शनिवार, 21 अक्तूबर 2017

टमाटर (Tomata)

टमाटर (Tomata)
 
वैज्ञानिक नाम (Botanical name):-         लाईकोपरसिकोन एस्कुलेंटम (Lycopersicon esculentum mill)
कुल (Family) :-                                    सोलेनेसी (Solanaceae)।
गुणसूत्र संख्या(Chromosome number):- 2n = 24

टमाटर:-
पौष्टिक सब्जियों में टमाटर का महत्वपूर्ण स्थान हैं। इसे विलायती बैंगन भी कहते हैं। पका हुआ टमाटर सब्जी के अतिरिक्त फल की भांति भी प्रयोग किया जा सकता हैं। भाजी के अतिरिक्त टमाटर की चटनी, केचप, सलाद, रस आदि निर्माण करके भविष्य में प्रयोग हेतु सुरक्षित रख सकते हैं। अधिक गूदेदार टमाटर की डिब्बाबंदी भी की जाती हैं।
 
उत्पत्ती:-
टमाटर की उत्पत्ती उष्ण कटिबंधीय अमेरिका में पेरू व् मैक्सिको क्षेत्र में मानी जाती हैं। मैक्सिको में इसे जिटा टोमेटो कहा जाता हैं जो बाद में टमेटो हो गया। लगभग सोलहवीं शताब्दी में स्पेनवासियों द्वारा इसे यूरोप में लाया गया। फिर यूरोपवासियों द्वारा इसे अमेरिका तथा कनाड़ा में लाया गया। भारत में यह पुर्तगालियों द्वारा लाया गया और पिछले दस दशकों में ही यह सब्जी के रूप में लोकप्रिय हो गया।
 
जलवायु:-
 टमाटर की फसल को अधिक गरमाहट से भरपूर वातावरण अधिक प्रिय हैं। ठण्ड अधिक होने पर फल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हैं। फलों की अपेक्षा पत्तियाँ अधिक ठण्ड सहन कर लेती हैं। अधिक वर्षा होने पर पौधों में मोजेक रोग का आक्रमण होता हैं।
 
भूमि:-
टमाटर की फसल को सभी प्रकार की भूमि में उगाया जा सकता हैं। टमाटर की फसल के लिये उचित जल निकास वाली दोमट मिट्टी सर्वोत्तम हैं। टमाटर की फसल के लिए मृदा का पी० एच० मान 6-7 उपयुक्त होता हैं।
 
भूमि की तैयारी:-
खेत में सबसे पहले मिट्टी पलटने वाले हल से गहरी जुताई करनी चाहिये। उसके बाद हैरों या देशी हल से 2-3 जुताई करके मिट्टी भुरभुरी कर लेनी चाहिये। फिर पाटा चलाकर खेत को समतल कर लेता हैं जिससे सिंचाई करते समय कठिनाई ना हो।
 
बोने का समय:-
मैदानी भागों में टमाटर जून के अन्त से लेकर नवम्बर तक बोया जाता हैं। जिन क्षेत्रों में मौसम शीघ्र ठण्डा होने लगता हैं। वहाँ पर सबसे अगेती फसल जून से जुलाई के मध्य तक बोयी जाती हैं। और जहाँ ठण्ड देर से होती हैं उन क्षेत्रों में मध्य जुलाई से मध्य अगस्त तक बोई जा सकती हैं। दूसरी अगेती फसल मध्य अगस्त से मध्य अक्तूबर तथा तीसरी फसल का बिज मध्य अक्तूबर से नवम्बर तक बोया जाता हैं। पहाड़ी क्षेत्रों में यह मार्च से मई तक बोया जाता हैं। उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में टमाटर की मुख्य रूप से दो फसल ली जाती हैं-
  • बरसात की फसल:- जून से जुलाई में पौध तैयार करके जुलाई से अगस्त तक पौधा रोपण का कार्य किया जा सकता हैं। फल अक्तूबर से नवम्बर तक तैयार हो जाता हैं।
  • सर्दी की फसल:- अक्तूबर में पौध तैयार करके नवम्बर में पौधा रोपण का कार्य की जा सकता हैं। इस समय संकर किस्मों को लगाना लाभदायक होता हैं। फल जनवरी से लेकर अप्रैल तक उपलब्ध होते हैं।
 
बीज दर:-
टमाटर का बीज 400 से 500 ग्राम और संकर किस्म का बीज 100 से 150 ग्राम प्रति एक हेक्टेयर की दर से लगता हैं। टमाटर का बीज 4 वर्ष तक अंकुरण की क्षमता रखता हैं। 25 ग्राम में लगभग 8000 से 9000 बीज होते हैं। इसका बीज सब सब्जियों से हल्का होता हैं। अच्छा बीज 85-90 प्रतिशत तक अंकुरण करता हैं।

प्रजातियाँ:-
  • बरसात की किस्म:-
  • र्दी की फसल:- कल्यानपुर टा०-2, आजाद टा०-2, कल्यानपुर अंगूरलता, पूसा गौरव,
  • बौनी किस्म:- पूसा अर्ली ड्वार्फ, रोमा, एच० एस०-102 (पूसा अर्ली ड्वार्फ X एस०-12), एच० एस-101 (सलैक्शन 2-3 X एक विदेशी जाति),
  • फैलने वाली किस्म:- सू, पूसा रेड प्लम,
  • मध्यम फैलने वाली किस्म:- अर्का सौरभ,
  • संकर किस्म:- स्वर्ण वैभव, अविनाश-2, रुपाली,
  • अन्य किस्म:- पन्तटमाटर-1, आजाद टा०-3, पंजाब छुआरा, पूसा रूबी, पंजाब केसरी, पूसा शीतल, काशी अमृत, काशी अनुपम, काशी, पूसा आदि मुख्या किस्म हैं।
 
