बुधवार, 8 नवंबर 2017

पपीता

पपीता (Papaya)
 
वैज्ञानिक नाम (Botanical name):-              (Carica Papaya L.)
कुल (Family) :-                                        (Caricaceae)
गुणसूत्र संख्या (Chromosome number):-   2n =  18,36 

पपीता:-
पपीता संसार के सभी उष्ण तथा उपोष्ण देशों में उगाया जाता हैं। विशेषकर अमेरिका, दक्षिणी अमेरिका, स्पेन, दक्षिणी अफ्रीका, केन्या, उगांडा, कांगो, श्रीलंका, मलायाद्वीप, फिलिपिन्स, सिंगापुर, आस्ट्रेलिया और भारत में इसकी बागवानी बड़े पैमाने पर की जाती हैं। भारत में इसकी सफलतापूर्वक बागवानी उत्तर प्रदेश, पश्चिमी बंगाल, असम,बिहार, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, उड़ीसा इत्यादि प्रदेशों में की जाती हैं। उत्तर प्रदेश में कानपूर, देहरादून, वाराणसी, सुल्तानपुर और मेरठ जिलों में प्रमुख रूप से इसकी बागवानी होती हैं।

उत्पत्ति:-
पपीते का जन्म स्थान मैक्सिको की खाड़ी और वेस्टइंडीज का समुद्री किनारा और सम्भवत: ब्राजील माना जाता हैं। पपीते की अन्य जातियों का मूल स्थान अमेरिका का उष्ण कटिबन्धीय भाग माना जाता हैं। अमेरिका महाद्वीप की खोज के पहले पपीते के विषय में एशिया के लोगों को कोई जानकारी नहीं थी। वर्तमान भारतीय पपीते का नाम अमेरिकी शब्द 'पपाया' से निकाला गया जो कैरिव शब्द 'अबाबई' का अपभ्रंश हैं। भारत में 16वीं शताब्दी के मध्य में पुर्तगाल वासियों द्वारा लाया गया। इसका वर्गीज नाम "थिम्बावायी" हैं जिसका अर्थ समुद्री जहाजों द्वारा लाया गया फल हैं। पपीते का बीज सन् 1626 में भारत से नेपलीन (इटली) को भेजा गया था।

जलवायु:-
पपीता ग्राम जलवायु में ठीक तरह से फलता हैं लेकिन जहाँ पर गर्मी व सर्दी दोनों अधिक पड़ती हैं और जहाँ पाला न पड़ता हो ऐसे क्षेत्र पपीते के लिये उपयुक्त हैं। अधिक वर्षा व तेज हवा वाले क्षेत्र पपीते के लिए उपयुक्त नहीं हैं। पपीते की फसल के लिये 12-26 डिग्री से० तपमान उचित होता हैं। बीजों के अंकुरण के लिये 35 डिग्री० से० तापमान सर्वोत्तम होता हैं। ठण्ड में रात्रि का तापमान 12 डिग्री से० से कम होने पर पौधों की वृद्धि तथा फलोत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ता हैं।

भूमि:-
पपीते की खेती के लिये अच्छी जल निकास वाली बलुई दोमट मिट्टी सबसे उपयुक्त हैं जिसका पी० एच० मान 6.5 - 7 हो उत्तम रहती हैं।

प्रजातियाँ:-
  • पश्चिमी भाग के लिये:- वाशिंगटन, कुर्ग हनीडयू, गुजरती।
  • दक्षिणी भाग के लिये:- कुर्ग हनीड्यू, वाशिंगटन, लम्बी, गोल, कोयम्बटूर-1, कोयम्बटूर-2, कोयम्बटूर-3, कोयम्बटूर-4, कोयम्बटूर-5, कोयम्बटूर-6।
  • पूर्वी भाग के लिये:- वाशिंगटन, साऊथ अफ्रीकन, सीलोन, गोल, रांची, कुर्ग हनीडयू।
  • उत्तरी भाग के लिये:- सहारनपुर सलैक्शन, कुर्ग हनीडयू, वाशिंगटन।
  • अन्य जातियाँ:- गुजराती, हनीडयू, सिंगापुर पिंक, पैरादिनिया, पूसा ड्वार्फ, पूसा जाइन्ट, पूसा डेलीशस, पूसा मैजेस्टी, बरवानी रेड, रांची द्वार्ड, बेंगलोर, पंजाब स्वीट, बैंकाक, इबादान, मेडम सिल सीला आदि मुख्य किस्में देश के विभिन्न भागों में उगायी जाती हैं।
  • कुछ प्रमुख किस्में जिनमें नर पौधे नहीं निकलते हैं जैसे- पूसा डेलिसियस, पूसा मेजेस्टी आदि हैं।
बीज की मात्रा:-
पपीते को एक हेक्टेयर क्षेत्र के लिए आवश्यक पौधों की संख्या तैयार करने के लिए परम्परागत किस्मों का 500 ग्राम बीज एवं उन्नत किस्मों का 300 ग्राम बीज की मात्रा की आवश्यकता होती हैं।

