मंगलवार, 24 अक्तूबर 2017

मटर

वैज्ञानिक नाम (Botanical name):-             पाइसम सटाइवम (Pisum sativum)
कुल (Family) :-                                        लेग्यूमिनोसी (Leguminoseae)
गुणसूत्र संख्या (Chromosome number):-  2n = 14

मटर:-
मटर की खेती उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में सर्दी में और पहाड़ी क्षेत्रों में गर्मी में की जाती हैंइसकी खेती मुख्य रूप से हरी फली प्राप्त करने के लिये की जाती हैं।

उत्पत्ति:-
बाग वाली मटर का जन्म स्थान इथियोपिया तथा खेत वाली मटर का जन्म स्थान हिमालय का तराई प्रदेश अथवा सागरीय प्रदेश हैं।

जलवायु:-
मटर ठंडे मौसम की फसल हैं। मटर की फसल के लिये 13-19 डिग्री से० तापमान सर्वोत्तम हैं। बीज अंकुरण 22 डिग्री से० पर अच्छा होता हैं। तापक्रम का फल की संख्या, खट्टापन, रंग और पौष्टिक गुणों पर बहुत असर पड़ता हैं। फूल व छोटी पत्ती पाले से अधिक प्रभावित होती हैं।

भूमि:-
मटर की खेती सभी प्रकार की भूमि में की जा सकती हैं। लेकिन उचित जल निकास वाली भुरभुरी दोमट मिट्टी सर्वोत्तम होती हैं। मृदा का पी०एच० मान 6-7 अच्छा रहता हैं। अम्लीय भूमि इसके लिये अनुपयुक्त होती हैं।

खेत की तैयारी:-
खेती की 3-4 जुताई देशी हल से करते हैं। उसके बाद पाटा चलाकर खेत को समतल  करके मिट्टी को भुरभुरा बना लिया जाता हैं।

बोने का समय:-
मटर की बुवाई सिंचाई करके करनी चाहिये। मटर की बुवाई मैदानी भागों में अक्टूबर से नवम्बर तक की जाती हैं। प्राय: अगेती किस्म की बुवाई सितम्बर के दूसरे पखवाड़े में, मध्यम किस्म की बुवाई अक्टूबर के दूसरे या तीसरे सप्ताह में तथा पछेती किस्म की बुवाई अक्टूबर के अन्तिम सप्ताह से नवम्बर के प्रथम सप्ताह तक की जाती हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में मटर की बुवाई का उपयुक्त समय मार्च से मई होता हैं।
 
बीज दर:-
अगेती किस्म के लिए 100-120 किग्रा० तथा मध्यकालीन या पछेती फसल के लिए 80-90 किग्रा० प्रति हेक्टेयर की दर से बीज की जरूरत होती हैं।

बुवाई का तरीका:-
बीज को छिटकवाँ या पंक्ति दोनों विधि से बोया जाता हैं। छिटकवाँ विधि से बोने पर बीज अधिक लगता हैं। पंक्तियों में बुवाई के लिए पंक्ति से पंक्ति 30-60 सेमी० तथा पौधे से पौधे 5-10 सेमी० की दूरी  रखी जाती हैं। बीज को 2-5 सेमी० की गहराई तक बोया जा सकता हैं।
 
बीज उपचार:-
बीज को राइजोबियम कल्चर से उपचारित करके बोना चाहिये। इससे पौधे की जड़ों में अधिक जीवाणु ग्रंथिकायें बनती हैं। 3 से 5 ग्राम राइजोबियम कल्चर से प्रति एक किलोग्राम बीज को उपचारित किया जा सकता हैं।