पौध तैयार करना:-
बीज बोने के लिये 15 सेमी० ऊँची उठी हुई क्यारी, चौड़ाई 1 मीटर और लम्बाई आवश्यकतानुसार होनी चाहिये। बीज बालू, रेत या राख के साथ मिलाकर छिटककर बो दिया जाता हैं या बीज की बुवाई पंक्तिमें भी कर सकते हैं। बीज को 1.5 से 2 सेमी० गहराई पर बोते हैं। बोने के तुरन्त बाद फुव्वारे से पानी देना चाहिये। एक हेक्टेयर भूमि में रोपाई करने के लिए लगभग 150 वर्ग मीटर पौध क्षेत्र पर्याप्त हैं। अंकुरण के समय पौधों की कड़ी धूप व् वर्षा से रक्षा करनी चाहिये। अंकुरण लगभग 20 दिन में दिखाई देना लगता हैं। जब पौधे एक सप्ताह के हो जायें तो उन पर बावस्टीन 2 ग्राम प्रति एक लीटर पानी का घोल बनाकर छिडकाव करना चाहिये। पौधशाला में पत्तियों पर कभी-कभी कीट का प्रकोप हो जाता हैं उसके लिये मोनोक्रोटोफ़ॉस 2 मिलीग्राम प्रति 1 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करना चाहिये। सिंचाई आवश्यकतानुसार करनी चाहिये अधिक सिंचाई करने से पौधे शीघ्र बढ़कर कोमल हो जाते हैं जिससे रोपाई के बाद पौधे शीघ्र संभल नहीं पाते हैं। 4-6 सप्ताह के पौधे की रोपाई की जाती हैं।
 
पौध रोपण:-
 पौधों को खेत में हमेशा शाम के समय लगाना चाहिये। जब पौधे 5-6 पत्ती के और ऊँचाई 15-20 सेमी० की हो जाये तब रोपाई करनी चाहिये। रोपण के लिए 60 सेमी० चौड़ी तथा जमीन की सतह से 20 सेमी० ऊँची उठी हुई क्यारी बनानी चाहिये, जिनके दोनों तरफ 20 सेमी० चौड़ी नाली बनाई जाती हैं। बनाई गयी क्यारी में पौधों की रोपाई की जाती हैं। पौधे से पौधे की दूरी 30 सेमी० होनी चाहिये। रोपाई के बाद नाली में हल्की सिंचाई कर देनी चाहिये जिससे पौधे अच्छी तरह से स्थापित हो जाते हैं। बरसात की फसल की रोपाई ऊँचे थालों या मेंड़ों पर करना बहुत अच्छा रहता हैं।

खाद एवं उर्वरक:-
खेत की तैयारी करते समय गोबर की सड़ी हुई खाद 200 कुन्तल प्रति हेक्टेयर की दर फैलाकर भूमि में अच्छे से मिलाना चाहिये। इसके अलावा रोपण के समय नाइट्रोजन 150 किग्रा०, फॉस्फोरस 60 किग्रा० और पोटाश 60 किग्रा० प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिये। नाइट्रोजन की आधी मात्रा रोपण के समय और शेष मात्रा रोपण के बाद दो बार में देनी हैं। पहली मात्रा रोपाई के 30 दिन और दूसरी मात्रा 60 दिन बाद देनी हैं।
 
सिंचाई:-
पहली सिंचाई रोपण के तुरन्त बाद की जाती हैं। बाद की सिंचाई आवश्यकतानुसार 20-25 दिन के अन्तराल पर की जाती हैं।
 
खरपतवार नियन्त्रण:-
टमाटर की फसल के अच्छे उत्पादन के लिए समय-समय पर निराई-गुड़ाई करके खरपतवार को नष्ट कर देना चाहिये। इसके अलावा रोपाई के 1 से 2 दिन बाद पेंन्डीमेथीलीन 3.3 लीटर मात्रा 1000 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव कर सकते हैं।
 
निराई-गुड़ाई:-
रोपाई के बाद पहली निराई-गुड़ाई 20-25 दिन बाद दूसरी 40-45 दिन बाद निराई-गुड़ाई करनी चाहिये। प्रत्येक निराई-गुड़ाई के बाद पौधों पर मिट्टी चढ़ाना आवश्यक हैं।

कीट:-
फल भेधक सुंडी:- प्रौढ़ कीट मध्यम आकार का पीले भूरे रंग का होता हैं। इसके पृष्ठ भाव व् दोनों किनारों पर एक-एक हल्की पिली धारी होती हैं। इसके पृष्ठ भाग के दोनों किनारे हरे या काले रंग के होते हैं। यह अप्रैल से सितम्बर तक हानि पहुँचाता हैं। इसकी सुंडी कच्चे तथा पके टमाटर में छेद करके अन्दर का गूदा खा जाती हैं।
रोकथाम:- मैलाथियान 50 प्रतिशत ई० सी० 1 लीटर, सेविन 50 प्रतिशत डबल्यू०पी० 2 किग्रा० या थायोडान 35 प्रतिशत ई० सी० 1.5 किग्रा० प्रति एक हेक्टेयर की दर से पानी में घोलकर छिडकाव करना चाहिये।
चूर्णी बेग:- छोटे व प्रौढ़ कीट पत्ती, उनके वृत्तों व् मुलामय प्ररोहों से रस चूसते हैं। इनका प्रकोप नवम्बर तक अधिक रहता हैं।
रोकथाम:- मैलाथियान 50 प्रतिशत ई० सी० या एन्डोसल्फान 0.04 प्रतिशत का घोल बनाकर छिडकाव करना चाहिये।

