बुधवार, 8 नवंबर 2017

पपीता

पपीता (Papaya)
 
वैज्ञानिक नाम (Botanical name):-              (Carica Papaya L.)
कुल (Family) :-                                        (Caricaceae)
गुणसूत्र संख्या (Chromosome number):-   2n =  18,36 

पपीता:-
पपीता संसार के सभी उष्ण तथा उपोष्ण देशों में उगाया जाता हैं। विशेषकर अमेरिका, दक्षिणी अमेरिका, स्पेन, दक्षिणी अफ्रीका, केन्या, उगांडा, कांगो, श्रीलंका, मलायाद्वीप, फिलिपिन्स, सिंगापुर, आस्ट्रेलिया और भारत में इसकी बागवानी बड़े पैमाने पर की जाती हैं। भारत में इसकी सफलतापूर्वक बागवानी उत्तर प्रदेश, पश्चिमी बंगाल, असम,बिहार, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, उड़ीसा इत्यादि प्रदेशों में की जाती हैं। उत्तर प्रदेश में कानपूर, देहरादून, वाराणसी, सुल्तानपुर और मेरठ जिलों में प्रमुख रूप से इसकी बागवानी होती हैं।

उत्पत्ति:-
पपीते का जन्म स्थान मैक्सिको की खाड़ी और वेस्टइंडीज का समुद्री किनारा और सम्भवत: ब्राजील माना जाता हैं। पपीते की अन्य जातियों का मूल स्थान अमेरिका का उष्ण कटिबन्धीय भाग माना जाता हैं। अमेरिका महाद्वीप की खोज के पहले पपीते के विषय में एशिया के लोगों को कोई जानकारी नहीं थी। वर्तमान भारतीय पपीते का नाम अमेरिकी शब्द 'पपाया' से निकाला गया जो कैरिव शब्द 'अबाबई' का अपभ्रंश हैं। भारत में 16वीं शताब्दी के मध्य में पुर्तगाल वासियों द्वारा लाया गया। इसका वर्गीज नाम "थिम्बावायी" हैं जिसका अर्थ समुद्री जहाजों द्वारा लाया गया फल हैं। पपीते का बीज सन् 1626 में भारत से नेपलीन (इटली) को भेजा गया था।

जलवायु:-
पपीता ग्राम जलवायु में ठीक तरह से फलता हैं लेकिन जहाँ पर गर्मी व सर्दी दोनों अधिक पड़ती हैं और जहाँ पाला न पड़ता हो ऐसे क्षेत्र पपीते के लिये उपयुक्त हैं। अधिक वर्षा व तेज हवा वाले क्षेत्र पपीते के लिए उपयुक्त नहीं हैं। पपीते की फसल के लिये 12-26 डिग्री से० तपमान उचित होता हैं। बीजों के अंकुरण के लिये 35 डिग्री० से० तापमान सर्वोत्तम होता हैं। ठण्ड में रात्रि का तापमान 12 डिग्री से० से कम होने पर पौधों की वृद्धि तथा फलोत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ता हैं।

भूमि:-
पपीते की खेती के लिये अच्छी जल निकास वाली बलुई दोमट मिट्टी सबसे उपयुक्त हैं जिसका पी० एच० मान 6.5 - 7 हो उत्तम रहती हैं।

प्रजातियाँ:-
  • पश्चिमी भाग के लिये:- वाशिंगटन, कुर्ग हनीडयू, गुजरती।
  • दक्षिणी भाग के लिये:- कुर्ग हनीड्यू, वाशिंगटन, लम्बी, गोल, कोयम्बटूर-1, कोयम्बटूर-2, कोयम्बटूर-3, कोयम्बटूर-4, कोयम्बटूर-5, कोयम्बटूर-6।
  • पूर्वी भाग के लिये:- वाशिंगटन, साऊथ अफ्रीकन, सीलोन, गोल, रांची, कुर्ग हनीडयू।
  • उत्तरी भाग के लिये:- सहारनपुर सलैक्शन, कुर्ग हनीडयू, वाशिंगटन।
  • अन्य जातियाँ:- गुजराती, हनीडयू, सिंगापुर पिंक, पैरादिनिया, पूसा ड्वार्फ, पूसा जाइन्ट, पूसा डेलीशस, पूसा मैजेस्टी, बरवानी रेड, रांची द्वार्ड, बेंगलोर, पंजाब स्वीट, बैंकाक, इबादान, मेडम सिल सीला आदि मुख्य किस्में देश के विभिन्न भागों में उगायी जाती हैं।
  • कुछ प्रमुख किस्में जिनमें नर पौधे नहीं निकलते हैं जैसे- पूसा डेलिसियस, पूसा मेजेस्टी आदि हैं।
बीज की मात्रा:-
पपीते को एक हेक्टेयर क्षेत्र के लिए आवश्यक पौधों की संख्या तैयार करने के लिए परम्परागत किस्मों का 500 ग्राम बीज एवं उन्नत किस्मों का 300 ग्राम बीज की मात्रा की आवश्यकता होती हैं।

उपचारित करना:-
बीज को बोने से पूर्व कवकनाशी से उपचारित कर लेना चाहिये। सेरेसन या थीरम 3 ग्राम दवा से प्रति एक किलोग्राम बीज को उपचारित करके तैयार की गयी पौधशाला में बोना चाहिये।

पौध तैयार करना (प्रवर्धन Propogation):-
पपीते का प्रवर्धन बिज द्वारा किया जाता हैं। पपीते की पौध क्यारियों एवं पॉलीथीन की थैलियों में तैयार की जा सकती हैं। क्यारीयों में पौध तैयार करने के लिये क्यारी की लम्बाई 3 मीटर, चौड़ाई 1 मीटर एवं ऊँचाई 20 सेमी० होनी चाहिये। प्लास्टिक की थैलियों में पौध तैयार करने के लिये 200 गेज मोटी 20 X 15 सेमी आकार की थैलियों में वर्मीकम्पोस्ट, रेट, गोबर तथा मिट्टी 1:1:1:1 अनुपात का मिश्रण भरकर प्रत्येक थैली में 1 या 2 बीज बोयें। बीज पर एक सफ़ेद चिपचिपी झिल्ली होती है जिसे राख से मलकर अच्छी प्रकार साफ कर लेना चाहिये। बोने के लगभग 2 माह बाद रोपाई के लिये पौधे तैयार हो जाते हैं।

रोपण का समय:-
गड्ढे तैयार करने का उचित समय मई माह का होता हैं जिसे 15-20 दिन के लिए धूप में खुला छोड़ दिया जाता हैं जिससे भूमि के अन्दर के हानिकारक कीड़े-मकोड़े नष्ट हो जाते हैं। पौधे सामान्यत: जून-जुलाई में रोपे जाते हैं परन्तु इस समय रोपाई करने से पौधों का आकार बड़ा हो जाता हैं। उनमें वाइरस तथा कवक जनित रोग लगने की सम्भावना अधिक होती हैं। अंत: जिन इलाकों में पाला न पड़ता हो सितम्बर-अक्तूबर में पौधे लगा देने चाहिये। फरवरी-मार्च में भी पौधों की रोपाई की जा सकती हैं।

बाग की स्थापना (पौधा रोपण):-
पौध रोपण करने से पूर्व खेत की तैयारी अच्छे से करनी चाहिये इसके लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से और 2-3 जुताई कल्टीवेटर या हैरो से करनी चाहिये। पूर्ण रूप से तैयार खेती में 50 सेमी० लम्बाई, 50 सेमी० चौड़ाई व 50 सेमी० गहराई के आकार के गड्ढे 2 X 2 मीटर की दूरी पर खोद लिए जाते हैं। और 15-20 दिन तक खुला छोड़ दिया जाता हैं। उसके बाद मिट्टी में 10 किग्रा० सड़ी गोबर की खाद, 1 किग्रा० बोनमील, 1 किग्रा० नीम की खली अथवा 500 ग्राम सुपर फॉस्फेट मिलाकर 15-20 सेमी० की ऊँचाई तक गड्ढे को भर देना चाहिये। और हल्की सिंचाई कर देनी चाहिये। और जब खाद अच्छे से सड़ जाये तो पौधों की रोपाई कर देनी चाहिये।

खाद एवं उर्वरक:-
पपीते के पौधे में 200 ग्राम नाइट्रोजन, 100 ग्राम फॉस्फोरस तथा 200-250 ग्राम पोटाश की मात्रा दो बराबर भागों में दी जाती हैं। आधी मात्रा फरवरी-मार्च तथा आधी मात्रा सितम्बर-अक्तूबर में दी जाती हैं। दूसरे वर्ष भी इसी अनुपात में उर्वरकों का प्रयोग किया जाना चाहिये।

सिंचाई:-
पपीता सूखा सहन करने वाली फसल हैं, इसका तात्पर्य यह नहीं कि पपीते को पानी नहीं चाहिये, जिस समय पपीता फूलना-फलना प्रारम्भ कर देता हैं, उस समय पपीते को अधिक मात्रा में पानी की आवश्यकता होती हैं पौधे में फल बढ़ते समय सिंचाई की मात्रा बढ़ा देनी चाहिये। रासायनिक खाद देने के बाद सिंचाई अवश्य करनी चाहिये। गर्मियों में 15 दिन तथा सर्दियों में 1 माह के अन्तर से सिंचाई की जाती हैं। पानी को तने के सीधे सम्पर्क में नहीं आना चाहिये इसके लिए तने के पास चारों तरफ मिट्टी से ऊँचा कर देना चाहिये।

