बुधवार, 8 नवंबर 2017

अमरुद

अमरुद (Guava)
 
वैज्ञानिक नाम (Botanical name):-              (Psidium guajava L.)
कुल (Family) :-                                        (Myrtaceae)
गुणसूत्र संख्या (Chromosome number):-   2n =  22


अमरुद:-
अमरुद भारत का लोकप्रिय फल हैं। क्षेत्रफल और उत्पादन की द्रष्टि से देश में उगाये जाने वाले फलों में इसका चौथा स्थान हैं। इसमें पोषक तत्त्व प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। पोषक तत्वों की अधिकता के कारण इसको गरीबों का "सेब" भी कहते हैं। अमरुद की व्यावसायिक बागवानी विशेष रूप से उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, बंगाल और गुजरात में होती हैं। उत्तर प्रदेश का इलाहाबादी क्षेत्र अच्छी गुणयुक्त सफ़ेद किस्म पैदा करने के लिए विश्वविख्यात हैं। प्रदेश के सम्पूर्ण क्षेत्रफल का 18 प्रतिशत से भी अधिक भाग इलाहबाद क्षेत्र में हैं।

उत्पत्ति:-
अमरुद का मूल स्थान उष्णकटिबंधीय अमेरिका हैं। विशेषतया मैक्सिको से पेरू क्षेत्र को इसका मूल स्थान माना जाता हैं। सबसे पहले यूरोप के अन्वेषकों ने इसे मैक्सिको और पेरू के मध्य क्षेत्रों में उगते पाया। यहाँ से यह संसार के अन्य भागों में फैला। भारत में अमरुद 16वीं शताब्दी से स्पेन वासियों द्वारा लाया गया हैं। बहुत से लोग अमरुद को भारतीय फल समझते हैं। भारत में यह उत्तर से लेकर दक्षिण भारत तक फैला हैं।

जलवायु:-
अमरुद 30 डिग्री से० पर तापमान पर अच्छी वृद्धि करता हैं तथा इसके लिए 15 डिग्री से० की न्यूनतम तापमान की आवश्यकता होती हैं। जिन इलाकों में जाड़ों में अधिक जाड़ा व गर्मियों में अधिक गर्मी पड़ती हो तो वहाँ इसके फलों का स्वाद अच्छा होता हैं।

भूमि:-

अमरुद को प्रत्येक प्रकार की भूमि में उगाया जा सकता हैं। परन्तु अच्छे उत्पादन के लिए गहरी बलुई दोमट मिट्टी अच्छी रहती हैं जिसका पी० एच० मान 6.5 - 7 हो, इसके लिए उपयुक्त होती हैं। अत: इसकी बागवानी 4.5-9.0 पी० एच० मान वाली भूमियों (क्षारीय भूमि) में भी की जा सकती हैं। परन्तु 7.5 पी० एच० मान के ऊपर वाली भूमि म्लानि (उकठा) रोग के प्रकोप की सम्भावना बढ़ा देती हैं।

प्रजातियाँ:-
अमरुद की मुख्य जातियाँ निम्न प्रकार हैं- चित्तीदार, सेब अमरुद, बीज रहती अमरुद, इलाहाबादी सफेदा, लखनऊ-49, करेला, नासिक, धारवार, धोलका, धारीदार, हरीजा, बेदाना, लाल अमरुद, एपिकलर, बनारसी सुर्ख, बेहटकोकोनट, सुप्रीम माइल्ड फ्लेस्ड, सफेद जय, कोहीर सफेद आदि मुख्य किस्में हैं।