उपचारित करना:-
बीज को बोने से पूर्व कवकनाशी से उपचारित कर लेना चाहिये। सेरेसन या थीरम 3 ग्राम दवा से प्रति एक किलोग्राम बीज को उपचारित करके तैयार की गयी पौधशाला में बोना चाहिये।

पौध तैयार करना (प्रवर्धन Propogation):-
पपीते का प्रवर्धन बिज द्वारा किया जाता हैं। पपीते की पौध क्यारियों एवं पॉलीथीन की थैलियों में तैयार की जा सकती हैं। क्यारीयों में पौध तैयार करने के लिये क्यारी की लम्बाई 3 मीटर, चौड़ाई 1 मीटर एवं ऊँचाई 20 सेमी० होनी चाहिये। प्लास्टिक की थैलियों में पौध तैयार करने के लिये 200 गेज मोटी 20 X 15 सेमी आकार की थैलियों में वर्मीकम्पोस्ट, रेट, गोबर तथा मिट्टी 1:1:1:1 अनुपात का मिश्रण भरकर प्रत्येक थैली में 1 या 2 बीज बोयें। बीज पर एक सफ़ेद चिपचिपी झिल्ली होती है जिसे राख से मलकर अच्छी प्रकार साफ कर लेना चाहिये। बोने के लगभग 2 माह बाद रोपाई के लिये पौधे तैयार हो जाते हैं।

रोपण का समय:-
गड्ढे तैयार करने का उचित समय मई माह का होता हैं जिसे 15-20 दिन के लिए धूप में खुला छोड़ दिया जाता हैं जिससे भूमि के अन्दर के हानिकारक कीड़े-मकोड़े नष्ट हो जाते हैं। पौधे सामान्यत: जून-जुलाई में रोपे जाते हैं परन्तु इस समय रोपाई करने से पौधों का आकार बड़ा हो जाता हैं। उनमें वाइरस तथा कवक जनित रोग लगने की सम्भावना अधिक होती हैं। अंत: जिन इलाकों में पाला न पड़ता हो सितम्बर-अक्तूबर में पौधे लगा देने चाहिये। फरवरी-मार्च में भी पौधों की रोपाई की जा सकती हैं।

बाग की स्थापना (पौधा रोपण):-
पौध रोपण करने से पूर्व खेत की तैयारी अच्छे से करनी चाहिये इसके लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से और 2-3 जुताई कल्टीवेटर या हैरो से करनी चाहिये। पूर्ण रूप से तैयार खेती में 50 सेमी० लम्बाई, 50 सेमी० चौड़ाई व 50 सेमी० गहराई के आकार के गड्ढे 2 X 2 मीटर की दूरी पर खोद लिए जाते हैं। और 15-20 दिन तक खुला छोड़ दिया जाता हैं। उसके बाद मिट्टी में 10 किग्रा० सड़ी गोबर की खाद, 1 किग्रा० बोनमील, 1 किग्रा० नीम की खली अथवा 500 ग्राम सुपर फॉस्फेट मिलाकर 15-20 सेमी० की ऊँचाई तक गड्ढे को भर देना चाहिये। और हल्की सिंचाई कर देनी चाहिये। और जब खाद अच्छे से सड़ जाये तो पौधों की रोपाई कर देनी चाहिये।

खाद एवं उर्वरक:-
पपीते के पौधे में 200 ग्राम नाइट्रोजन, 100 ग्राम फॉस्फोरस तथा 200-250 ग्राम पोटाश की मात्रा दो बराबर भागों में दी जाती हैं। आधी मात्रा फरवरी-मार्च तथा आधी मात्रा सितम्बर-अक्तूबर में दी जाती हैं। दूसरे वर्ष भी इसी अनुपात में उर्वरकों का प्रयोग किया जाना चाहिये।