रोग:-
डैम्पिंग ऑफ:- इसका प्रकोप मुख्यत: नर्सरी में पौध पर भूमि के समीप तने पर होता हैं। जिससे पौध गिर जाती हैं। यह पिथियम स्पीसीज या राइजोकटिनिया स्पीसीज या फाइटोफथोरा स्पीसीज द्वारा होता हैं।
रोकथाम:- इस रोग से पौधे को बचाने के लिये नर्सरी की मिट्टी स्टरलाईज और बीज बोने से पहले किसी भी कॉपर कम्पाउंड से उपचारित कर लेना चाहिये।
अर्ली ब्लाइट अगेती झुलसा:- यह आल्टरनेरिया सोलेनाई नामक फफूँदी से होता हैं। पौधों की पत्तियों व तने पर भूरे व  काले रंग के धब्बे पड़ जाते हैं। रोग का प्रकोप अधिक होने पर फल गिरने लगते हैं। पौधा सुख जाता हैं।
रोकथाम:- रोगग्रस्त बीज का प्रयोग नहीं करना चाहिये। कॉपर कम्पाउंड का बार-बार छिडकाव करके इस रोग से रोकथाम की जा सकती हैं। कॉपर ओक्सीक्लोराइड 50 प्रतिशत डबल्यू०पी० 3 ग्राम प्रति एक लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करना चाहिये।
लीफ कर्ल:- इस रोग में पत्तियाँ सिकुड़ कर मुड़ जाती हैं। पत्तियाँ खुरदुरी व् मोटी हो जाती हैं। यह रोग बरसात के मौसम में अधिक लगता हैं। जो सफ़ेद मक्खी के द्वारा फैलता हैं।
रोकथाम:- मोनोक्रोटोफॉस 36 प्रतिशत एस० एल० 2 मिली० प्रति एक लीटर या मेटासिस्टोक्स 25 प्रतिशत ई० सी० 1 लीटर मात्रा 1000 लीटर पानी में घोलकर 3-4 बार छिडकाव करना चाहिये।
फ्रूटरॉट:- यह फाइटोफथोरा स्पीसीज द्वारा होता हैं। जिस स्थान से फल भूमि के सम्पर्क में आ जाता हैं उस स्थान पर भूरे रंग के फलों पर धब्बे पड़ जाते हैं तथा फल सड़ जाता हैं।
रोकथाम:- भूमि का जल निकास अच्छा होना चाहिये। पौधों को मेड़ों पर और लकड़ियों के सहारे चढ़ाना चाहिये। पौधों पर बोर्डो मिश्रण का छिडकाव करना लाभकारी होता हैं।
रूट नॉट नेमोटोडस:- इस रोग का आक्रमण जड़ों पर होता हैं।
रोकथाम:- भूमि को शोधित करके बुवाई करनी चाहिये। रोग अवरोधी किस्म की बुवाई करनी चाहिये।

पौधों की संघाई:-
टमाटर की अधिकतर प्रजातियाँ फैलने वाली होती हैं जिससे शाखायें भूमि के ऊपर गिर जाती हैं। इस कारण हवा और प्रकाश न मिलने के कारण तथा फलों का सिंचाई के पानी में पड़े रहने के कारण फल रोगग्रस्त हो जाते हैं। इसे अलावा फलों में आकर्षण रंग भी नहीं आता हैं। इसके लिये पौधों को कम से कम 3-4 सेमी० मोटी लकड़ी का सहारा देना चाहिये। जिससे पौधे पूर्ण रूप से प्रकाश पाकर फल आकर में बड़े और आकर्षक होते हैं।
 
फल लगना:-
बसन्त ऋतु के प्रारम्भ में कम तापक्रम और शरद ऋतु से पहले अधिक तापक्रम रहने से फल कम लगते हैं। जिन दिनों में रात्रि का तापक्रम 13 डिग्री फे० से कम और 38 डिग्री फे० से अधिक होने लगता हैं तब पराग सेचन व् फल लगने पर बुरा प्रभाव पड़ता हैं। अच्छी फलत, अगेती फसल तैयार होने, फलों में कम बिज होने और अच्छी अच्छी उपज के लिये- पैरा-क्लोरीफीनोक्सी एसीटिक एसिड 15-50 पी० पी० एम०, 2-4 डाईक्लोरोफीनोक्सी एसीटिक एसिड 1-5 पी० पी० एम०, जिब्रेलिक एसिड 50 पी० पी० एम०, सी० आई० पी० पी० 25 पी० पी० एम०, एन० ओ० ए० 50-100 पी० पी० एम० आदि हार्मोन्स का प्रयोग बहुत लाभकारी होता हैं।

फलों की तुड़ाई:-
टमाटर का फल लगभग 1 माह में पकने लगता हैं। तुरन्त प्रयोग करने के लिये फल पूर्णरूप से सुर्ख हो जाने पर ही तोड़ना चाहिये। दूर भेजने के लिए फलों की तुड़ाई तब करते हैं जब फल पर ललाई आने लगती हैं।
 
उपज:-
टमाटर की उपज 300-400 कुन्तल प्रति एक हेक्टेयर होती हैं।
 
भण्डारण:-
समीप वाले बाजारों में टमाटर शाम को तोड़कर सुबह को भेज दिया जाता हैं। टमाटर के लिये संग्रह घर का तापक्रम 12 से 15 डिग्री से० होना चाहिये। परिपक्व हरे टमाटर संग्रह घर में 10 से 15 डिग्री से० पर लगभग एक माह तक रखे जा सकते हैं। पके हुये टमाटर लगभग 10 दिन तक 4.5 डिग्री से० तापक्रम पर रखे जा सकते हैं।