पौध तैयार करना (प्रवर्धन):-
अमरुद के पौधे दो तरह से तैयार किये जाते हैं। जो निम्न प्रकार दिए गये हैं -
  • बीज द्वारा:- हमारे देश में बीज द्वारा पौधे तैयार करने की विधि प्रचलित हैं। परन्तु एक ही फल से प्राप्त बीजों से उगाये गये पेड़ों में भी काफी भिन्नता पायी गयी हैं तथा पौधों के पैतृक गुणों में भी परिवर्तन आ जाता हैं। इसलिये पौधे वानस्पतिक विधि से तैयार करने चाहिये।
  • वानस्पतिक द्वारा:- वानस्पतिक द्वारा पौधे तैयार करने की चार विधियाँ हैं जो निम्न प्रकार हैं-
  1. भेंट कलम (इनर्चिंग):- यह अमरुद के प्रसारण की बहुत सरल तथा पुरानी विधि हैं। इस विधि में एक-डेढ़ वर्ष पुराने बीजू पौधे को मूल वृक्ष के समीप लाया जाता हैं। मूल वृक्ष पर मूल वृन्त के समान मोटी तथा स्वस्थ टहनी का चुनाव करते हैं। चुनी हुई टहनी तथा मूल वृन्त वाले पौधे में 23 सेमी० की ऊँचाई पर 4-5 सेमी० लम्बी थोड़ी लकड़ी सहित छाल उतार लेते है फिर दोनों कटे भागों को मिलाकर पोलीथिन टेप से अच्छी तरह से बाँध दिया जाता हैं। लगभग 2 माह बाद जब दोनों शाखायें परस्पर जुड़ जाये तब मूल वृन्त की टहनी को जोड़ के ठीक नीचे से और बीजू पौधे के ठीक ऊपर से काट दिया जाता हैं। इस प्रकार कलमी पौधा तैयार हो जाता हैं। भेंट कलम जून-जुलाई में बांधी जाती हैं। इसमें 80-85 प्रतिशत सफलता मिलती हैं।
  2. विनियर कलम:- इसमें मूल वृक्ष के रूप में एक महीने की आयु वाले इकहरे तने लिए जाते हैं और कली को विकसित करने के लिए इस तने को पत्ती रहित कर दिया जाता हैं। मूल वृन्त तथा साइन, दोनों शाखाओं को 4-5 सेमी० की लम्बाई तक तिरछा काट दिया जाता हैं और फिर दोनों को जोड़कर अल्कायीन की पट्टी से अच्छी तरह बाँध देना चाहिये। जब अंकुर निकलने लगे तो मूल वृन्त को ऊपर से काट दिया जाता हैं। कलम अप्रैल-जून तक बाँधी जाती हैं। इसमें 80-82 प्रतिशत सफलता मिलती हैं।
  3. स्टूलिंग:- जिन किस्मों का प्रसारण करना होता हैं उन किस्मों के पौधों का चुनाव किया जाता हैं जिनकी आयु डेढ़ से दो वर्ष हो तथा तनों की मोटाई कम से कम 2.5 सेमी० हो, जमीन से 10-12 सेमी० छोड़कर काट दिया जाता हैं। यह कार्य मार्च में किया जाता हैं। कटे भाग के नीचे नये प्ररोह निकलते हैं। लगभग दो महीने पुराने प्ररोह (जिनकी लम्बाई 20-22 सेमी०) के निचले भाग में 2 सेमी० चौड़ा छल्ला के रूप में छिलका उतार कर उस पर 2000 पी० पी० एम०, इन्डोल ब्यूटारिक एसिड को लिनोलिन पेस्ट में मिलाकर लगा दिया जाता हैं। इस छल्ले के 10 सेमी० ऊपर तक मिट्टी चढ़ा दी जाती हैं। पानी द्वारा मिट्टी को नम रखा जाता हैं। इस जगह से लगभग डेढ़ माह बाद जड़े निकलती हैं। इन जड़ों वाले पौधों को अलग करके उचित स्थान पर लगा दिया जाता हैं। इस प्रकार बरसात के अन्त तक बहुत से पौधे तैयार हो जाते हैं। यह सबसे सरल व आधुनिक विधि हैं।
  4. गूटी:- इस विधि से बेदाना किस्मों का प्रसारण किया जाता हैं। इसमें अमरुद की 5-7 माह पुरानी शाखा पर 20 सेमी० पीछे की तरफ लगभग 2.5-3 सेमी० चौड़ी छाल छल्ले के आकार में उतार देते हैं। इस कटे भाग पर 2000 पी० पी० एम०, इन्डोल ब्यूटारिक एसिड को लिनोलिन पेस्ट में मिलाकर लगा दिया जाता हैं। इसके बाद मोस घास से ढ़ककर अल्काथीन से बाँध दिया जाता हैं। लगभग 20 दिन में जड़े निकल आती हैं। गूटी बाँधनें का समय जुलाई-अगस्त हैं।
               जून-जुलाई तथा सिंचित क्षेत्रों में फरवरी-मार्च में पौधों को 6 X 6 मीटर की दूरी पर लगा दिया जाता हैं।

कृन्तन:-
प्रारम्भ में भूमिगत से 45-50 सेमी० ऊँचाई तक निकली हुई शाखाओं को निकाल देना चाहिये। बाद में विशेष काँट-छाँट की जरूरत नहीं होती हैं। परन्तु सूखी, रोगग्रस्त शाखाओं के काटते रहने से नई वृद्धि प्रोत्साहित होती हैं। जिससे उपज पर अच्छा प्रभाव पड़ता हैं।

उर्वरक:-
पहले वर्ष में 50 ग्राम नाइट्रोजन, 30 ग्राम फॉस्फोरस और 50 ग्राम पोटाश प्रति पेड़ के हिसाब से देना चाहिये। आगामी 7 वर्षों तक उर्वरकों की मात्रा को बढ़ाया जायेगा। उर्वरकों को जो मात्रा पहले वर्ष में दी गई हैं, दुसरे वर्ष में उसकी दुगनी व तीसरे वर्ष में तीनगुनी हो जायेगी। इस प्रकार सातवें वर्ष 350 ग्राम नाइट्रोजन, 210 ग्राम फॉस्फोरस और 350 ग्राम पोटाश प्रति पेड़ दिया जाता हैं। यही मात्रा आगामी दो वर्षों तक डी जायेगी।
फॉस्फोरस की सम्पूर्ण मात्रा पेड़ के चारों और फैलाव में 30 सेमी० की गहराई की नालियाँ बनाकर देना चाहिये। नाइट्रोजन व पोटाश पेड़ के चारों और छिटक कर हल्की गुड़ाई कर देनी चाहिये। फॉस्फोरस और पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा तथा नाइट्रोजन की आधी मात्रा जुलाई में तथा नाइट्रोजन की शेष मात्रा सितम्बर-अक्टूबर में देनी चाहिये।