सिंचाई:-
पपीता सूखा सहन करने वाली फसल हैं, इसका तात्पर्य यह नहीं कि पपीते को पानी नहीं चाहिये, जिस समय पपीता फूलना-फलना प्रारम्भ कर देता हैं, उस समय पपीते को अधिक मात्रा में पानी की आवश्यकता होती हैं पौधे में फल बढ़ते समय सिंचाई की मात्रा बढ़ा देनी चाहिये। रासायनिक खाद देने के बाद सिंचाई अवश्य करनी चाहिये। गर्मियों में 15 दिन तथा सर्दियों में 1 माह के अन्तर से सिंचाई की जाती हैं। पानी को तने के सीधे सम्पर्क में नहीं आना चाहिये इसके लिए तने के पास चारों तरफ मिट्टी से ऊँचा कर देना चाहिये।

खरपतवार:-
पपीते के बगीचे में खरपतवार बड़ी तेजी से फैलते हैं तथा पपीते को दिये गये अधिकांश तत्त्व को समाप्त कर देते हैं, इसका नतीजा यह होता हैं कि पपीते के बाग बहुत ही कम मात्रा में फल दे पाते हैं। इसलिये पपीते के चारों तरफ की घास की अच्छी तरह सफाई करते रहना चाहिये। जिससे खरपतवार पौधे की खुराक न खिंच सकें।

अन्त: सस्यन:-
पपीते की रोपाई करने के 6 महीने तक विभिन्न प्रकार की सब्जियाँ को आसानी से अन्त: सस्यन के रूप में उगाया जा सकता हैं। दलहनी फसलों जैसे मटर, मैथी, चना, फ्रासबीन, लोबिया व सोयाबीन आदि बाग़ में उगाये जा सकते हैं। लेकिन मिर्च, टमाटर, भिन्डी आदि फसलों को पपीते के बीच में बिल्कुल नहीं उगाना चाहिये

फूल आना:-
पपीते के पौधे की रोपाई करने के 9-12 महीने बाद फल पककर तैयार हो जाते हैं। फल आने के 5-6 माह बाद फल पकते हैं।

फलों की तुड़ाई:-
पपीते के फल के शीर्ष भाग में जब पीलापन शुरू हो जाये तब डंठल सहित तुड़ाई कर लेनी चाहिये

उपज:-
पपीते की उपज किस्म तथा पौधे के रखरखाव पर निर्भर करती हैं। 30-35 किग्रा० फल प्रति एक पौधे से प्राप्त किये जा सकते हैं।

कीट:-
माहू:- यह कीट पौधे से रास चूसते हैं और पौधे को हानि पहुँचाते हैं तथा विषाणु रोग फ़ैलाने में मदद करते हैं।
रोकथाम:- इस कीट की रोकथाम के लिए डाईमेथोएट 30 प्रतिशत ई० सी० 1.5 मिली० या फास्फोमोडिडान 0.5 मिली० ग्राम प्रति एक लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करना चाहिये।
 