बीज उत्पादन:-
बीजों में मुख्य रूप से स्व-परागण होता हैं, किन्तु कीटों द्वारा कुछ अंशों में पर-परागण भी होता हैं। अंत: दो किस्मों के बीच 200 मीटर की दूरी रखनी चाहिये। फसल का तीन बार निरिक्षण किया जाता हैं। पहला फूल आने से पहले, दूसरा फूल आने के समय एवं तीसरा फलों की पूर्ण वृद्धि हो जाने पर करते हैं। स्वस्थ फल को बिज के लिए पौधों पर ही छोड़ दिया जाता हैं। पकने पर उन्हें तोड़ लिया जाता हैं। फल का बाहरी छिलका हटा देते हैं तथा फल को छोटे-छोटे भागों में काट लेते हैं। इस प्रकार बीज गूदे से आसानी से निकल जाते हैं इसके बाद बीजों को पानी में डूबा देते हैं। हल्के बीज पानी में तैरने लगते हैं। उन्हें छानकर हटा देते हैं। अब बीजों को हल्की धूप में सुखाते हैं। इसकी औसत उपज 125 से 200 किलोग्राम प्रति एक हेक्टेयर होती हैं।

final

 

मंगलवार, 17 अक्तूबर 2017

भिण्डी (Okra)

भिण्डी (Okra)
 
वैज्ञानिक नाम (Botanical name):-             एबेलमोलकस एस्कुलेंटस (Abelmoschus esculentus)
कुल (Family) :-                                        मालवेसी (Malvaceae)
गुणसूत्र संख्या (Chromosome number):-  2n = 22

भिण्डी:-
भिण्डी के हरे मुलायम फल का प्रयोग सब्जी, सूप फ्राई तथा अन्य रूप में किया जाता हैं। आजकल भिण्डी की कैनिंग और फ्रिजिंग भी की जा रही हैं। पौधे का तना व जड़ गुड एवं खोंड बनाते समय रस साफ करने के काम आता हैं। इसके रेशे से रस्सी बन सकती हैं तथा डंठलों को कागज बनाने के काम में प्रयोग किया जाता हैं।

उत्पत्ति:-
भिण्डी का उत्पत्ति स्थान दक्षिणी अफ्रीका अथवा एशिया माना जाता हैं (थॉमसन एवं कैली)। अफ्रीका में इसकी खेती अमेरिका खोज के बहुत पहले से होती आ रही हैं। यह भारतीय भी हो सकती हैं क्योंकि यहाँ यह जंगली रूप में उगती हुई पायी जाती हैं।

जलवायु:-
भिण्डी गर्म मौसम की फसल होने के कारण लम्बे एवं गर्म मौसम को चाहती हैं। भिण्डी कोमल होने के कारण पाला के प्रति असहनशील होती हैं। भिण्डी के बीज 20 डिग्री से० से कम तापमान पर अंकुरण नही कर पाता हैं।

भूमि:-
 भिण्डी सभी प्रकार की भूमि में उगायी जा सकती हैं। लेकिन अच्छी खेती के लिए अच्छे जल निकास वाली भुरभुरी एवं कार्बनिक पदार्थयुक्त दोमट भूमि उपयुक्त होती हैं। भिण्डी की खेती के लिए उचित पी०एच० मान 6-6.8 होता हैं।

भूमि की तैयारी:-
खेत में सबसे पहले मिट्टी पलटने वाले हल से 20-25 सेमी० गहरी जुताई करनी चाहिये। उसके बाद हैरों या देशी हल से 2-3 जुताई करके मिट्टी भुरभुरी कर लेनी चाहिये। फिर पाटा चलाकर खेत को समतल कर लेता हैं जिससे सिंचाई करते समय कठिनाई ना हो।

खाद एवं उर्वरक:-
बुवाई के 15-20 दिन पूर्व 200-250 कुंतल प्रति हेक्टेयर गोबर की सड़ी हुई खाद खेत में फैलाकर मिला देना चाहिये। इसके अलावा नाइट्रोजन 60 किग्रा०, 50 किग्रा० फास्फोरस और 60 किग्रा० पोटाश प्रति एक हेक्टेयर की दर से देना चाहिये। खरीफ में नाइट्रोजन की मात्रा 70 किग्रा० कर देनी चाहिये। शेष नाइट्रोजन की मात्रा बुवाई के 30 दिन बाद और दूसरी मात्रा 60 दिन बाद देनी चाहिये।

बीज दर:-
बुवाई के समय के आधार पर बीज दर भी अलग-अलग होती हैं। गर्मी में 18-20 किग्रा० तथा बरसात में 10-15 किग्रा० की दर से बीज बोया जाता हैं। भिण्डी में अंकुरण का प्रतिशतांक बुवाई से 24 घंटे पूर्व पानी में या 30 मिनट पहले एसीटोन या एल्कोहल में भिगोकर बढ़ाया जा सकता हैं।

बुवाई का समय:-
भिण्डी को मैदानी भागों में फरवरी मध्य से मार्च के आरम्भ तक बोया जाता हैं। बरसाती फसल को जून के अन्त से जुलाई के आरम्भ तक बोया जाता हैं। पहाड़ों पर भिण्डी अप्रैल से जुलाई तक बोयी जाती हैं। भिण्डी की फसल को लगातार प्राप्त करने के लिये भिण्डी की बुवाई के मौसम में 10-15 दिन के अन्तराल पर कई बार की जाती हैं।

बुवाई का तरीका:-
बीज की बुवाई लाइन में डिबलिंग द्वारा, सीडड्रील या हल के पीछे करते हैं। इसमें लाइन से लाइन की दूरी 30 सेमी०, पौधे से पौधे की दूरी 20-30 सेमी० और एक स्थान पर दो बीज को डालकर बोया जाता हैं, बाद में अगर दोनों बीज जम जाये तो कमजोर पौधे को निकाल देना चाहिये। बरसात में भिण्डी की बुवाई छोटी-छोटी मेंड़ों पर करनी चाहिये। इसमें लाइन से लाइन की दूरी 45-60 सेमी० तथा पौधे से पौधे की दूरी 30 सेमी० की होनी चाहिये। बीज को लगभग 2.5 सेमी० की गहराई पर बोना चाहिये।
 