सिंचाई:-
अमरुद की बागवानी में आवश्यकतानुसार सिंचाई करनी चाहिये। गर्मियों में नये रोपित पौधों में 7-10 तथा पुराने बगीचों में 12-15 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करते रहना चाहिये।

अन्त: सस्यन:-
शुरू के दो-तीन वर्षों में बाग के रिक्त स्थानों में रबी में गोभी, मटर, फ्रेंचबीन और मैथी, खरीफ में लोबिया, उर्द, ग्वार, मूंग तथा जायद में लोबिया और कद्दू वर्गीय सब्जियाँ उगाई जा सकती हैं।

फूल आना:-
अमरुद में वर्ष में तीन बार फूल आते हैं। मार्च-अप्रैल, जुलाई-अगस्त तथा अक्तूबर-नवम्बर में फूल आते हैं। लेकिन व्यावसायिक फसल जुलाई-अगस्त में आने वाले फूल से ही लेनी चाहिये। फूल पुष्पन के 4-5 माह बाद पक कर तैयार हो जाते हैं।

फल तोड़ना:-
पौधा लगाने के दो वर्ष बाद ही फल आना शुरू हो जाते हैं परन्तु इस समय कोई फसल नहीं लेनी चाहिये। तीन वर्ष तक फल आते ही उन्हें तोड़ देना चाहिये। पौधों से चार वर्ष बाद ही फल लेना चाहिये। अमरुद की अच्छी तरह से देख-रेख करने से 40 वर्ष तक फसल प्राप्त की जा सकती हैं। 15-25 वर्ष की अवस्था अधिक उपज देने की होती हैं।
     जब फल गहरा हरा रंग छोड़कर पीले-हरे रंग के हो जायें तब उन्हें तोड़ लिया जाता हैं। बरसात की फसल दुसरे-तीसरे दिन तोड़ी जाती हैं। इसके विपरीत जाड़े की फसल 4-5 दिन बाद तोड़ी जाती हैं। बसन्त ऋतु की फसल को प्रत्येक 4 दिन बाद तोड़ा जा सकता हैं।

उपज:-
अमरुद के बीजू पौधे से औसतन पैदावर  90 किग्रा० व कलमी पौधों से 350 किग्रा० प्रति एक पेड़ तक प्राप्त की जा सकती हैं।

कीट:-
फल मक्खी:- इसके आक्रमण से फल सड़ जाते हैं। और फल टूटकर गिर जाते हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिए 0.1 प्रतिशत मैलाथियान को 1 प्रतिशत वाले गुड़ के घोल में मिलाकर छिड़काव करना चाहिये।
छाल खाने वाला कीट:- यह कीट मुख्य शाखा तथा अन्य शाखाओं में छेद करके, छाल खाकर कमजोर कर देता हैं तथा छिद्र के पास काला अवशेष छोड़ता हैं। जिसे आसानी से पहचाना जा सकता हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकताहम के लिए अवशेषों को साफ कर देना चाहिए तथा तने में बने छिद्रों में क्लोरोफॉर्म, एल्ड्रीन, मिट्टी का तेल या सेल्फास की गोली भरकर मिट्टी से बन्द कर देते हैं।
स्केल:- यह कीट पत्तियों तथा मुलायम प्ररोह का रस चूस कर कमजोर कर देता हैं।
रोकथाम:- नयी वृद्धि के समय 1.5 मिली० रोगोर या 1 मिली० मेटासिस्टोक्स प्रति एक लीटर पानी में घोल कर छिडकाव करना चाहिये।

रोग:-
उकठा रोग:- यह बहुत ही खतरनाक रोग हैं। एक बार बाग में लगने से कुछ सालों में पूरा बाग नष्ट हो जाता हैं। शाखायें टहनियाँ एक-एक करके ऊपरी भाग से सूखना आरम्भ करती हैं और नीचे की तरफ सूखती चली जाती हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिए उकठा रोधी किस्म लखनऊ-49 को उगाना चाहिये।
एन्थ्रोकनोज:- शुरू में फलों पर काले-काले चित्ते फल आते हैं और इनकी वृद्धि रुक जाती हैं। कभी-कभी गुलाबी रंग का श्राव निकलने लगता हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिए डाईथेन जेड-78 2 प्रतिशत का घोल बनाकर जून में 15 दिन के अन्तराल पर छिडकाव करना चाहिये।
कैन्कर:- यह रोग बेक्टिरियल द्वारा वर्षा ऋतु की फसल पर अधिक लगता हैं।
इसमें फलों पर गोल,कठोर व काले धब्बे पड़ जाते हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिए 2:2:50 बोर्डो मिश्रण का छिडकाव दो माह के अन्तर पर करना चाहिये।

फाइनल 

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