 
रोग:-
पदगलन:- यह बीमारी पिथियम फ्यूजेरियम नामक फफूँदी से होती हैं। रोगग्रस्त पौधों की बढ़वार रुक जाती हैं, पत्ती पीली पड़ जाती हैं तथा पौधा सड़ कर गिर जाता हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिए ग्रसित भाग को खुरचकर उस पर कॉपर ओक्सीक्लोराइड 3 ग्राम प्रति एक लीटर पानी में घोल कर तने के चारों तरफ की मिट्टी को तर कर देना चाहिये।
एंथ्रेकनोज:- इस बीमारी का प्रकोप पत्तियों व फलों पर होता हैं। पत्ती व फल की बढ़वार रुक जाती हैं तथा फल के ऊपर भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिए ब्लाईटाक्स 3 ग्राम या डाईथेन एम-45, 2 ग्राम प्रति एक लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिये।
तना सड़न:- यह कवक जनित रोग हैं। इसके प्रकोप से भूमि के पास तने की छाल सड़कर पनीली हो जाती हैं। पूरा पौधा सूख जाता हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिए बाग़ में जल निकास की उचित व्यवस्था होनी चाहिये। 5:5:50 का बोर्डो मिश्रण या 0.3 प्रतिशत सान्द्रता का ब्लाईटोक्स या कैप्टान का घोल बनाकर पौधे के चारों और की भूमि को तर कर देना। जिस स्थान पर सडन रोग लगी हो वहाँ 5:5:5 बोर्डो पेस्ट बनाकर लेप कर देना चाहिये।
मोजैक एवं पत्तियों का सिकुड़ना:- ये दोनों रोग विषाणु जनित हैं। रोगी पत्ती सिकुड़कर छोटी, झुर्रीदार तथा कुरूप हो जाती हैं। पत्ती की सतह खुरदुरी तथा उन पर फफोले पड़ जाते हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिए पपीते के बाग़ में कद्दू कुल के पौधों की खेती नहीं करनी चाहिये तथा रोगी पौधों को नष्ट कर देना चाहिये। इसका संक्रमण सफ़ेद मक्खी से होता हैं। मैलाथियान 0.1 प्रतिशत का घोल बनाकर 10-15 दिन के अन्तराल पर छिडकाव करना चाहिये।
जड़ सड़ने की बीमारी:- अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में फल छोटे होते हैं, और ऐसे पौधों की जड़ों को खोदकर देखा जाये तो जड़ों के अधिकांश भाग सड़े हुए होते हैं। यह पौधे की जड़ों के पास अधिक पानी भर जाने के कारण होता हैं जिससे पौधे फल नहीं दे पाते हैं। पपीते के लिए भूमि ऊँची होने के साथ-साथ ढलवां हो तो अच्छी रहती हैं।
रोकथाम:- जिन स्थानों पर जड़े सड़ने की सम्भावना हो वहाँ पर गड्ढों में कम्पोस्ट के साथ-साथ 100 ग्राम तूतिया तथा 1 किग्रा० चूना मिला देना चाहिये।

 
लिंग समस्या (Sex problem)
 

     फूलों के स्परूप के अनुसार पपीते को साधारणत: तीन वर्गों में विभाजित किया जाता हैं। नर, मादा, उभयलिंगी इसके फूलों का वर्णन निम्न प्रकार हैं-
  • नर फूल:- नर पौधे के फल लटके हुये पुष्पावलीवृन्त (Peduncle) पर पैदा होते हैं। ये मादा फूलों से बहुत पतले होते हैं। ये छोटी-छोटी नलिकाओं की तरह होते हैं तथा इनमें पुंकेसर पूर्ण रूप से विकसित रहता हैं। ये पाँच बड़े व् पाँच छोटे होते हैं। ये फूल कभी-कभी पत्तियों के कक्ष में अकेले या गुच्छों में छोटे डंठलों पर पैदा होते हैं। ये पौधे फल नहीं देते हैं।
  • मादा फूल:- ये फूल पत्तियों के कक्ष में छोटे डंठलों पर पैदा होते हैं। फूलों का आकार काफी बड़ा होता हैं। जो निचले सिरे पर घुंडीनुमा होता हैं। ये फल अकेले या तीन-तीन के गुच्छों में पैदा होते हैं।
  • उभयलिंगी फूल:- ये फूल दोनों के आकार में होते हैं। जिनमें नर और मादा दोनों अंग होते हैं। फूलों में पाँच पुंकेसर तथा अंडाशय पेन्टा होता हैं, इसलिये इनसे उत्पन्न फूलों में पाँच नालियाँ सी पायी जाती हैं। फल लम्बे आकार के होते हैं। फूल गुच्छे के रूप में पैदा होते हैं।
         प्रत्येक गड्ढे में दो या तीन पौधे लगाने चाहियें और इनकी दूरी 30 सेमी० होनी चाहिये। फूल आने पर पहचान कर पौधे उखाड़ देने चाहिये।

परागण क्रिया:-
पपीते की अच्छी फलन तथा बीज उत्पादन के लिए परागण क्रिया का होना अत्यन्त आवश्यक हैं। पपीते की खेती में नर पौधे रहने के कारण इसकी फलन अच्छी प्रकार से नहीं हो पाती हैं। किसान इसमें फलन न लगने के कारण बेकार समझकर काट देते हैं। अच्छी फलन के लिए पराग सेचन क्रिया आवश्यक हैं तथा अच्छे पराग सेचन के लिए पराग पैदा करने वाले नर पौधों का उचित संख्या में होना आवश्यक हैं। पपीते के बाग़ में 8-10 प्रतिशत नर पौधे होते हैं, जिन स्थानों पर परागण की संख्या हो वहाँ लाभदायक होता हैं।