प्रजातियाँ:-
  • पूसा मखमली- इसका फल 6-8 इंच लम्बे, सीधे, चिकने और हरे रंग के होते हैं। गर्मी में बुवाई के 50 दिन और वर्षा ऋतु में 60 दिन के बाद फल तोड़ने लायक हो जाते हैं।
  • पूसा सावनी- इसे भारत के सभी भागों में उगाया जा रहा हैं। इसे वर्षा और ग्रीष्म कालीन फसल के रूप में उगाया जा सकता हैं। गर्मी में बुवाई के 40-45 दिन और वर्षा ऋतु में 60-65 दिन के बाद फल तोड़ने लायक हो जाते हैं। इस किस्म पर मोजेक का प्रकोप कम और उपज 100 कुन्तल प्रति एक हेक्टेयर प्राप्त होती हैं।
  • लाल भिन्डी- इसके फल लाल, लम्बे, सीधे, गूदेदार तथा पूसा सावनी से कम बीज वाले होते हैं।
  • आई० एच० आर-31- इसके फल लम्बे(24 सेमी०), मोटे गूदे वाले तथा हल्के हरे रंग के होते हैं। प्रति पौधे फल की औसत संख्या 20-25 तथा उपज 350-375 कुन्तल प्रति एक हेक्टेयर होती हैं। फल 5 धारियों वाले तथा फुल खिलने के 8-10 दिन बाद फल तोड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं। यह किस्म पत्तिशिरा मोजेक विषाणु से मुक्त पायी गयी हैं।
  • पंजाब नं०-13- यह गर्मी के लिए उपयुक्त हैं। बुवाई के 50 दिन बाद पहली तुड़ाई शुरू हो जाती हैं। फल मुलायम, हल्के हरे रंग के और उपज 75-80 कुन्तल प्रति एक हेक्टेयर प्राप्त होती हैं।
  • अन्य प्रजातियाँ- पकिन्स लौंग ग्रीन, सलैक्शन-1, सलैक्शन-2, पंजाब पदमिनी, प्रभनी क्रान्ति, वर्षा उपहार, हिसार उन्नत, पूसा-ए-4, आजाद क्रान्ति व लखनऊ ड्वार्फ अच्छी किस्में हैं।

खरपतवार नियंत्रण:-
भिन्डी की फसल में मौसमी खरपतवार की समस्या बनी रहती हैं जिससे फसल को बहुत हानि होती हैं। इसलिये खरपतवार को नष्ट करना जरूरी होता हैं। भिन्डी का खेत यदि बुवाई के बाद प्रथम 30-40 दिन तक खरपतवार रहित रह जाये तो इसके बाद खरपतवार फसल पर विशेष कुप्रभाव नहीं डालते हैं। एलाक्लोर 2.5 किग्रा० या पेन्डीमेथीलीन 1.5 किग्रा० प्रति एक हेक्टेयर का छिडकाव करना चाहिये।
 
निराई-गुड़ाई:-
 शुरुआत से ही खरपतवार को नष्ट करने के लिए निराई-गुड़ाई करते रहना चाहिये। घने पौधे रहने पर अतिरिक्त पौधे निकाल देने चाहिये। जिससे फसल वाले पौधे की बढ़वार ठीक हो सके।

सिंचाई:-
बुवाई हमेशा पलेवा करके करनी चाहिये। ताकि बीज का जमाव अच्छा हो सके। गर्मी में प्रति सप्ताह सिंचाई की जरूरत होती हैं। देर से सिंचाई करने पर फल जल्दी सख्त हो जाते हैं तथा फल की बढ़वार कम होती हैं। वर्षा ऋतु में यदि लम्बे समय तक वर्षा ना हो तो आवश्यकतानुसार सिंचाई करनी चाहिये।

कीट:-
जैसिड या हरा फुदका:- यह हरे रंग के कीट होते हैं। जिनकी पीठ के पिछले भाग पर काले धब्बे पाये जाते हैं। इसके शिशु व् प्रोढ़ कीट दोनों पत्ती व् नर्म भागों से रस चूसते हैं। जिससे पत्ती मुड़कर धीरे-धीरे सूख जाती हैं।
रोकथाम:- मैलाथियान 0.04 प्रतिशत या एल्ड्रिन 0.02 प्रतिशत का घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिये।
 
रोग:-
येलो मोज़ेक:- यह सबसे हानिकारक वाइरस रोग हैं। जहाँ पर भी भिन्डी उगाई जाती हैं वहाँ पर यह फसल नष्ट कर देता हैं। इस वाइरस का संचरण बेमिसिया टेबेकई नामक सफ़ेद मक्खियों द्वारा होता हैं। रोगग्रस्त पौधे की पत्ती की शिरायें चमकीली व् पिली रंग की हो जाती हैं। रोगी पौधे में फल छोटे, हल्का रंग व् विकृत हो जाते हैं। उत्तरी भारत में यह रोग वर्षा ऋतु में अधिक होता हैं। रोगी पौधों को निरोग करना सम्भव नहीं हैं।
रोकथाम:- रोगग्रस्त पौधे को जलाकर नष्ट कर देना चाहिये। खरपतवार को नष्ट कर देना चाहिये। सफ़ेद मक्खी पर नियंत्रण करके प्रकोप को कम किया जा सकता हैं। डाईमेक्रान 100 ई०सी० 1 मिलि० प्रति 3 पानी या नुवान 100 ई०सी० 1 मिलि० प्रति 3 पानी छिडकाव करे। बोने के 25 दिन बाद और अन्य छिड़काव् 15-20 दिन के अन्तर पर करना चाहिये।
तना एवं फल छेदक कीट:- इस कीट की सुन्डी का रंग सफ़ेद होता हैं जिसके ऊपर काले और भूरे रंग के धब्बे होते हैं। इसलिये इसे चित्तीदार सुण्डी कहते हैं। यह तने व् फल में छेद करके नुकसान पहुँचाती हैं। जिससे तना व फल मुरझा कर गिर जाते हैं।
रोकथाम:- क्विनालफास 25 प्रतिशत ई० सी० या क्लोरोपाईरीफ़ॉस 20 प्रतिशत ई० सी० 0.05 प्रतिशत का पानी में घोल बनाकर 15 दिन के अन्तराल पर छिडकाव करते हैं।
 