खरपतवार:-
पपीते के बगीचे में खरपतवार बड़ी तेजी से फैलते हैं तथा पपीते को दिये गये अधिकांश तत्त्व को समाप्त कर देते हैं, इसका नतीजा यह होता हैं कि पपीते के बाग बहुत ही कम मात्रा में फल दे पाते हैं। इसलिये पपीते के चारों तरफ की घास की अच्छी तरह सफाई करते रहना चाहिये। जिससे खरपतवार पौधे की खुराक न खिंच सकें।

अन्त: सस्यन:-
पपीते की रोपाई करने के 6 महीने तक विभिन्न प्रकार की सब्जियाँ को आसानी से अन्त: सस्यन के रूप में उगाया जा सकता हैं। दलहनी फसलों जैसे मटर, मैथी, चना, फ्रासबीन, लोबिया व सोयाबीन आदि बाग़ में उगाये जा सकते हैं। लेकिन मिर्च, टमाटर, भिन्डी आदि फसलों को पपीते के बीच में बिल्कुल नहीं उगाना चाहिये

फूल आना:-
पपीते के पौधे की रोपाई करने के 9-12 महीने बाद फल पककर तैयार हो जाते हैं। फल आने के 5-6 माह बाद फल पकते हैं।

फलों की तुड़ाई:-
पपीते के फल के शीर्ष भाग में जब पीलापन शुरू हो जाये तब डंठल सहित तुड़ाई कर लेनी चाहिये

उपज:-
पपीते की उपज किस्म तथा पौधे के रखरखाव पर निर्भर करती हैं। 30-35 किग्रा० फल प्रति एक पौधे से प्राप्त किये जा सकते हैं।

कीट:-
माहू:- यह कीट पौधे से रास चूसते हैं और पौधे को हानि पहुँचाते हैं तथा विषाणु रोग फ़ैलाने में मदद करते हैं।
रोकथाम:- इस कीट की रोकथाम के लिए डाईमेथोएट 30 प्रतिशत ई० सी० 1.5 मिली० या फास्फोमोडिडान 0.5 मिली० ग्राम प्रति एक लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करना चाहिये।
 
 
रोग:-
पदगलन:- यह बीमारी पिथियम फ्यूजेरियम नामक फफूँदी से होती हैं। रोगग्रस्त पौधों की बढ़वार रुक जाती हैं, पत्ती पीली पड़ जाती हैं तथा पौधा सड़ कर गिर जाता हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिए ग्रसित भाग को खुरचकर उस पर कॉपर ओक्सीक्लोराइड 3 ग्राम प्रति एक लीटर पानी में घोल कर तने के चारों तरफ की मिट्टी को तर कर देना चाहिये।
एंथ्रेकनोज:- इस बीमारी का प्रकोप पत्तियों व फलों पर होता हैं। पत्ती व फल की बढ़वार रुक जाती हैं तथा फल के ऊपर भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिए ब्लाईटाक्स 3 ग्राम या डाईथेन एम-45, 2 ग्राम प्रति एक लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिये।
तना सड़न:- यह कवक जनित रोग हैं। इसके प्रकोप से भूमि के पास तने की छाल सड़कर पनीली हो जाती हैं। पूरा पौधा सूख जाता हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिए बाग़ में जल निकास की उचित व्यवस्था होनी चाहिये। 5:5:50 का बोर्डो मिश्रण या 0.3 प्रतिशत सान्द्रता का ब्लाईटोक्स या कैप्टान का घोल बनाकर पौधे के चारों और की भूमि को तर कर देना। जिस स्थान पर सडन रोग लगी हो वहाँ 5:5:5 बोर्डो पेस्ट बनाकर लेप कर देना चाहिये।
मोजैक एवं पत्तियों का सिकुड़ना:- ये दोनों रोग विषाणु जनित हैं। रोगी पत्ती सिकुड़कर छोटी, झुर्रीदार तथा कुरूप हो जाती हैं। पत्ती की सतह खुरदुरी तथा उन पर फफोले पड़ जाते हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिए पपीते के बाग़ में कद्दू कुल के पौधों की खेती नहीं करनी चाहिये तथा रोगी पौधों को नष्ट कर देना चाहिये। इसका संक्रमण सफ़ेद मक्खी से होता हैं। मैलाथियान 0.1 प्रतिशत का घोल बनाकर 10-15 दिन के अन्तराल पर छिडकाव करना चाहिये।
जड़ सड़ने की बीमारी:- अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में फल छोटे होते हैं, और ऐसे पौधों की जड़ों को खोदकर देखा जाये तो जड़ों के अधिकांश भाग सड़े हुए होते हैं। यह पौधे की जड़ों के पास अधिक पानी भर जाने के कारण होता हैं जिससे पौधे फल नहीं दे पाते हैं। पपीते के लिए भूमि ऊँची होने के साथ-साथ ढलवां हो तो अच्छी रहती हैं।
रोकथाम:- जिन स्थानों पर जड़े सड़ने की सम्भावना हो वहाँ पर गड्ढों में कम्पोस्ट के साथ-साथ 100 ग्राम तूतिया तथा 1 किग्रा० चूना मिला देना चाहिये।

 
लिंग समस्या (Sex problem)
 

     फूलों के स्परूप के अनुसार पपीते को साधारणत: तीन वर्गों में विभाजित किया जाता हैं। नर, मादा, उभयलिंगी इसके फूलों का वर्णन निम्न प्रकार हैं-
  • नर फूल:- नर पौधे के फल लटके हुये पुष्पावलीवृन्त (Peduncle) पर पैदा होते हैं। ये मादा फूलों से बहुत पतले होते हैं। ये छोटी-छोटी नलिकाओं की तरह होते हैं तथा इनमें पुंकेसर पूर्ण रूप से विकसित रहता हैं। ये पाँच बड़े व् पाँच छोटे होते हैं। ये फूल कभी-कभी पत्तियों के कक्ष में अकेले या गुच्छों में छोटे डंठलों पर पैदा होते हैं। ये पौधे फल नहीं देते हैं।
  • मादा फूल:- ये फूल पत्तियों के कक्ष में छोटे डंठलों पर पैदा होते हैं। फूलों का आकार काफी बड़ा होता हैं। जो निचले सिरे पर घुंडीनुमा होता हैं। ये फल अकेले या तीन-तीन के गुच्छों में पैदा होते हैं।
  • उभयलिंगी फूल:- ये फूल दोनों के आकार में होते हैं। जिनमें नर और मादा दोनों अंग होते हैं। फूलों में पाँच पुंकेसर तथा अंडाशय पेन्टा होता हैं, इसलिये इनसे उत्पन्न फूलों में पाँच नालियाँ सी पायी जाती हैं। फल लम्बे आकार के होते हैं। फूल गुच्छे के रूप में पैदा होते हैं।
         प्रत्येक गड्ढे में दो या तीन पौधे लगाने चाहियें और इनकी दूरी 30 सेमी० होनी चाहिये। फूल आने पर पहचान कर पौधे उखाड़ देने चाहिये।

परागण क्रिया:-
पपीते की अच्छी फलन तथा बीज उत्पादन के लिए परागण क्रिया का होना अत्यन्त आवश्यक हैं। पपीते की खेती में नर पौधे रहने के कारण इसकी फलन अच्छी प्रकार से नहीं हो पाती हैं। किसान इसमें फलन न लगने के कारण बेकार समझकर काट देते हैं। अच्छी फलन के लिए पराग सेचन क्रिया आवश्यक हैं तथा अच्छे पराग सेचन के लिए पराग पैदा करने वाले नर पौधों का उचित संख्या में होना आवश्यक हैं। पपीते के बाग़ में 8-10 प्रतिशत नर पौधे होते हैं, जिन स्थानों पर परागण की संख्या हो वहाँ लाभदायक होता हैं।

 
पपीते के पपेन का उत्पादन
 
 
     पपीते की बागवानी फलों के अतिरिक्त पपेन के लिए भी की जाती हैं। पपेन कच्चे पपीते के फल का सुखाया हुआ दूध हैं। इसके विभिन्न उपयोग हैं। पपीते के औषधिक गुण इसी पपेन के कारण होते हैं क्योंकि यह पौधे के प्राय: प्रत्येक भाग में पाया जाता हैं, लेकिन सबसे अधिक कच्चे फलों के दूध में होता हैं। पपेन का आर्थिक उपयोग खाद्य पदार्थों जैसे मांस को गलाने, ट्यूना मछली के कलेजे से तेल निकलने, स्नोक्रीम व दन्तमंजन प्रसाधनों को बनाने, रेशम और रेयान से गोंद निकलने, उनको सिकोड़ने, चमड़े के संसाधन और शराब के कारखानों में काफी उपयोग होता हैं। यह बहुत से रोग जैसे उतकक्षय, अजीर्ण, पाचन सम्बन्धी रोगों से गोल कृमि संक्रमण, चमडो के धब्बे मिटाने , गुर्दे की बीमारियों के उपचार में प्रयुक्त किया जाता हैं।
 
