि बीज का जमाव अच्छा हो सके। गर्मी में प्रति सप्ताह सिंचाई की जरूरत होती हैं। देर से सिंचाई करने पर फल जल्दी सख्त हो जाते हैं तथा फल की बढ़वार कम होती हैं। वर्षा ऋतु में यदि लम्बे समय तक वर्षा ना हो तो आवश्यकतानुसार सिंचाई करनी चाहिये।

कीट:-
जैसिड या हरा फुदका:- यह हरे रंग के कीट होते हैं। जिनकी पीठ के पिछले भाग पर काले धब्बे पाये जाते हैं। इसके शिशु व् प्रोढ़ कीट दोनों पत्ती व् नर्म भागों से रस चूसते हैं। जिससे पत्ती मुड़कर धीरे-धीरे सूख जाती हैं।
रोकथाम:- मैलाथियान 0.04 प्रतिशत या एल्ड्रिन 0.02 प्रतिशत का घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिये।
 
रोग:-
येलो मोज़ेक:- यह सबसे हानिकारक वाइरस रोग हैं। जहाँ पर भी भिन्डी उगाई जाती हैं वहाँ पर यह फसल नष्ट कर देता हैं। इस वाइरस का संचरण बेमिसिया टेबेकई नामक सफ़ेद मक्खियों द्वारा होता हैं। रोगग्रस्त पौधे की पत्ती की शिरायें चमकीली व् पिली रंग की हो जाती हैं। रोगी पौधे में फल छोटे, हल्का रंग व् विकृत हो जाते हैं। उत्तरी भारत में यह रोग वर्षा ऋतु में अधिक होता हैं। रोगी पौधों को निरोग करना सम्भव नहीं हैं।
रोकथाम:- रोगग्रस्त पौधे को जलाकर नष्ट कर देना चाहिये। खरपतवार को नष्ट कर देना चाहिये। सफ़ेद मक्खी पर नियंत्रण करके प्रकोप को कम किया जा सकता हैं। डाईमेक्रान 100 ई०सी० 1 मिलि० प्रति 3 पानी या नुवान 100 ई०सी० 1 मिलि० प्रति 3 पानी छिडकाव करे। बोने के 25 दिन बाद और अन्य छिड़काव् 15-20 दिन के अन्तर पर करना चाहिये।
तना एवं फल छेदक कीट:- इस कीट की सुन्डी का रंग सफ़ेद होता हैं जिसके ऊपर काले और भूरे रंग के धब्बे होते हैं। इसलिये इसे चित्तीदार सुण्डी कहते हैं। यह तने व् फल में छेद करके नुकसान पहुँचाती हैं। जिससे तना व फल मुरझा कर गिर जाते हैं।
रोकथाम:- क्विनालफास 25 प्रतिशत ई० सी० या क्लोरोपाईरीफ़ॉस 20 प्रतिशत ई० सी० 0.05 प्रतिशत का पानी में घोल बनाकर 15 दिन के अन्तराल पर छिडकाव करते हैं।
 
तुड़ाई:-
भिण्डी में बुवाई के लगभग दो माह बाद पौधों में फूल और फल लगने लगते हैं। फलियों की तुड़ाई फूल खिलने के स6-7 दिन के बाद की जाती हैं। केवल उन्ही फलों को तोड़ना चाहिये जो नरम हो और जिनके सिरे थोडा से मोड़ने पर टूट जाये। साधारणत: हर 3-4 दिन के अन्तर पर फल तोड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं।

उपज:-
जायद में 50-60 कुंतल तथा खरीफ में 90-100 कुंतल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त की जा सकती हैं।
 
बिज उत्पादन:-
 अपनी फसल से बीज उत्पादन करने और अच्छा उत्पादन करने के लिए यह जरूरी हैं कि प्रमाणित बीज को ही बोये। इसके लिए निम्न तरीके अपनाये-
  • भूमि- अच्छे जल निकास वाली, उपजाऊ एवं भूमि जनित रोगों से मुक्त होनी चाहिये। उस भूमि में कम से कम पिछले 2 वर्ष से भिन्डी की फसल नहीं बोयी गयी हो, ऐसी भूमि का चुनाव करना चाहिये।
  • दूरी- इस फसल में 4 से 19 प्रतिशत तक पर-परागण होता हैं। इसलिये जिस खेत में बीज उत्पादन के लिये फसल उगानी हो उस खेत के आस-पास 400 मीटर तक भिण्डी या भिण्डी प्रजाति की कोई भी फसल नहीं लगानी चाहिये।
  • भूमि की तैयारी- एक बार हल से गहरी जुताई करके 3-4 बार हैरों चलाये जिससे मिटटी भुरभुरी हो जाये। फिर पाटा चलाकर उसे समतल कर लें।
  • खाद एवं उर्वरक- 25-30 टन प्रति हेक्टेयर की दर से गोबर की सड़ी हुई खाद खेत की तैयारी करते समय जमीन में मिलायें।
  • बीज- प्रभावीकरण संस्था से प्रमाणित किया हुआ बीज ही खरीदे। 10-15 किग्रा० प्रति एक हेक्टेयर बीज पर्याप्त होता हैं।
  • पौधे और कतारों की दूरी- कतार से कतार की दूरी 60 सेमी० और पौधे से पौधे की दूरी 30-45 सेमी० होनी चाहिये।
  • बोने का तरीका- बुवाई हमेशा कतारों में ही करे। बीज की गहराई 3 सेमी० से अधिक नहीं होनी चाहिये। साथ ही भूमि में पर्याप्त नमी होनी चाहिये।
  • निराई-गुड़ाई- खेत से पूरी तरह खरपतवार नियन्त्रण करने के लिए कम से कम 2-3 बार निराई-गुड़ाई करे।
  • रोगिग- पीले मोजेक ग्रसित पौधे दिखाई देते ही उखाड़कर नष्ट कर देने चाहिये। जिस प्रजाति का बीज, बीज उत्पादन के लिए ले रहे हैं यदि उस खेत में दूसरी प्रजाति का पौधा दिखाई दे तो उसको भी उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिये। जिस प्रजाति का बिज उत्पादन करना हैं उस प्रजाति में दूसरी प्रजाति का पौधा हैं या नहीं ये जानने के लिए पौधों की ऊँचाई, पत्तियों पर रोयें तथा फली के आकर में अन्तर के आधार पर आसानी  से पहचान सकते हैं।
  • कटाई और मड़ाई- फलियाँ जब सूखकर कड़ी हो जाये तो उनको पौधों से तोड़कर धूप में 2-3 दिन सुखा लेना चाहिये। फिर मड़ाई करके बीज को निकाल लें। उसके बाद फिर से धूप में तब तक सुखाएँ जब तक की दाँतों से तोड़ने पर उनमें कट की आवाज ना आये। इसके बाद भण्डारण करे।
  • उपज- यदि आपने उपरोक्त सभी तरीके अपनायें हैं तो आप निश्चित ही 12-15 कुन्तल प्रति हेक्टेयर की दर से बीज प्राप्त कर सकते हैं।