तुड़ाई:-
भिण्डी में बुवाई के लगभग दो माह बाद पौधों में फूल और फल लगने लगते हैं। फलियों की तुड़ाई फूल खिलने के स6-7 दिन के बाद की जाती हैं। केवल उन्ही फलों को तोड़ना चाहिये जो नरम हो और जिनके सिरे थोडा से मोड़ने पर टूट जाये। साधारणत: हर 3-4 दिन के अन्तर पर फल तोड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं।

उपज:-
जायद में 50-60 कुंतल तथा खरीफ में 90-100 कुंतल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त की जा सकती हैं।
 
बिज उत्पादन:-
 अपनी फसल से बीज उत्पादन करने और अच्छा उत्पादन करने के लिए यह जरूरी हैं कि प्रमाणित बीज को ही बोये। इसके लिए निम्न तरीके अपनाये-
  • भूमि- अच्छे जल निकास वाली, उपजाऊ एवं भूमि जनित रोगों से मुक्त होनी चाहिये। उस भूमि में कम से कम पिछले 2 वर्ष से भिन्डी की फसल नहीं बोयी गयी हो, ऐसी भूमि का चुनाव करना चाहिये।
  • दूरी- इस फसल में 4 से 19 प्रतिशत तक पर-परागण होता हैं। इसलिये जिस खेत में बीज उत्पादन के लिये फसल उगानी हो उस खेत के आस-पास 400 मीटर तक भिण्डी या भिण्डी प्रजाति की कोई भी फसल नहीं लगानी चाहिये।
  • भूमि की तैयारी- एक बार हल से गहरी जुताई करके 3-4 बार हैरों चलाये जिससे मिटटी भुरभुरी हो जाये। फिर पाटा चलाकर उसे समतल कर लें।
  • खाद एवं उर्वरक- 25-30 टन प्रति हेक्टेयर की दर से गोबर की सड़ी हुई खाद खेत की तैयारी करते समय जमीन में मिलायें।
  • बीज- प्रभावीकरण संस्था से प्रमाणित किया हुआ बीज ही खरीदे। 10-15 किग्रा० प्रति एक हेक्टेयर बीज पर्याप्त होता हैं।
  • पौधे और कतारों की दूरी- कतार से कतार की दूरी 60 सेमी० और पौधे से पौधे की दूरी 30-45 सेमी० होनी चाहिये।
  • बोने का तरीका- बुवाई हमेशा कतारों में ही करे। बीज की गहराई 3 सेमी० से अधिक नहीं होनी चाहिये। साथ ही भूमि में पर्याप्त नमी होनी चाहिये।
  • निराई-गुड़ाई- खेत से पूरी तरह खरपतवार नियन्त्रण करने के लिए कम से कम 2-3 बार निराई-गुड़ाई करे।
  • रोगिग- पीले मोजेक ग्रसित पौधे दिखाई देते ही उखाड़कर नष्ट कर देने चाहिये। जिस प्रजाति का बीज, बीज उत्पादन के लिए ले रहे हैं यदि उस खेत में दूसरी प्रजाति का पौधा दिखाई दे तो उसको भी उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिये। जिस प्रजाति का बिज उत्पादन करना हैं उस प्रजाति में दूसरी प्रजाति का पौधा हैं या नहीं ये जानने के लिए पौधों की ऊँचाई, पत्तियों पर रोयें तथा फली के आकर में अन्तर के आधार पर आसानी  से पहचान सकते हैं।
  • कटाई और मड़ाई- फलियाँ जब सूखकर कड़ी हो जाये तो उनको पौधों से तोड़कर धूप में 2-3 दिन सुखा लेना चाहिये। फिर मड़ाई करके बीज को निकाल लें। उसके बाद फिर से धूप में तब तक सुखाएँ जब तक की दाँतों से तोड़ने पर उनमें कट की आवाज ना आये। इसके बाद भण्डारण करे।
  • उपज- यदि आपने उपरोक्त सभी तरीके अपनायें हैं तो आप निश्चित ही 12-15 कुन्तल प्रति हेक्टेयर की दर से बीज प्राप्त कर सकते हैं।

बुधवार, 11 अक्तूबर 2017

लौकी

लौकी (Bottle gourd)
 
वैज्ञानिक नाम (Botanical name):-             पाइसम सटाइवम (Lagenaria siceraria)
कुल (Family) :-                                        कुकुरबिटेएसी (Cucurbitaceae)
गुणसूत्र संख्या (Chromosome number):-  2n = 22

लौकी:-
इसकी खेती देश के अधिकतर राज्यों में की जाती हैं। वर्षभर अधिक उपज देने वाली फसल के कारण खीरावर्गीय संबजियों में लौकी का महत्वपूर्ण स्थान हैं। लौकी का 86 प्रतिशत भाग खाने के काम आता हैं।

उत्पत्ति:-
लौकी का जन्म स्थान अफ्रीका एवं भारत माने जाते हैं।

जलवायु:-
शुष्क जलवायु वाले क्षेत्र में सिंचाई की उचित व्यवस्था होने पर लौकी की खेती की जाती सकती हैं। और जायद की फसल में उच्च तापमान (35 से 42 डिग्री से०) सहन करने की क्षमता भी होती हैं।

भूमि:-
आलू की अच्छी उपज के लिए बलुई दोमट मिट्टी उपयुक्त रहती हैं। भूमि का पी०एच० मान 5.5 से 7.0 तक होना चाहिये। जल निकास की अच्छी व्यवस्था होनी चाहिये। अधिक ठंडक (पाला) पौधों के लिए हानिकारक होता हैं।