जातियाँ:-
पपेन उत्पादन, पपीते के फल की पैदावर से सीधा सम्बन्ध हैं। कुछ उन्नत किस्में अधिक पपेन पैदा करती हैं जैसे- कोयम्बतूर-2, सिलोन, पूसा ड्वार्फ, पूसा डेलिशियस, पूसा मेजेस्टी आदि हैं।
 
पपेन उत्पादन की विधि:-
पपेन निकालने की विधि काफी सरल हैं, पपेन के लिए पपीते की बागवानी वैसे की की जाती हैं, जैसे फल लेने के लिए की जाती हैं। पपेन को हरे कच्चे फल से निकाला जाता हैं। इसके लिये आधे से तीन चौथाई विकसित फलों (फल लगने के 70-100 दिन बाद) का चयन करना चाहिये। दूध निकालने के लिए फल पर 0.3 सेमी० गहरे एक बार में चार चीरे सुबह 10 बजे से पहले लगते हैं। चीरे पूरे फल पर लगभग समान दूरी पर लगाने चाहिये। चीरे किसी स्टेनलेस स्टील के ब्लेड या तेज चाकू से लगाते हैं। चीरा लगते ही फल की सतह पर सफेद दूध निकलने लगता हैं जिसे धातु के बर्तन में इकट्ठा न करके किसी उचित चीनी, काँच, एल्युमिनियम या सुपाड़ी के स्पेथ में रखना चाहिये। चीरे के कुछ समय बाद तक दूध बहता रहता हैं और बाद में फल की सतह पर कुछ जम जाता हैं उसे भी खुरचकर इकट्ठा कर लेना चाहिये। चीरे लगाने की क्रिया 2-3 बार 3-4 दिन के अन्तर पर करनी चाहिये। इस तरह प्रत्येक फल में 12-16 दिन के अन्तर पर 3-4 बार चीरे लगाये जा सकते हैं, इस बीच में लगभग फल का सम्पूर्ण दूध निकल आता हैं।
     अच्छी प्रकार से पपेन बनाने के लिए दूध इकट्ठा करने के बाद सुखा लेना चाहिये। जल्दी सुखाने के लिए दूध का पानी किसी उचित चीज से दबाव डालकर निकाल दिया जाता हैं। यह सीधे धूप में या बनावटी बिजली के हीटर में 50-55 डिग्री से० तापमान पर सुखाया जाता हैं। तरल दूध में सुखाने से पहले 0.05 प्रतिशत पोटैशियम मेटा-बाई सल्फाइट मिलाने से इसका भण्डारण जीवन कुछ हद तक बढ़ जाता हैं। सुखाने की क्रिया तब तक जारी रखते हैं, जब तक पदार्थ शुष्क के रूप में न आने लगे।अधिक ताप या अधिक तेजी सुखाने पर पपेन का गुण खराब हो जाता हैं। सूखे हुए दूध को पीसकर बारीक़ चूर्ण में परिवर्तित कर लेते हैं और 10 मेश की छलनी से छान लेते हैं, इस तरह तैयार किये हुए चूर्ण को हवा बन्द बोतलों या पालीथीन की थैलियों में भरकर सील कर देते हैं। पपेन बनाने के लिए फलों से दूध इकट्ठा करने से उनके पकने एवं स्वाद पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता हैं, चीरा लगाने से फलों का बाहरी रूप बिगड़ जाता हैं। जिससे बाजार में कम दामों पर बिकता हैं। इस तरह के फलों को डिब्बा बन्दी या जैम, जैली, कैंडी, टॉफी इत्यादि लाभप्रद वस्तुओं के रूप में परिरक्षित किया जा सकता हैं।
 
शस्य क्रियाएँ:-
उचित शस्य क्रियाओं का पपेन उत्पादन पर अच्छा प्रभाव पड़ता हैं, इसलिये पपेन उत्पादन के लिए उचित शस्य प्रणाली अपनानी चाहिये। पपीता ऐसे समय लगाना चाहिये ताकि, बरसात शुरू होते हिं फलना-फूलना शरू कर दे तथा लगातार 4-5 महीने तक फलता रहे, इसके लिए अगस्त माह में बिज नर्सरी में बो दना चाहिये। पपीते को जिस खेत में लगाना हैं उस खेत में 60 घन सेमी० का गहरा गड्ढा गर्मी के मौसम में खोदकर 15-20 दिनों तक खुला छोड़ देना चाहिये। इसके बाद प्रत्येक गड्ढे में 20 किग्रा० कम्पोस्ट, 1 किग्रा० खली, 1 किग्रा० बोनमील मिलाकर पौधा लगाने से कम से कम दो महीना पहले बहार देना चाहिये। कुछ किस्मों में नर पौधे नहीं निकलते हैं, जैसे पूसा डेलिसियस और पूसा मेजेस्टी इनके प्रत्येक गड्ढे पर एक-एक पौधा लगाना चाहिये। जिन किस्मों में नर पौधे निकलते हैं, जैसे पूसा ड्वार्फ, होमस्टीड तथा को-2 इनके 3-3 पौधे एक-एक गड्ढे में लगाने चाहिये। मानसून प्रारम्भ होने पर जैसे ही लिंग भेद स्पष्ट हो, प्रत्येक गड्ढे से अतिरिक्त नर पौधे को हटा देना चाहिये। इसके बाद प्रत्येक पौधे मैं 200 ग्राम नाइट्रोजन, 200 ग्राम फॉस्फोरस तथा 250 ग्राम पोटाश दो भागों में बाँटकर देना चाहिये। इसका पहला भाग मानसून प्रारम्भ होते ही देना चाहिये, तथा दूसरा भाग मानसून के अन्त में देना चाहिये। नाइट्रोजन का दूसरा भाग सीधे जमीन में न देकर यूरिया का घोल बनाकर पौधे पर छिड़कने से पपेन का उत्पादन बढ़ता हैं। यह छिडकाव 15 दिनों के अन्तर पर करना चाहिये। पपेन उत्पादन बढ़ाने के लिए फव्वारे विधि से सिंचाई करनी चाहिये। बाग में फूल खिलते समय वृद्धि नियामक जैसे 2,4-डी० (10 पी० पी० एम०), 2, 5-टी (25 पी० पी० एम०), एन० ए० ए० (50 पी० पी० एम०), जिब्रेलिक एसिड (10 पी० पी० एम०) छिड़कने से पपेन का उत्पादन बढ़ता हैं। इन वृद्धि नियामकों को यूरिया के घोल के साथ छिड़कने से समय एवं खर्च की बचत होती हैं।
 
पपेन की पैदावर:-
पपेन उत्पादन, जाति का शस्य प्रणाली के अनुसार घटता-बढ़ता हैं। एक फल से 3-10 ग्राम सूखा पपेन प्राप्त होता हैं, पपेन की पैदावर प्रति पौधा 0.225 किग्रा० से 0.475 तक पाई गई हैं। इस प्रकार एक पेड़ जिसमे लगभग 40-50 फल लगे हों तो एक हेक्टेयर में पेड़ों की संख्या 2 हजार हो, 5 कुन्तल पपेन का उत्पादन हो सकता हैं। हालाँकि पपेन की कीमत में काफी उतार-चढाव होता रहता हैं। यह 50 रूपये से लेकर 100 रूपये प्रति एक किलोग्राम तक बिकता हैं। लेकिन यदि रूपये 70 प्रति एक किलोग्राम मान ली जाये तो पपेन से ही रूपये 35,000 हजार प्रति एक हेक्टेयर की आमदनी की जा सकती हैं। भारत में महाराष्ट्र और गुजरात में पपीते की खेती अधिकतर पपेन उत्पन्न करने की लिए ही की जाती हैं।
 
 
 


अमरुद

अमरुद (Guava)
 
वैज्ञानिक नाम (Botanical name):-              (Psidium guajava L.)
कुल (Family) :-                                        (Myrtaceae)
गुणसूत्र संख्या (Chromosome number):-   2n =  22


अमरुद:-
अमरुद भारत का लोकप्रिय फल हैं। क्षेत्रफल और उत्पादन की द्रष्टि से देश में उगाये जाने वाले फलों में इसका चौथा स्थान हैं। इसमें पोषक तत्त्व प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। पोषक तत्वों की अधिकता के कारण इसको गरीबों का "सेब" भी कहते हैं। अमरुद की व्यावसायिक बागवानी विशेष रूप से उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, बंगाल और गुजरात में होती हैं। उत्तर प्रदेश का इलाहाबादी क्षेत्र अच्छी गुणयुक्त सफ़ेद किस्म पैदा करने के लिए विश्वविख्यात हैं। प्रदेश के सम्पूर्ण क्षेत्रफल का 18 प्रतिशत से भी अधिक भाग इलाहबाद क्षेत्र में हैं।