 
पपीते के पपेन का उत्पादन
 
 
     पपीते की बागवानी फलों के अतिरिक्त पपेन के लिए भी की जाती हैं। पपेन कच्चे पपीते के फल का सुखाया हुआ दूध हैं। इसके विभिन्न उपयोग हैं। पपीते के औषधिक गुण इसी पपेन के कारण होते हैं क्योंकि यह पौधे के प्राय: प्रत्येक भाग में पाया जाता हैं, लेकिन सबसे अधिक कच्चे फलों के दूध में होता हैं। पपेन का आर्थिक उपयोग खाद्य पदार्थों जैसे मांस को गलाने, ट्यूना मछली के कलेजे से तेल निकलने, स्नोक्रीम व दन्तमंजन प्रसाधनों को बनाने, रेशम और रेयान से गोंद निकलने, उनको सिकोड़ने, चमड़े के संसाधन और शराब के कारखानों में काफी उपयोग होता हैं। यह बहुत से रोग जैसे उतकक्षय, अजीर्ण, पाचन सम्बन्धी रोगों से गोल कृमि संक्रमण, चमडो के धब्बे मिटाने , गुर्दे की बीमारियों के उपचार में प्रयुक्त किया जाता हैं।
 
जातियाँ:-
पपेन उत्पादन, पपीते के फल की पैदावर से सीधा सम्बन्ध हैं। कुछ उन्नत किस्में अधिक पपेन पैदा करती हैं जैसे- कोयम्बतूर-2, सिलोन, पूसा ड्वार्फ, पूसा डेलिशियस, पूसा मेजेस्टी आदि हैं।
 
पपेन उत्पादन की विधि:-
पपेन निकालने की विधि काफी सरल हैं, पपेन के लिए पपीते की बागवानी वैसे की की जाती हैं, जैसे फल लेने के लिए की जाती हैं। पपेन को हरे कच्चे फल से निकाला जाता हैं। इसके लिये आधे से तीन चौथाई विकसित फलों (फल लगने के 70-100 दिन बाद) का चयन करना चाहिये। दूध निकालने के लिए फल पर 0.3 सेमी० गहरे एक बार में चार चीरे सुबह 10 बजे से पहले लगते हैं। चीरे पूरे फल पर लगभग समान दूरी पर लगाने चाहिये। चीरे किसी स्टेनलेस स्टील के ब्लेड या तेज चाकू से लगाते हैं। चीरा लगते ही फल की सतह पर सफेद दूध निकलने लगता हैं जिसे धातु के बर्तन में इकट्ठा न करके किसी उचित चीनी, काँच, एल्युमिनियम या सुपाड़ी के स्पेथ में रखना चाहिये। चीरे के कुछ समय बाद तक दूध बहता रहता हैं और बाद में फल की सतह पर कुछ जम जाता हैं उसे भी खुरचकर इकट्ठा कर लेना चाहिये। चीरे लगाने की क्रिया 2-3 बार 3-4 दिन के अन्तर पर करनी चाहिये। इस तरह प्रत्येक फल में 12-16 दिन के अन्तर पर 3-4 बार चीरे लगाये जा सकते हैं, इस बीच में लगभग फल का सम्पूर्ण दूध निकल आता हैं।
     अच्छी प्रकार से पपेन बनाने के लिए दूध इकट्ठा करने के बाद सुखा लेना चाहिये। जल्दी सुखाने के लिए दूध का पानी किसी उचित चीज से दबाव डालकर निकाल दिया जाता हैं। यह सीधे धूप में या बनावटी बिजली के हीटर में 50-55 डिग्री से० तापमान पर सुखाया जाता हैं। तरल दूध में सुखाने से पहले 0.05 प्रतिशत पोटैशियम मेटा-बाई सल्फाइट मिलाने से इसका भण्डारण जीवन कुछ हद तक बढ़ जाता हैं। सुखाने की क्रिया तब तक जारी रखते हैं, जब तक पदार्थ शुष्क के रूप में न आने लगे।अधिक ताप या अधिक तेजी सुखाने पर पपेन का गुण खराब हो जाता हैं। सूखे हुए दूध को पीसकर बारीक़ चूर्ण में परिवर्तित कर लेते हैं और 10 मेश की छलनी से छान लेते हैं, इस तरह तैयार किये हुए चूर्ण को हवा बन्द बोतलों या पालीथीन की थैलियों में भरकर सील कर देते हैं। पपेन बनाने के लिए फलों से दूध इकट्ठा करने से उनके पकने एवं स्वाद पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता हैं, चीरा लगाने से फलों का बाहरी रूप बिगड़ जाता हैं। जिससे बाजार में कम दामों पर बिकता हैं। इस तरह के फलों को डिब्बा बन्दी या जैम, जैली, कैंडी, टॉफी इत्यादि लाभप्रद वस्तुओं के रूप में परिरक्षित किया जा सकता हैं।
 