प्रजातियाँ:-
बागवानी मटर को दो भागों में बांटा गया हैं-
  • चिकने बीज वाली मटर (Smooth seeded)
  • खुरदरे बीज वाली (Wrinkled seeded)
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली द्वारा प्रस्तावित जातियाँ निम्नलिखित हैं-
अगेती जातियाँ:-
  • असौजी तथा मेटियोर- चिकना दाना, हरी फली, 60-65 दिन में तैयार
  • अर्ली बदगर- दाना खुरदुरा, बौनी किस्म, हरी फली, 60-65 दिन में तैयार
  • आर्केल- दाना खुरदुरा, पौधे छोटे, फली अच्छी तरह भरी हुई 8-10 सेमी० लम्बी 7-8 दाने वाली, 65-70 दिन में तैयार, औसत उपज 40-60 कुंतल प्रति हेक्टेयर
  • अन्य जातियाँ- हरा बोना, जवाहर मटर-3, जवाहर मटर-4, एल्डरमैन, अर्ली जाइन्ट लिटिल मरवेल, पी०एम०-1, पी०एम०-2, वी०पी०-7802 आदि इस वर्ग की प्रमुख जातियाँ हैं।
मध्यम जातियाँ (Mid season varieties):-
  • बोनविले- दान खुरदुरा, 85 दिन में तैयार, फली लम्बी व गहरी हरी तथा दाना भरा हुआ, दाने मोटे व मीठे, उपज 100 कुंतल प्रति हेक्टेयर
  • अन्य जातियाँ- जवाहर मटर-1, जवाहर मटर-2, न्यूलाइन परफेक्सन, लिंकन, वी०एल०-2, यू०डी०-2, पी०-87, जवाहर पी०-54, जवाहर पी०-83, आजाद मटर आदि इस वर्ग की प्रमुख जातियाँ हैं।
पछेती जातियाँ (Late varieties):-
  • एन०पी०-29- दाना खुरदुरा, 100 दिन में तैयार
  • अन्य जातियाँ- सिल्विया, मल्टीफ्रीजर आदि इस वर्ग की प्रमुख जातियाँ हैं।
अन्य जातियाँ:-
  • सुपीरियर, अर्लीपरफेक्सन प्राइड ऐस, न्यू इरा आदि कैनिंन के लिए उपयुक्त हैं।
  • सिल्विया, मेल्टिंग सुगर, ड्वार्फ ग्रे सुगर आदि छिलके सहित खाने वाली जाति में प्रमुख हैं।
  • अर्ली जाइंट तथा एल्डरमैन आदि पर्वतीय क्षेत्र के लिए प्रमुख हैं।
  • न्यूलाइन परफेक्सन व ब्रिदगर- राष्ट्रीय बीज निगम द्वारा प्रस्तावित जातियाँ हैं।
  • पी०-8, पी०-35, पी०-23, मैरोफेट तथा टेलीफोन- पंजाब द्वारा प्रस्तावित जातियाँ हैं।
  • टा०-17 (चिकने दाने वाली), टा०-31, टा०-56 व यू०पी०-119 (खुरदुरे दाने वाली)- उत्तर प्रदेश द्वारा प्रस्तावित जातियाँ हैं।
  • चन्द्र शेखर कृषि एवंप्रोधोगिकी विश्वविधालय, कानपुर द्वारा मटर की नयी बौनी प्रजाति स्वाति (के०एफ०पी०डी०-24) विकसित की गई हैं। विशेषता- इसी जगह द्वारा विकसित मटर की बौनी प्रजाति अपर्णा से 7 दिन अगेती होने के साथ ही 20-25 प्रतिशत अधिक उपज देती हैं। दाना बड़ा, दाना के भार अधिक (250 ग्राम प्रति 1000),  पौधा बौना (40-50 सेमी०), उपज 35-40 कुंतल प्रति हेक्टेयर, सिंचित व असिंचित दोनों दशाओं के लिए उपयुक्त हैं।
खाद एवं उर्वरक:-
गोबर की सदी हुई खाद 200 कुंतल प्रति हेक्टेयर की दर से डालकर खेत को तैयार किया जाता हैं। नाइट्रोजन 20-50 किग्रा०, फास्फोरस 50 किग्रा० और पोटाश 30-80 किग्रा० प्रति हेकटहर की दर अन्तिम जुताई से पूर्व दी जाती हैं। नाइट्रोजन की आधी मात्रा, फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा अन्तिम जुताई से पूर्व दी जाती हैं। शेष नाइट्रोजन की मात्रा बुवाई के 20-25 दिन बाद टॉपड्रेसिंग द्वारा दी जाती हैं।

सिंचाई:-
मटर कम पानी चाहने वाली फसल हैं। मटर में पहली सिंचाई फूल आने के समय व दूसरी सिंचाई पहली सिंचाई के 25-30 दिन बाद की जाती हैं। पाला पड़ने की सम्भावना होने पर खेती की हल्की सिंचाई करनी चाहिये।