उत्पत्ति:-
अमरुद का मूल स्थान उष्णकटिबंधीय अमेरिका हैं। विशेषतया मैक्सिको से पेरू क्षेत्र को इसका मूल स्थान माना जाता हैं। सबसे पहले यूरोप के अन्वेषकों ने इसे मैक्सिको और पेरू के मध्य क्षेत्रों में उगते पाया। यहाँ से यह संसार के अन्य भागों में फैला। भारत में अमरुद 16वीं शताब्दी से स्पेन वासियों द्वारा लाया गया हैं। बहुत से लोग अमरुद को भारतीय फल समझते हैं। भारत में यह उत्तर से लेकर दक्षिण भारत तक फैला हैं।

जलवायु:-
अमरुद 30 डिग्री से० पर तापमान पर अच्छी वृद्धि करता हैं तथा इसके लिए 15 डिग्री से० की न्यूनतम तापमान की आवश्यकता होती हैं। जिन इलाकों में जाड़ों में अधिक जाड़ा व गर्मियों में अधिक गर्मी पड़ती हो तो वहाँ इसके फलों का स्वाद अच्छा होता हैं।

भूमि:-

अमरुद को प्रत्येक प्रकार की भूमि में उगाया जा सकता हैं। परन्तु अच्छे उत्पादन के लिए गहरी बलुई दोमट मिट्टी अच्छी रहती हैं जिसका पी० एच० मान 6.5 - 7 हो, इसके लिए उपयुक्त होती हैं। अत: इसकी बागवानी 4.5-9.0 पी० एच० मान वाली भूमियों (क्षारीय भूमि) में भी की जा सकती हैं। परन्तु 7.5 पी० एच० मान के ऊपर वाली भूमि म्लानि (उकठा) रोग के प्रकोप की सम्भावना बढ़ा देती हैं।

प्रजातियाँ:-
अमरुद की मुख्य जातियाँ निम्न प्रकार हैं- चित्तीदार, सेब अमरुद, बीज रहती अमरुद, इलाहाबादी सफेदा, लखनऊ-49, करेला, नासिक, धारवार, धोलका, धारीदार, हरीजा, बेदाना, लाल अमरुद, एपिकलर, बनारसी सुर्ख, बेहटकोकोनट, सुप्रीम माइल्ड फ्लेस्ड, सफेद जय, कोहीर सफेद आदि मुख्य किस्में हैं।

पौध तैयार करना (प्रवर्धन):-
अमरुद के पौधे दो तरह से तैयार किये जाते हैं। जो निम्न प्रकार दिए गये हैं -
  • बीज द्वारा:- हमारे देश में बीज द्वारा पौधे तैयार करने की विधि प्रचलित हैं। परन्तु एक ही फल से प्राप्त बीजों से उगाये गये पेड़ों में भी काफी भिन्नता पायी गयी हैं तथा पौधों के पैतृक गुणों में भी परिवर्तन आ जाता हैं। इसलिये पौधे वानस्पतिक विधि से तैयार करने चाहिये।
  • वानस्पतिक द्वारा:- वानस्पतिक द्वारा पौधे तैयार करने की चार विधियाँ हैं जो निम्न प्रकार हैं-
  1. भेंट कलम (इनर्चिंग):- यह अमरुद के प्रसारण की बहुत सरल तथा पुरानी विधि हैं। इस विधि में एक-डेढ़ वर्ष पुराने बीजू पौधे को मूल वृक्ष के समीप लाया जाता हैं। मूल वृक्ष पर मूल वृन्त के समान मोटी तथा स्वस्थ टहनी का चुनाव करते हैं। चुनी हुई टहनी तथा मूल वृन्त वाले पौधे में 23 सेमी० की ऊँचाई पर 4-5 सेमी० लम्बी थोड़ी लकड़ी सहित छाल उतार लेते है फिर दोनों कटे भागों को मिलाकर पोलीथिन टेप से अच्छी तरह से बाँध दिया जाता हैं। लगभग 2 माह बाद जब दोनों शाखायें परस्पर जुड़ जाये तब मूल वृन्त की टहनी को जोड़ के ठीक नीचे से और बीजू पौधे के ठीक ऊपर से काट दिया जाता हैं। इस प्रकार कलमी पौधा तैयार हो जाता हैं। भेंट कलम जून-जुलाई में बांधी जाती हैं। इसमें 80-85 प्रतिशत सफलता मिलती हैं।
  2. विनियर कलम:- इसमें मूल वृक्ष के रूप में एक महीने की आयु वाले इकहरे तने लिए जाते हैं और कली को विकसित करने के लिए इस तने को पत्ती रहित कर दिया जाता हैं। मूल वृन्त तथा साइन, दोनों शाखाओं को 4-5 सेमी० की लम्बाई तक तिरछा काट दिया जाता हैं और फिर दोनों को जोड़कर अल्कायीन की पट्टी से अच्छी तरह बाँध देना चाहिये। जब अंकुर निकलने लगे तो मूल वृन्त को ऊपर से काट दिया जाता हैं। कलम अप्रैल-जून तक बाँधी जाती हैं। इसमें 80-82 प्रतिशत सफलता मिलती हैं।
  3. स्टूलिंग:- जिन किस्मों का प्रसारण करना होता हैं उन किस्मों के पौधों का चुनाव किया जाता हैं जिनकी आयु डेढ़ से दो वर्ष हो तथा तनों की मोटाई कम से कम 2.5 सेमी० हो, जमीन से 10-12 सेमी० छोड़कर काट दिया जाता हैं। यह कार्य मार्च में किया जाता हैं। कटे भाग के नीचे नये प्ररोह निकलते हैं। लगभग दो महीने पुराने प्ररोह (जिनकी लम्बाई 20-22 सेमी०) के निचले भाग में 2 सेमी० चौड़ा छल्ला के रूप में छिलका उतार कर उस पर 2000 पी० पी० एम०, इन्डोल ब्यूटारिक एसिड को लिनोलिन पेस्ट में मिलाकर लगा दिया जाता हैं। इस छल्ले के 10 सेमी० ऊपर तक मिट्टी चढ़ा दी जाती हैं। पानी द्वारा मिट्टी को नम रखा जाता हैं। इस जगह से लगभग डेढ़ माह बाद जड़े निकलती हैं। इन जड़ों वाले पौधों को अलग करके उचित स्थान पर लगा दिया जाता हैं। इस प्रकार बरसात के अन्त तक बहुत से पौधे तैयार हो जाते हैं। यह सबसे सरल व आधुनिक विधि हैं।
  4. गूटी:- इस विधि से बेदाना किस्मों का प्रसारण किया जाता हैं। इसमें अमरुद की 5-7 माह पुरानी शाखा पर 20 सेमी० पीछे की तरफ लगभग 2.5-3 सेमी० चौड़ी छाल छल्ले के आकार में उतार देते हैं। इस कटे भाग पर 2000 पी० पी० एम०, इन्डोल ब्यूटारिक एसिड को लिनोलिन पेस्ट में मिलाकर लगा दिया जाता हैं। इसके बाद मोस घास से ढ़ककर अल्काथीन से बाँध दिया जाता हैं। लगभग 20 दिन में जड़े निकल आती हैं। गूटी बाँधनें का समय जुलाई-अगस्त हैं।
               जून-जुलाई तथा सिंचित क्षेत्रों में फरवरी-मार्च में पौधों को 6 X 6 मीटर की दूरी पर लगा दिया जाता हैं।

कृन्तन:-
प्रारम्भ में भूमिगत से 45-50 सेमी० ऊँचाई तक निकली हुई शाखाओं को निकाल देना चाहिये। बाद में विशेष काँट-छाँट की जरूरत नहीं होती हैं। परन्तु सूखी, रोगग्रस्त शाखाओं के काटते रहने से नई वृद्धि प्रोत्साहित होती हैं। जिससे उपज पर अच्छा प्रभाव पड़ता हैं।

उर्वरक:-
पहले वर्ष में 50 ग्राम नाइट्रोजन, 30 ग्राम फॉस्फोरस और 50 ग्राम पोटाश प्रति पेड़ के हिसाब से देना चाहिये। आगामी 7 वर्षों तक उर्वरकों की मात्रा को बढ़ाया जायेगा। उर्वरकों को जो मात्रा पहले वर्ष में दी गई हैं, दुसरे वर्ष में उसकी दुगनी व तीसरे वर्ष में तीनगुनी हो जायेगी। इस प्रकार सातवें वर्ष 350 ग्राम नाइट्रोजन, 210 ग्राम फॉस्फोरस और 350 ग्राम पोटाश प्रति पेड़ दिया जाता हैं। यही मात्रा आगामी दो वर्षों तक डी जायेगी।
फॉस्फोरस की सम्पूर्ण मात्रा पेड़ के चारों और फैलाव में 30 सेमी० की गहराई की नालियाँ बनाकर देना चाहिये। नाइट्रोजन व पोटाश पेड़ के चारों और छिटक कर हल्की गुड़ाई कर देनी चाहिये। फॉस्फोरस और पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा तथा नाइट्रोजन की आधी मात्रा जुलाई में तथा नाइट्रोजन की शेष मात्रा सितम्बर-अक्टूबर में देनी चाहिये।