शस्य क्रियाएँ:-
उचित शस्य क्रियाओं का पपेन उत्पादन पर अच्छा प्रभाव पड़ता हैं, इसलिये पपेन उत्पादन के लिए उचित शस्य प्रणाली अपनानी चाहिये। पपीता ऐसे समय लगाना चाहिये ताकि, बरसात शुरू होते हिं फलना-फूलना शरू कर दे तथा लगातार 4-5 महीने तक फलता रहे, इसके लिए अगस्त माह में बिज नर्सरी में बो दना चाहिये। पपीते को जिस खेत में लगाना हैं उस खेत में 60 घन सेमी० का गहरा गड्ढा गर्मी के मौसम में खोदकर 15-20 दिनों तक खुला छोड़ देना चाहिये। इसके बाद प्रत्येक गड्ढे में 20 किग्रा० कम्पोस्ट, 1 किग्रा० खली, 1 किग्रा० बोनमील मिलाकर पौधा लगाने से कम से कम दो महीना पहले बहार देना चाहिये। कुछ किस्मों में नर पौधे नहीं निकलते हैं, जैसे पूसा डेलिसियस और पूसा मेजेस्टी इनके प्रत्येक गड्ढे पर एक-एक पौधा लगाना चाहिये। जिन किस्मों में नर पौधे निकलते हैं, जैसे पूसा ड्वार्फ, होमस्टीड तथा को-2 इनके 3-3 पौधे एक-एक गड्ढे में लगाने चाहिये। मानसून प्रारम्भ होने पर जैसे ही लिंग भेद स्पष्ट हो, प्रत्येक गड्ढे से अतिरिक्त नर पौधे को हटा देना चाहिये। इसके बाद प्रत्येक पौधे मैं 200 ग्राम नाइट्रोजन, 200 ग्राम फॉस्फोरस तथा 250 ग्राम पोटाश दो भागों में बाँटकर देना चाहिये। इसका पहला भाग मानसून प्रारम्भ होते ही देना चाहिये, तथा दूसरा भाग मानसून के अन्त में देना चाहिये। नाइट्रोजन का दूसरा भाग सीधे जमीन में न देकर यूरिया का घोल बनाकर पौधे पर छिड़कने से पपेन का उत्पादन बढ़ता हैं। यह छिडकाव 15 दिनों के अन्तर पर करना चाहिये। पपेन उत्पादन बढ़ाने के लिए फव्वारे विधि से सिंचाई करनी चाहिये। बाग में फूल खिलते समय वृद्धि नियामक जैसे 2,4-डी० (10 पी० पी० एम०), 2, 5-टी (25 पी० पी० एम०), एन० ए० ए० (50 पी० पी० एम०), जिब्रेलिक एसिड (10 पी० पी० एम०) छिड़कने से पपेन का उत्पादन बढ़ता हैं। इन वृद्धि नियामकों को यूरिया के घोल के साथ छिड़कने से समय एवं खर्च की बचत होती हैं।
 
पपेन की पैदावर:-
पपेन उत्पादन, जाति का शस्य प्रणाली के अनुसार घटता-बढ़ता हैं। एक फल से 3-10 ग्राम सूखा पपेन प्राप्त होता हैं, पपेन की पैदावर प्रति पौधा 0.225 किग्रा० से 0.475 तक पाई गई हैं। इस प्रकार एक पेड़ जिसमे लगभग 40-50 फल लगे हों तो एक हेक्टेयर में पेड़ों की संख्या 2 हजार हो, 5 कुन्तल पपेन का उत्पादन हो सकता हैं। हालाँकि पपेन की कीमत में काफी उतार-चढाव होता रहता हैं। यह 50 रूपये से लेकर 100 रूपये प्रति एक किलोग्राम तक बिकता हैं। लेकिन यदि रूपये 70 प्रति एक किलोग्राम मान ली जाये तो पपेन से ही रूपये 35,000 हजार प्रति एक हेक्टेयर की आमदनी की जा सकती हैं। भारत में महाराष्ट्र और गुजरात में पपीते की खेती अधिकतर पपेन उत्पन्न करने की लिए ही की जाती हैं।
 
 
 


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