खेत की तैयारी:-
खेत की मिट्टी पलटने वाले हल से लगभग 3-4 जुताई की जाती हैं। उसके बाद पाटा चलाकर खेत को समतल करके तैयार कर लिया जाता हैं।

बुवाई का समय:-
लौकी की बुवाई जायद में फरवरी के प्रारम्भ से लेकर मार्च के प्रथम सप्ताह तक की जा सकती हैं। खरीफ की बुवाई जुलाई से अगस्त तक की जाती हैं।

बीज दर:-
लौकी की बीज दर 4-5 किग्रा० प्रति एक हेक्टेयर होती हैं।

बुवाई का तरीका:-
लौकी के बीज की बुवाई और अंकुरण के लिये खेत में उचित नमी होनी चाहिये। लौकी का बीज कतारों में थाला बनाकर 2.5 सेमी० की गहराई पर बोया जाता हैं। कतार से कतार की दूरी 2-2.5 मीटर और थालों से थालों की दूरी 1 मीटर होनी चाहिये। तथा प्रति एक थाले में 2-4 बीज बोये जाते हैं।

उपचार:-
लौकी के बीज की बुवाई कैप्टान 2 ग्राम प्रति एक किलोग्राम बीज को उपचारित करके बुवाई करनी चाहिये।
 
प्रजातियाँ:-
  • के० लाँग ग्रीव- पौधे की बढ़वार अधिक, फल हल्के रंग के लम्बे, चिकने, मुलायम, गूदेदार, 15-20 फल प्रति पौधा, औसत भार 1.5-2 किग्रा०, उपज 250-300 कुंतल प्रति एक हेक्टेयर, वर्षाकालीन, सम्पूर्ण प्रदेश में उपयुक्त, पछेती, फलत दीर्घ अवधि तक प्राप्त होता हैं।
  • आजाद हरित- पौधे मध्यम बढ़वार वाले, अगेती किस्म, खरीफ व जायद दोनों के लिए उपयुक्त, फलत 60-65 दिन में शुरू, फल छोटे 40-50 सेमी०, औसत भार 1 किग्रा०, 25-30 फल प्रति पौधा, उपज 400-500 कुंतल प्रति एक हेक्टेयर, सम्पूर्ण उत्तर प्रदेश के लिए उपयुक्त, फलत सीमित अवधि तक प्राप्त होती हैं।
  • अर्का बहार- पौधा औसतन 43 सेमी० लम्बा, 26 सेमी० घेराव का होता हैं। फल का औसतन भार 1 किग्रा०, हल्का हरा रंग, गूदा कोमल, खरीफ व जायद दोनों के लिए उपयुक्त, उपज 400-450 कुंतल प्रति एक हेक्टेयर, 115-120 दिन में पककर तैयार हो जाती हैं।
  • पूसा समर प्रोलिफीक लौंग- फल 40-45 सेमी० लम्बा, 20-25 सेमी० घेराव, रंग हल्का हरा, गूदा कोमल, खरीफ व जायद दोनों के लिए उपयुक्त, उपज 119 कुंतल प्रति एक हेक्टेयर होती हैं।
  • पूसा समर प्रोलिफीक राउण्ड- फल हरा, गोल 15 सेमी० व्यास वाले,  अधिक उपज, खरीफ व जायद दोनों के लिए उपयुक्त हैं।
  • पूसा संदेश- फल गोल, हरा रंग लुभावना, मध्यम आकार, औसतन वजन 600 ग्राम, का होता हैं।
अन्य प्रजातियाँ:-

खाद एवं उर्वरक:-
खेत की तैयारी करते समय सड़ी हुई गोबर की खाद 150-200 कुंतल प्रति हेक्टेयर की दर से डालनी चाहिये। बुवाई के समय अन्तिम जुताई से पहले नाइट्रोजन 30 किग्रा० और फास्फोरस 40 किग्रा० प्रति एक हेक्टेयर की दर से देनी चाहिये। शेष नाइट्रोजन की आधी मात्रा एक महीने बाद गुड़ाई करके नमी होने पर पौधों के थालों में देनी चाहिये।

सिंचाई:-
गर्मी के मौसम में अधिक पानी की जरूरत होती हैं। गर्मी में 4-5 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करना उपयुक्त रहता हैं। खरीफ फसल को कम पानी की जरूरत होती हैं। जो की क्षेत्र की कुल औसत वर्षा पर निर्भर करता हैं।

खरपतवार नियंत्रण:-
समय-समय पर निराई-गुड़ाई करके खरपतवार को निकलते रहना चाहिये। लवणीय पानी से सिंचाई करके कई बार गुड़ाई करनी चाहिये, ताकि जमीन पर कड़ी परत न बन सके। लताओं के फैलने के लिये लकड़ी की झाड़ियाँ खेत में कई स्थानों पर रख देनी चाहिये।

कीट:-
लाल भृंग:- यह किट बीज जमने के बाद पौधे की कोमल पत्ती को काटकर नुकसान पहुँचाता हैं।
रोकथाम:- मैलाथियान 0.1 प्रतिशत या रोगोर 0.2 प्रतिशत का घोल बनाकर 7-10 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करना चाहिये।
माहू:- यह किट पत्ती का रस चूसता हैं।
रोकथाम:- मैलाथियान 50 प्रतिशत ई०सी० 1 मिली० प्रति एक लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिये।
फल मक्खी:- यह कीट फल की प्रारम्भिक अवस्था में विकसित होते ही फल को छेदकर खराब कर देती हैं।
रोकथाम:- इन्डोसल्फान या थायोडान 6 मिली० प्रति 4.5 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिये। ऐसा करने से मक्खी द्वारा होने वाले नुकसान को रोका जा सकता  हैं।