सिंचाई:-
अमरुद की बागवानी में आवश्यकतानुसार सिंचाई करनी चाहिये। गर्मियों में नये रोपित पौधों में 7-10 तथा पुराने बगीचों में 12-15 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करते रहना चाहिये।

अन्त: सस्यन:-
शुरू के दो-तीन वर्षों में बाग के रिक्त स्थानों में रबी में गोभी, मटर, फ्रेंचबीन और मैथी, खरीफ में लोबिया, उर्द, ग्वार, मूंग तथा जायद में लोबिया और कद्दू वर्गीय सब्जियाँ उगाई जा सकती हैं।

फूल आना:-
अमरुद में वर्ष में तीन बार फूल आते हैं। मार्च-अप्रैल, जुलाई-अगस्त तथा अक्तूबर-नवम्बर में फूल आते हैं। लेकिन व्यावसायिक फसल जुलाई-अगस्त में आने वाले फूल से ही लेनी चाहिये। फूल पुष्पन के 4-5 माह बाद पक कर तैयार हो जाते हैं।

फल तोड़ना:-
पौधा लगाने के दो वर्ष बाद ही फल आना शुरू हो जाते हैं परन्तु इस समय कोई फसल नहीं लेनी चाहिये। तीन वर्ष तक फल आते ही उन्हें तोड़ देना चाहिये। पौधों से चार वर्ष बाद ही फल लेना चाहिये। अमरुद की अच्छी तरह से देख-रेख करने से 40 वर्ष तक फसल प्राप्त की जा सकती हैं। 15-25 वर्ष की अवस्था अधिक उपज देने की होती हैं।
     जब फल गहरा हरा रंग छोड़कर पीले-हरे रंग के हो जायें तब उन्हें तोड़ लिया जाता हैं। बरसात की फसल दुसरे-तीसरे दिन तोड़ी जाती हैं। इसके विपरीत जाड़े की फसल 4-5 दिन बाद तोड़ी जाती हैं। बसन्त ऋतु की फसल को प्रत्येक 4 दिन बाद तोड़ा जा सकता हैं।

उपज:-
अमरुद के बीजू पौधे से औसतन पैदावर  90 किग्रा० व कलमी पौधों से 350 किग्रा० प्रति एक पेड़ तक प्राप्त की जा सकती हैं।

कीट:-
फल मक्खी:- इसके आक्रमण से फल सड़ जाते हैं। और फल टूटकर गिर जाते हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिए 0.1 प्रतिशत मैलाथियान को 1 प्रतिशत वाले गुड़ के घोल में मिलाकर छिड़काव करना चाहिये।
छाल खाने वाला कीट:- यह कीट मुख्य शाखा तथा अन्य शाखाओं में छेद करके, छाल खाकर कमजोर कर देता हैं तथा छिद्र के पास काला अवशेष छोड़ता हैं। जिसे आसानी से पहचाना जा सकता हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकताहम के लिए अवशेषों को साफ कर देना चाहिए तथा तने में बने छिद्रों में क्लोरोफॉर्म, एल्ड्रीन, मिट्टी का तेल या सेल्फास की गोली भरकर मिट्टी से बन्द कर देते हैं।
स्केल:- यह कीट पत्तियों तथा मुलायम प्ररोह का रस चूस कर कमजोर कर देता हैं।
रोकथाम:- नयी वृद्धि के समय 1.5 मिली० रोगोर या 1 मिली० मेटासिस्टोक्स प्रति एक लीटर पानी में घोल कर छिडकाव करना चाहिये।

रोग:-
उकठा रोग:- यह बहुत ही खतरनाक रोग हैं। एक बार बाग में लगने से कुछ सालों में पूरा बाग नष्ट हो जाता हैं। शाखायें टहनियाँ एक-एक करके ऊपरी भाग से सूखना आरम्भ करती हैं और नीचे की तरफ सूखती चली जाती हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिए उकठा रोधी किस्म लखनऊ-49 को उगाना चाहिये।
एन्थ्रोकनोज:- शुरू में फलों पर काले-काले चित्ते फल आते हैं और इनकी वृद्धि रुक जाती हैं। कभी-कभी गुलाबी रंग का श्राव निकलने लगता हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिए डाईथेन जेड-78 2 प्रतिशत का घोल बनाकर जून में 15 दिन के अन्तराल पर छिडकाव करना चाहिये।
कैन्कर:- यह रोग बेक्टिरियल द्वारा वर्षा ऋतु की फसल पर अधिक लगता हैं।
इसमें फलों पर गोल,कठोर व काले धब्बे पड़ जाते हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिए 2:2:50 बोर्डो मिश्रण का छिडकाव दो माह के अन्तर पर करना चाहिये।

फाइनल 

मंगलवार, 7 नवंबर 2017

अंगूर

अंगूर (Grapes)
 
वैज्ञानिक नाम (Botanical name):-              (Vitis vinifera L.)
कुल (Family) :-                                        (Vitaeeae)
गुणसूत्र संख्या (Chromosome number):-   2n =  38
 
अंगूर:-
अंगूर का उत्पादन क्षेत्र की द्रष्टि से फलों में प्रथम स्थान हैं, विश्व के कुल फल का लगभग आधा इस भाग के अन्तर्गत आता हैं। विश्व के अनेक देशों में अंगूर उगाया जाता हैं। इसका उत्पादन लगभग 110 लाख हेक्टेयर से भी अधिक हैं। आजादी के पहले भारत में काफी क्षेत्र में अंगूर की बागवानी की जाती थी। बंटवारे के बाद धारणा थी कि भारत में अंगूर पैदा नहीं किये जा सकते। लेकिन उद्यान वैज्ञानिकों के फलस्वरूप इसकी बागवानी आज लगभग पूरे देश में की जाती हैं। दक्षिण भारत में कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश व तमिलनाडु राज्य में सर्वाधिक खेती की जाती हैं, और उत्तरी भारत में हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश व दिल्ली राज्यों में इसकी खेती की जाती हैं।
 
उत्पत्ति:-
 
 
स्थान का चुनाव:-
अंगूर की बेलें किसी भी स्थान पर लगे जा सकती हैं, लेकिन कोनों पर या कोनरों के मध्य में ही लगाना अच्छा रहता हैं। जिससे अन्य शाकीय एवं फूलों को इसकी छाया से होने वाले नुकसान से बचाया जा सके। आँगन में जहाँ पर उचित मात्रा में धूप उपलब्ध हो, इसकी बेलें लगाई जा सकती हैं।
 
जलवायु:-अंगूर उपोष्ण जलवायु का पौधा हैं। परन्तु इसकी विभिन्न किस्मों की खेती हिमालय की तलहटी से लेकर कन्याकुमारी तक की जाती हैं। पौधे की अच्छी फलत के लिए गर्म तथा सूखा मौसम उपयुक्त हैं। फलों के पकने के समय बरसात होने से दाने खट्टे रह जाते हैं तथा फटने लगते हैं। जाड़े में मौसम ठंडा होना चाहिये तथा फूल आते समय मौसम साफ रहना चाहिये।
 
मिट्टी:-
अंगूर की खेती के लिए गहरी दोमट मिट्टी जिसमें जल निकास की व्यवस्था हो अच्छी रहती हैं। ऊसरीली भूमि में अंगूर की खेती नहीं की जाती हैं।
 
उन्नत किस्में:-
उपयोग अनुसार अंगूर की जातियाँ निम्न हैं-
  • खाने वाली किस्म:- ब्स्यूटी सीडलैस, परलैट, पूसा सीडलैस, डीलाइट, काडिनल, गोल्ड, अनाब-ए-शाही, बंगलौर, ब्लू, चीमा साहबी, काली साहबी, गुलाबी, कली यम्मा।
  • डिब्बा बन्दी वाली किस्म:- थाम्पसल सीडलैस, हिराड़े, परलैट, डीलाइट।
  • शराब बनाने वाली किस्म:- ब्यूटी सीडलैस, ब्लैक चम्पा, ब्लैक मस्कट, व्हाइट रेजलिग, टिन्टा।
  • रस वाली किस्म:- ब्यूटी सीडलैस, अर्ली मस्कट, चैम्पियन, ब्लैक चम्पा, बंगलौर ब्लू।
  • सुखाई जाने वाली किस्म:- पूसा सीडलैस, किशमिश बेली, ब्लैक कीरिन्थ, मस्कट ऑफ एल्बेजेन्डर।
क्षेत्र के अनुसार अंगूर की जातियाँ निम्न हैं-
  • दक्षिण भारत के लिए:- अनाब-ए-शाही, बंगलौर ब्लू, भोकरी, ब्लैक चम्पा, चीमा साहबी, गुलाबी, काली साहबी, पनडारी साहबी, थोम्पसन सीडलैस, अर्कावती, अर्काकंचन, अर्काश्याम, अर्काहंस।
  • परलैट, ब्यूटी सीडलैस, पूसा सीडलैस, डिलाइट, हिमरोड़, किशमिश बेली, थोम्पसन सीडलैस, भारत अर्ली, काडिनल, चैम्पियन, अर्ली मस्कट, गोल्ड।
पकने के अनुसार अंगूर की जातियाँ निम्न हैं-
  • शीघ्र पकने वाली:- ब्यूटी सीडलैस, परलैट, पूसा सीडलैस, डिलाइट, थोम्पसन सीडलैस, गोल्ड, गुलाबी, हिमरोड़, किशमिश।
  • देर से पकने वाली:- अनाब-ए-शाही, बंगलौर ब्लू, चीमा साहबी, काली साहबी, साहबी, भोकरी।
 