खरपतवार नियंत्रण:-
मटर की फसल में 1-2 निराई-गुड़ाई खुर्पी या कुदाल द्वारा की जाती हैं। इसके अलावा बुवाई के पूर्व या बुवाई के दो दिन बाद तक वासालीन 2-3 लीटर या पेन्डीमैथीलिन 3.3 लीटर मात्रा 1000 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करे।
 
कीट:-
माहू एवं थ्रिप्स:- ये कीट पौधे का रस चूसते हैं।
रोकथाम:- इमिडाक्लोरपीड़ 0.5 मिली०, रोगोर 30 प्रतिशत ई०सी० 1 लीटर मात्रा या मेटासिस्टाक 25 प्रतिशत ई०सी० 0.25प्रतिशत प्रति एक लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करे।
लीफ माइनर:- इस कीट की सूँडी पत्ती में पतली-पतली सुरंग बनाती हैं। तथा का पत्ती का रस चूसते हैं।
रोकथाम:- रोगोर 30 प्रतिशत ई०सी० 1 लीटर या मेटासिस्टाक 25 प्रतिशत ई०सी० 0.25प्रतिशत को 600 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से 600 लीटर पानी में घोलकर 15 दिन के अन्तराल पर आवश्यकतानुसार छिड़काव करना चाहिये।
फली छेदक कीट:- इस कीट की सूँडी फल व दाने को खाकर नुकसान करती हैं।
रोकथाम:- इन्सल्फान 35 प्रतिशत  या मैलाथियान 50 प्रतिशत ई०सी० 1.25 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से 600 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करे।

रोग:-
पाउडरी मिल्डयू:- पत्तियों, फलियों एवं तनों पर सफ़ेद पाउडर सा दिखाई देता हैं।
रोकथाम:- गन्धक 25-30 किग्रा० या कैराथेन 0.06 प्रतिशत को पानी में घोलकर 7 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करे।
उकठा:- इस रोग से पूरा पौधा मुरझा जाता है, तना सिकुड़ जाता हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिए फसल चक्र अपनाये तथा उपचारित बीज की बुवाई करे। बेवस्टीन या थीरम 3 ग्राम प्रति एक किग्रा० बीज की दर से उपचार करना चाहिये।
रस्ट (रतुआ):- सर्वप्रथम पौधे की पत्ती, तना, पर्णवृन्त तथा फली पर भूरे धब्बे पड़ते हैं। पत्ती पीली पड़कर गिरने लगती हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिए क्षतिग्रस्त पौधे को
नष्ट कर देना चाहिये। उचित फसल चक्र अपनाये तथा बीज को उपचारित करके ही बुवाई करे। पौधो पर शुरुआत से ही बोर्डों मिश्रण (5:5:50) अथवा जिनेब 3 किग्रा० प्रति हेक्टेयर की दर से पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिये।
जड़ गलन (Root rot):- उपचारित बीज का प्रयोग करे।
रोकथाम:- बीज को एरासन 2 ग्राम, थीरम या कैप्टान 3 ग्राम तथा बेवस्टीन 1 ग्राम प्रति एक किलोग्राम की दर से उपचारित करके बुवाई करनी चाहिये।

फलों की तुड़ाई:-
सब्जी की लिये हरी मटर की तुड़ाई उचित अवस्था पर करनी चाहिये। हरी फली प्राप्त करने के लिये लगभग 3 तुड़ाइयाँ की जाती हैं। प्राय: अगेती क़िस्म 50-60 दिन में मध्यकालीन एवं पछेती क़िस्म 90-100 दिन में तैयार हो जाती हैं।
  • मटर संसाधन उधोग में मटर की परिपक्वता की जांच 'हेन्ड्रोमीटर' द्वारा की जाती हैं।
उपज:-
अगेती किस्मों से 30-40 कुंतल तथा मध्यकालीन व पछेती क़िस्मों से 70-80 कुंतल प्रति हेक्टेयर की दर से हरी फली प्राप्त होती हैं।

भन्डारण:-
साधारण अवस्था में ताजी बिना छिली हुई फली का 2-3 दिन तक भन्डारण किया जा सकता हैं। परन्तु 32 डिग्री फ़रेन्हाइट तापक्रम पर तथा 85-90 प्रतिशत आपेक्षिक आदरता पर प्रशीतक ग्रहों में दो सप्ताह तक भन्डारण किया जा सकता हैं।

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