प्रवर्धन:-
अंगूर का प्रवर्धन कटिंग द्वारा किया जाता हैं। इसके लिए 23 सेमी० लम्बी परिपक्व 3-4 गांठ वाली कटिंग का प्रयोग किया जाता हैं। उनका बण्डल बनाकर नम बालू में भंडारित कर देते हैं, अथवा सीधे तैयार क्योरियों में रोपण कर दिया जाता हैं।
 
रोपण का समय:-
एक वर्ष आयु की जड़ वाली कलमों का रोपण उत्तर भारत में जनवरी माह में किया जाता हैं। दक्षिण भारत में रोपण अक्तूबर-नवम्बर व मार्च-अप्रैल में किया जाता हैं।
 
पौधों की सफाई का काँट-छाँट:-
अंगूर को 2-3 वर्ष तक संघाई एवं काँट-छाँट द्वारा बेलों के आकार एवं सुदृढ़ ढाचें का शीर्ष प्रणाली के अनुसार तैयार करना अति आवश्यक हैं, इसलिये आरम्भ में जो 2-3 कलिकाएँ फुटाव लेती हैं, उनमें से केवल एक ही स्वस्थ एवं सीधा प्ररोह मुख्य तने के लिए जमीन से एक मीटर तक सीधा बढ़ने दिया जाता हैं। इसी समय बेल को सीधा और मजबूत बनाने के लिए बाँस या लकड़ी के टुकड़े का सहारा दिया जाता हैं। एक वर्ष पुरानी बेल के तने को जनवरी माह में एक मीटर की ऊँचाई से छंटाई कर दे जिससे शीर्ष पर 5-6 मुख्य शाखायें विकसित हो जाये। इन्ही मुख्य शाखाओं पर प्ररोह अथवा फली वाली टहनियाँ विकसित हो जाती हैं।
 
खाद एवं उर्वरक:-
एक वर्ष पुरानी बेल को अच्छी बढ़वार के लिए 15-20 किग्रा० जैविक खाद प्रति एक बेल जनवरी माह में छंटाई के तुरन्त बाद डालकर मिट्टी में अच्छी तरह से मिला देना चाहिये। 2 या 3 वर्ष की बेल में 15-20 किग्रा० जैविक खाद के साथ 250 ग्राम नाइट्रोजन, 100 ग्राम फॉस्फोरस और 100 ग्राम पोटाश उर्वरक का मिश्रण बनाकर प्रति एक बेल में डालना चाहिये। फल वाली बेल में 100 ग्राम यूरिया, 250 ग्राम सुपर फॉस्फेट और 200 ग्राम पोटैशियम सल्फेट का मिश्रण प्रति एक बेल जनवरी में छंटाई के बाद डालना चाहिये।
 
सिंचाई:-
गर्मियों में प्रत्येक सप्ताह और सर्दियों में 15 दिन के अन्तराल पर सिंचाई की जाती हैं। फूल व फल लगने के समय सिंचाई जरुर करनी चाहिये। फल के टिकाव के पश्चात सिंचाई करते रहना चाहिये। इसी समय फलों तथा पौधों में वृद्धि होती हैं। पकने के समय हल्की-सी नमी की कमी होनी चाहिये। जाड़ों में अधिक नमी होनी चाहिये। फूल खिलते समय व नवम्बर से जनवरी तक सिंचाई नहीं करनी चाहिये।
 
कीट:-
चैफर बोटल:- यह कीट अंगूर से पत्तियों की छांटकर छलनी कर देता हैं। बाली वाली सूंडीयां मुख्य रूप से नई बेलों की पत्त्यियों को खाती हैं।
रोकथाम:- इस कीट से बचाव के लिए 10 प्रतिशत बी० एच० सी० धूल, मैलाथियान, डायजिनान, पोलिथियान 0.05 प्रतिशत का छिडकाव एक बार जून के अन्तिम सप्ताह में और जुलाई-सितम्बर तक 15 दिन के अन्तराल पर छिडकाव करते रहना चाहिये।
स्फेल कीट:- यह कीट बहुत छोटा, सफ़ेद रंग का पतला कीट होता हैं। यह टहनी, शाखा व तने पर चिपका रहता हैं तथा रस चूसकर बेलों को सूखा देते हैं।
रोकथाम:- इस कीट से बचाव के लिए 10 प्रतिशत बी० एच० सी० धूल, मैलाथियान, डायजिनान, पोलिथियान 0.05 प्रतिशत का छिडकाव एक बार जून के अन्तिम सप्ताह में और जुलाई-सितम्बर तक 15 दिन के अन्तराल पर छिडकाव करते रहना चाहिये। 
थ्रिप्स:- यह पीले रंग का कीड़ा होता हैं। यह पत्ती व फूलों के गुच्छों से रस चूसता हैं। जिससे पत्तियाँ किनारे से मुड़ जाती हैं, तथा पीली पड़कर गिर जाती हैं, फूल सूख जाते हैं।
रोकथाम:- इस कीट से बचाव के लिए 10 प्रतिशत बी० एच० सी० धूल, मैलाथियान, डायजिनान, पोलिथियान 0.05 प्रतिशत का छिडकाव एक बार जून के अन्तिम सप्ताह में और जुलाई-सितम्बर तक 15 दिन के अन्तराल पर छिडकाव करते रहना चाहिये।
 
रोग:-
सन्थ्रक्नोज एवं सर्कास्वोरा:- यह पत्ती धब्बा रोग हैं। इनके आक्रमण से पत्तियाँ सूखकर गिर जाती हैं तथा टहनियाँ भी पूरी तरह से सूख जाती हैं।
रोकथाम:- इनकी रोकथाम के लिए ब्लाईटॉक्स 0.3 प्रतिशत का छिड़काव एक बार जून के अन्तिम सप्ताह में तथा दूसरा 15 दिन के अन्तराल पर करना चाहिए।
 
फलों की तुड़ाई:- अंगूर के गुच्छों को तुड़ाई पूर्ण रूप से पकने के बाद की जानी चाहिये। प्रात:काल सावधानीपूर्वक डंठल को पकड़कर तुड़ाई की जाती हैं।
 
ऊपज:-
अंगूर की ऊपज किस्म, संघाई तथा बाग की देखभाल पर निर्भर करती हैं। अंगूर के फल की औसत ऊपज 10-15 टन प्रति एक हेक्टेयर से प्राप्त होती हैं।
 
 
फाइनल 

सोमवार, 6 नवंबर 2017

बेल

बेल (Bael)
 
वैज्ञानिक नाम (Botanical name):-              (Psidium guajava L.)।
कुल (Family) :-                                        (Myrtaceae)
गुणसूत्र संख्या (Chromosome number):-   2n = 

बेल:-
बेल उत्तर भारत का पौधा हैं। बेल का फल पौष्टिक तथा औषधीय गुण वाला होता हैं।  भारत के अलावा श्रीलंका, पाकिस्तान, बंगला देश, वर्मा, थाईलैंड व दक्षिण पूर्वी एशिया आदि में इसकी बागवानी की  जाती हैं। भारत में बेल हिमालय से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक इसकी खेती होती हैं।

उत्पत्ति:-
बेल का मूल स्थान भारत हैं।

भूमि:-
बेल की खेती लगभग सभी प्रकार की भूमि में की जा सकती हैं। बंजर एवं ऊसरीली भूमि जिसका पी० एच० मान 8.0 तक हो, में भी इसकी खेती की जा सकती हैं।

जलवायु:-
इसके लिए गर्म-ठंडी जलवायु ठीक रहती हैं।

प्रजतियाँ:-
बेल की जातियाँ निम्न हैं- देवरिया, बड़ा कागजी इटावा, मिर्जापुर कागजी, बघेल, बस्ती न०-2, कागजी गोंडा न०-1, फ़ैजाबाद कागजी, कागजी गोंडा न०-3, देवरिया बड़ा चकिया, सिवान बड़ा व सिवान लम्बा आदि मुख्य किस्म हैं।

प्रवर्धन:-
बेल का प्रवर्धन बीज द्वारा ही किया जाता हैं। जिस कारण इसकी विशेष किस्म नहीं हैं। इनका कायिक प्रवर्धन करके रोपण किया जाना चाहिये। बीज के अतिरिक्त जड़ कलम अथवा अन्त: भूस्तारी बेल का प्रवर्धन किया जा सकता हैं। परन्तु पैंचबन्दी या टी चश्मा द्वारा मई-अगस्त माह तक बेल का प्रवर्धन आसानी से किया जा सकता हैं। मूल वृन्त के लिए देशी बेल के बीजू पौधे प्रयोग किये जाते हैं।

रोपण का समय:-
बेल के पौधों की रोपाई का कार्य जून-जुलाई में किया जाता हैं। बेल के पौधे में लाइन से लाइन 8 मीटर और पौधे से पौधे की दूरी 8 मीटर होनी चाहिये।

कृन्तन:-
बेल की संघाई रुपान्तरित अग्र प्ररोह विधि से करनी चाहिये। सूखी, रोगी एवं कीटयुक्त शाखाओं को निकाल देना चाहिये। काँट-छांट अप्रैल-मई और अगस्त के माह में करनी चाहिये। अगस्त में केवल पत्तियों की छटाईं की जाती हैं।

अन्त: सस्यन:-
बेल के बाग़ में लोबिया, मूंग, उर्द, मटर, चना आदि फसलें उगाई जानी चाहिये।

खाद:-
बेल के पौधे में 500 ग्राम नाइट्रोजन, 250 ग्राम फॉस्फोरस और 250 ग्राम पोटाश प्रति एक पेड़ प्रति वर्ष देना चाहिये। जून-जुलाई माह में फैलाव में नाली बनाकर उर्वरकों का प्रयोग किया जाता हैं।

फूल आना:-
बेल के पौधे में जुलाई माह में फूल आते हैं तथा फल अप्रैल-मई में तैयार हो जाते हैं।

फलों की तुड़ाई:-
जब फल का रंग गहरे हरे से बदलकर पीला हरा हो जाये तो फलों की तुड़ाई कर लेनी चाहिये। फलों को डंठल सहित तोड़ा जाता हैं। फल अप्रैल-मई में तोड़े जाते हैं।

ऊपज:-
बेल के 800-1000 फल प्रति एक पेड़ से एक वर्ष में प्राप्त किये जा सकते हैं।

कीट:-
पर्णभक्षी:- यह पेड़ की पत्तियों को काटकर नुकसान पहुँचाता हैं।
रोकथाम:- रोकथाम के लिए फलों में वर्णित दवाओं का प्रयोग करना चाहिये।

रोग:-
कैंकर:- बेल को कैंकर से काफी नुकसान होता हैं। यह जैन्थोमोनस बिल्बी वैक्टीरिया द्वारा होता हैं। प्रभावित भाग पर जलशोषित धब्बे बनते हैं जो बाद में बढ़कर भूरे हो जाते हैं। बाद में पूर्ण प्रभावित भाग के उत्तक गिर जाते हैं, और पत्तियों पर छिद्र बन जाते हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिए स्ट्रैप्टोमाईसीन सल्फेट नामक दवा के 500 भाग प्रति 10 लाख भाग पानी में घोलकर छिडकाव करना चाहिये।

final

सोमवार, 30 अक्तूबर 2017

केला

केला (Banana)
 
वैज्ञानिक नाम (Botanical name):-              (Musa Paradisica)
कुल (Family) :-                                        (Musaceal)
गुणसूत्र संख्या (Chromosome number):-   2n =  

केला:-
केला भारत का प्राचीनतम फल हैं। खाने में स्वादिष्ट, अच्छी भण्डारण क्षमता तथा प्रति इकाई क्षेत्रफल में सर्वाधिक उत्पादन के कारण व्यवसायिक स्टार पर इसकी खेती की जाती हैं। उत्तर प्रदेश के तराई वाले जनपद बहराइच, गोन्डा, बस्ती, गोरखपुर, देवरिया इत्यादि इसकी खेती के लिये प्रमुख हैं।

उत्पत्ति:-
केले का मूल स्थान दक्षिण पूर्व एशिया का कोष्ण कटिबन्धीय भाग माना जाता हैं। इस भाग असम, वर्मा, थाईलैंड और इन्डोचीन की पहाड़ियों के संगम वाला स्थान हैं। आदिकालिक खाद्य अकेले म्यूजा एक्यूमिनाटा के द्विगुणित भेद थे, जो आज भी दक्षिण पूर्व एशिया के बड़े क्षेत्रफल में उगते पाए गये हैं। बाद में केले का विकास म्यूजा बल्बीसियाना के त्रिगुणित और चतुर्गुणित विभेद के अन्य जातियों के संकरण से हुआ। त्रिगुणित एक्यूमिनाटा टाइप (ए ए ए समूह) की उत्पत्ति सम्भवत: मलेशिया में हुई। संकर समूहों की उत्पत्ति एक्यूमिनाटा जाति के निकास केन्द्र के आस-पास हुई हैं और ए बी, ए ए बी और ए बी बी समूहों की उत्पत्ति भारत में हुई। ए ए तथा ए बी बी समूहों का द्वितीय विकास केन्द्र फिलीपीन रहा हैं। एक ए बी बी बी क्लोन इन्डोचीन में जन्मा लगता हैं। भारत में केले को प्राचीनकाल से उत्पादित करने के प्रभाव मिलते हैं। ईसा से 500-600 वर्ष पूर्व के पालि बौई ग्रन्थों में इसका वर्णन हैं।

जलवायु:-
पौधे की उचित वृद्धि के लिये कम से कम 11 डिग्री से० तापमान होना बहुत आवश्यक हैं। 170-200 सेमी० वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्र सर्वोत्तम हैं। केले की फसल के लिये गर्म जलवायु, पाला पड़ना, तूफान और तेज हवा का होना उपयुक्त नहीं हैं।

भूमि:-
केले की अच्छी फसल लेने के लिये गहरी दोमट भुरभुरी और उपजाऊ मिट्टी उपयुक्त हैं जिसका पी० एच० मान 7 हो।
 
केले का वर्गीकरण:-
अधिकांश खाद्य केले की जातियां म्यूजा वंश के समूह म्यूजा के अन्तर्गत आती हैं। म्यूजा की बागवानी संसार के विस्तृत क्षेत्रफल पर की जाती हैं। खाद्य केले की जातियाँ इसी समूह की जंगली जाति म्यूजा एक्यूमिनाटा और म्यूजा बल्बीसियाना से उत्पन्न हुई हैं। इसी समूह की कुछ जातियाँ (म्यूजाबासजो) रेशे भी पैदा करती हैं। चजिमैन (1949) के अनुसार म्यूजा पैराडिजिएका जंगली जाति म्यूजा एक्यूमिनाटा से विकसित हुई हैं। कुछ अन्य जातियाँ कल्बीसिया से और एक अन्य महत्वपूर्ण व्यापारिक जाति म्यूजा सेपिएन्टम इन दोनों जंगली जातियों के संकरण से उत्पन्न हुई हैं। अत: पैराडिजिएका उद्यमी किस्मों के लिऐ उपयुक्त हैं।
 
प्रजातियाँ:-
  • पकाकर खायी जाने वाली किस्में:- हरीछाल, रोबस्टा, चीनिया, मालभोग, पूवान, अल्पान।
  • सब्जी वाली किस्में:- कोढ़िया, कम्पेयेरगंज, हाजरा, काबुली, बत्तीसा।
  • अन्य किस्में:- मन्थन, सफ़ेद बेल्ची, पहाड़ी केला, बसराई ड्वार्फ, कोठिया, मुन्यन।
प्रवर्धन एवं रोपण (Propagation and planting):-

पौधों की रोपाई के लिये सबसे पहले 2-3 मीटर दूरी पर 50 X 50 X 50 सेमी० आकार के गड्ढ़े मई माह में खोद देने चाहिये। गड्ढ़े को 15-20 दिन तक खुला रखने के बाद 20-25 किग्रा० सड़ी हुई गोबर की खाद और क्लोरोपाईरीफॉस 50 प्रतिशत  ई० सी० 3 मिली० प्रति 5 लीटर पानी में घोलकर ऊपर की की मिट्टी के साथ अच्छी तरह से मिलाकर गड्ढ़े में भर देना चाहिये। उसके बाद गड्ढ़े की सिंचाई कर देनी चाहिये।
बौनी किस्मों को 1.8 X 1.8 मिटर की दूरी पर तथा अधिक बढ़ने वाली चम्पा, नेन्द्रेन जैसी किस्मों के लिये 2.4 X 2.4 मीटर की दूरी  पौधे लगाये जाते हैं।
     केले का प्रसारण अधोभूस्तरी (Suckers) द्वारा वानस्पतिक तरीके से किया जाता हैं। अधोभूस्तरी दो तरह की होती हैं।
  • नुकीली पत्तियों वाले अधोभूस्तरी (Sword Suckers):- ये अधोभूस्तरी तीन माह की तलवारनुमा, जिनका घनकन्द पूर्ण विकसित व् गठीला हो. का प्रयोग किया जाता हैं। आन्तरिक रूप से ताकतवर होते हैं। लेकिन देखने में कमजोर लगते हैं। प्रसारण के लिये इनका ही प्रयोग किया जाता हैं।
  • चौड़ी पत्तियों वाले अधोभूस्तरी (Water सुस्केर्स):- पत्तियाँ चौड़ी होती हैं। आन्तरिक रूप से कमजोर होते हैं। देखने में ताकतवर दिखाई पड़ते हैं। ये भूस्तारी प्रसारण के लिये प्रयोग नहीं किये जाते हैं।
बुवाई का समय:-
असिंचित क्षेत्र में जून-जुलाई और सिंचित क्षेत्रों में फरवरी-मार्च में बुवाई की जाती हैं।

कृन्तन (Pruning):-
केले की खेती में एक कहावत प्रचलित हैं'केला सदा रहे अकेला'। अधिकांश जहाँ केले रोपे जाते हैं। सभी पौधों को उगने दिया जाता हैं। जिससे भूमि में उपलब्ध भोज्य पदार्थ सभी पौधों में बँट जाते हैंजो  गलत हैं। केले में रोपण के दो माह के अन्दर ही बगल से नई पुत्तियाँ निकलती हैं इन पुत्तियों को समय-समय पर काटते रहना चाहिए। रोपण के दो माह बाद 30 सेमी० व्यास का 25 सेमी० ऊँचा चबूतरा नुमा आकृति बना देनी चाहिये। इससे पौधों को आवश्यक सहारा मिल जाता हैं। तथा इन पत्तियों को सावधानीपूर्वक निकालकर अन्य जगह रोपण किया जा सकता हैं। जून में निकल रही पत्तियों को प्रत्येक पौधे के पास छोड़ देना चाहिये तथा निकालते रहे।

खाद:-
केले की फसल में नाइट्रोजन 250 ग्राम, फॉस्फोरस 100 ग्राम और पोटाश 200 ग्राम प्रति एक पौधा प्रति एक वर्ष देनी चाहिये। फॉस्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा पौधे के चारों तरफ 30 सेमी० चौड़ी नाली बनाकर मिट्टी में मिला देना चाहिये तथा नाइट्रोजन पौधे के चारों और फैलाव में छिड़ककर मिट्टी में मिला देना चाहिये। ऊर्वरकों की मात्रा को तीन बार में दिया जाता हैं। एक बार रोपने के समय, दूसरी बार रोपने एक महीने और तीसरी बार पाँच महीने बाद बराबर मात्रा में उर्वरक देना चाहिये। पाँच महीने बाद फसल  उर्वरक देना लाभदायक नहीं रहता हैं।

सिंचाई:-
पौधे को रोपने के तुरन्त बाद सिंचाई करनी चाहिये। वर्षा ऋतु को छोड़कर शेष सभी ऋतुओं में सिंचाई की जाती हैं। पौधे को किसी भी अवस्था में पानी की कमी से नुकसान नहीं होना चाहिये। गर्मियों में पौधों की 7-10 दिन, वर्षा ऋतु में 15-20 दिन और जाड़ों में 10-12 दिन अन्तर पर सिंचाई की जाती हैं। पौधों की छोटी अवस्था में चारों तरफ छोटी क्यारियाँ बनाते हैं और बाद में क्यारियों का आकार बढ़ा लेते हैं।

मल्चिंग:-
केले के थालों में पुआल, गन्ने की पत्ती व पॉलीथिन बिछा देने से सिंचाई की मात्रा आधी रह जाती हैं। खरपतवार नहीं उग पाते हैं। पौधों की वृद्धि, फलोत्पादन तथा गुणवत्ता में वृद्धि हो जाती हैं।

मिट्टी चढ़ाना:-
पौधों पर वर्षा ऋतु के बाद सदैव मिट्टी चढ़ायी जाती हैं। क्योंकि पौधे के चरों तरफ की मिट्टी घुल जाती हैं।

अन्त: सस्यन:-
बैंगन, अरबी आदि सब्जी इसके बाग़ में उगायी जा सकती हैं। केले में कद्दु वर्गीय सब्जियाँ नहीं उगायी जाती हैं। क्योंकि इनसे विषाणु रोग फैलने की सम्भावना रहती हैं। केले की मिलवां फसल  के रूप में सुपाड़ी, नारियल, कॉफ़ी आदि फसल उगायी जा सकती हैं।

फूल आना:-
प्रथम फसल के लिये केलों के रोपण के प्रव्यक्रम निकलने तक (रोपाई से लेकर फल निकलने तक) 9-12 महीने का समय लगता हैं। इसके बाद की फसल में जलवायु व बाग प्रबन्धन के अनुसार 5-7 महीने लगते हैं। निकलने के तीन महीने बाद फल परिपक्व हो जाते हैं।

फलों को तोड़ना:-
फूल आने के लगभग तीन-चार माह बाद फल तुड़ाई के लिये तैयार हो जाता हैं। जब कलियों की चारों धारियाँ तिकोनी न रहकर गोलाई लेने लगे। उसी समय फलों को पूर्ण विकसित समझना चाहिये। पूर्ण विकसित फल को तेज धार वाले औजार से काटना चाहिये।

फलों को पकाना:-
किस्म की अनुसार फल को बन्द कमरे में भरकर केले की पत्ती से ढ़क दिया जाता हैं। एक कोने में उपले जलाकर या जलती अंगीठी रखकर कमरा गीली मिट्टी से सील कर दिया जाता हैं। 48-72 घन्टे में केला खाने के लिये तैयार हो जाता हैं। प्राय: बन्द कमरे में कार्बाइड को पुड़ियों को रखकर, रख दिया जाता हैं। कार्बाइड से स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता हैं। आकर्षक रंग एवं शीघ्र पकाने के लिये इथोपान 1000 पी० पी० एम० (इथरेल 2.5 मिली० प्रति एक लीटर) सान्द्रता का घोल बनाकर और कास्टिक सोडा की 5-10 गोलियाँ मिलाकर कमरे में लकड़ी के बक्से में या केले के साथ रखने से 24 घण्टे के अन्दर फल पककर तैयार हो जाता हैं।

उपज:-
केले की फसल में समय पर रोपण करने और उचित मात्रा में खाद एवं उर्वरक का प्रयोग किया गया हैं तो 200-250 कुंतल प्रति एक हेक्टेयर तक उपज प्राप्त की जा सकती हैं।

भण्डारण:-
ड्वार्फ कैविन्डिस व रोबस्टा किस्म के पके हुये फलों को 1 डिग्री - .5 डिग्री से० तापमान तथा 80-90 प्रतिशत सापेक्ष आद्रता पर 3 सप्ताह तक शीत भण्डारित किया जा सकता हैं। बसराई के पके फलों को पकाने के लिये 11.1 डिग्री - 12.77 डिग्री से० तापमान और 85-90 प्रतिशत आद्रता पर 3 सप्ताह तक भण्डारित किया जा सकता हैं। हरे पके फलों को पकाने के लिये 20 डिग्री- 21.1 डिग्री से० तापमान और 80-85 प्रतिशत आद्रता पर 1-2 सप्ताह तक भण्डारित किया जा सकता हैं। हरे परिपक्व फलों को 12.7 डिग्री से० स निचे भण्डारित  फलियाँ ठंडक से क्षतिग्रस्त हो जाती हैं और बाद में उचित तापमान पर पकाने से भी नहीं पकती हैं।

कीट:-
वीटिल:- यह कीट कोमल पत्ती व् फलों का छिलका खुरचते हैं। बरसात में पत्ती व हरे फलों पर काली धारियाँ बन जाती हैं। फलों की वृद्धि रुक जाती हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिये जुलाई-अगस्त में प्रकोप को देखते ही मोनोक्रोटोफॉस 36 प्रतिशत एस० एल0 3 मिली० प्रति एक लीटर पानी में घोलकर दो छिड़काव करने चाहिये।
केले का धुन या बीवील:- यह कीट भूमिगत प्रकन्द में छेद करके खाना शुरू कर देता हैं। प्रकन्द सड़ने लगता हैं और पूरा पौधा नष्ट हो जाता हैं।
रोकथाम:- इस कीट से बचाव के लिये पत्तियों को एल्ड्रिन में डुबोकर रोपाई करनी चाहिये। बाग में प्रभावित पौधे के चारों तरफ एल्ड्रिन धूल 30-35 ग्राम प्रति एक पौधे के चारों तरफ बिखेरना चाहिये।

रोग:-
पनामा रोग:- इस रोग को केले का सूखना भी कहते हैं जो फ्यूसेरीयम ओक्सीस्पोरम मट्टी से जन्म लेने वाले कवक से होता हैं। पुरानी पत्ती किनारों से पिली पड़कर सूख जाती हैं। ऐसे पौधों में फलों का गुच्छों का पूर्ण विकास नहीं होता हैं।
रोकथाम:- रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिये। एक किलोग्राम सिरालन बेट 300 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिये।
बन् टॉप:- यह विषाणु जनित रोग हैं। रोगी पौधे की पट्टी छोटी होकर गुच्छे का रूप धारण कर लेती हैं। पौधे की वृद्धि एवं फलत रुक जाती हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिये रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर नष्ट  कर देना चाहिये। बाग में कद्दूवर्गीय फसलें नहीं बोनी चाहिये।
कालव्रण:- यह रोग पके फलों पर लगता हैं। फलों पर काले धब्बे पड़ने के बाद फल सड़ जाते हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिये रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर नष्ट  कर देना चाहिये। प्रभावित पौधों पर बोर्डों मिश्रण का 3-4 बार छिड़काव करना चाहिये।
पत्तियों पर धब्बे (Leaf spot):- यह केरोस्पोरा मुसेक कवक द्वारा फैलता हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिये बोर्डों मिश्रण का 4:4:50 का छिड़काव करना चाहिये।

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