रोग:-
चूर्णिल आसिता या छछिया रोग:- इस रोग का फसल पर बहुत भयंकर प्रकोप होता हैं। पत्ती और तने पर साफेद पाउडर जैसी परत बन जाती हैं।
रोकथाम:- बावस्टीन 2 ग्राम या केराथेन 1.5 मिली० प्रति एक लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें। गन्धक का चूर्ण 20-25 किग्रा० प्रति एक हेक्टेयर की दर से प्रयोग करने से चूर्णिल आसिता और माहू को कम किया जा सकता हैं।

उकठा रोग:-
रोकथाम:- कैप्टान 2 ग्राम प्रति एक किलोग्राम बीज को उपचारित करके बुवाई करनी चाहिये।
सूत्रकृमि:-
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिये फसल चक्र अपनायें। बुवाई के समय खेत में नीम केक या नीमागोन 30 किग्रा० प्रति एक हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिये।
विषाणु रोग:- इस रोग में पत्ती सिकुड़ जाती हैं।
रोकथाम:- रोगग्रस्त पौधे को उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिये।

उपज:-
फल की तुड़ाई उचित अवस्था पर करने से अधिक उपज प्राप्त होती हैं। दोनों मौसम की फसल की उपज में बहुत अन्तर पाया जाता हैं। इसका मुख्य कारण गर्मी में फसल की सिंचाई की व्यवस्था हैं। लौकी की एक लता से 3-10 फल प्राप्त हो जाते हैं। लौकी की औसत उपज 100-150 कुंतल प्रति एक हेक्टेयर की दर से होती हैं। जायद फसल की तुड़ाई अप्रैल से जून और खरीफ (वर्षा ऋतु) फसल की तुड़ाई सितम्बर से दिसम्बर तक चलती हैं।

भण्डारण:-
लौकी के फल को 2-3 दिन तक सामान्य तौर पर रखा जा सकता हैं।

फ़ाइनल

सोमवार, 9 अक्तूबर 2017

लहसुन


वैज्ञानिक नाम (Botanical name):-             एलियम सटाइवम (Alium sativum)
कुल (Family) :-                                        एलिएसी (Alliaceae)
गुणसूत्र संख्या (Chromosome number):-  2n = 14

लहसुन:-
भारत वर्ष में लहसुन की खेती का महत्वपूर्ण स्थान हैं। इसकी खेती सम्पूर्ण भारत में की जाती हैं। विश्व में भारत का क्षेत्रफल एवं उत्पादन की द्रष्टि से तीसरा स्थान हैं। तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश (मैनपुरी), गुजरात, मध्य प्रदेश (इन्दौर, रतलाम और मन्दसौर) आदि राज्यों में बड़े पैमाने पर उगाया जाता हैं। लहसुन मुख्यत: कलियों द्वारा उगाया जाता हैं। यह मसाले वाली एक प्रमुख फसल हैंलहसुन एक नकदी फसल हैं
  • लहसुन में चरपराहट एक तेल एलाइल प्रोपाइल डाईसल्फाइड़ तथा गन्धक के कारण होती हैं
उत्पत्ति:-
लहसुन का उत्पत्ति स्थान मध्य एशिया व भूमध्य सागरीय क्षेत्र माना जाता हैं

जलवायु:-
लहसुन का पौधा ज्यादा गर्मी व सर्दी सहन नही कर पाता हैं। इसलिये उचित वृद्धि के लिए गर्मी व सर्दी दोनों के बीच का मौसम उत्तम रहता हैं। लहसुन की खेती समुद्र तल से 1000-3000 मीटर तक की ऊंचाई वाले स्थानों पर आसानी से की जा सकती हैं।

भूमि:-
लहसुन के लिए ह्यूमस तथा पोटाश से भरपूर दोमट मिट्टी अति उत्तम मानी जाती हैं। वैसे बलुई दोमट व चिकनी मिट्टी में लहसुन की खेती की जा सकती हैं। भारी मिट्टी में लहसुन शल्क कन्द विकृत हो जाते हैं।

भूमि की तैयारी:-
खरीफ की फसल कटने के बाद 2 जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करते हैं। उसके बाद 4-5 जुताई देशी हल से करके बाद में पाटा चलाकर भूमि को समतल करते हैं एवं भुरभुरी बना लेते हैं।

प्रजाति:-
लहसुन की यमुना सफ़ेद-1 (जी-1)(अवधि 150-160, उपज 150-175), एग्रीफाउन्ड सफ़ेद (जी-41)(अवधि 140-160, उपज 130-140), यमुना सफ़ेद-2 (जी-50)(अवधि 165-170, उपज 150-155), यमुना सफ़ेद-3 (जी-282)(अवधि 140-150, उपज 175-200), एग्रीफाउन्ड पार्वती (जी-313) तथा वी०एल०जी०-7 आदि प्रमुख प्रजाति हैं

खाद एवं उर्वरक:-
खेत की अन्तिम जुताई के समय गोबर की सड़ी हुई खाद 200 कुंतल प्रति हेक्टेयर की दर से डालकर जुताई करते हैंनाइट्रोजन 100 किग्रा०, फास्फोरस 60 किग्रा० और पोटाश 120 किग्रा० प्रति हेक्टेयर की दर से भूमि में मिलाना चाहिये। इसके अलावा नाइट्रोजन 100 किग्रा० प्रति हेक्टेयर की दर से खड़ी फसल दो बार देनी चाहिये। पहली मात्रा बुवाई के 45 दिन बाद एवं दूसरी मात्रा 60 दिन पर देनी चाहिये।

बीज दर:-
लहसुन का बीज 5-7 कुंतल प्रति हेक्टेयर की दर से पर्याप्त होता हैं

बुवाई का समय:-
लहसुन की बुवाई अक्टूबर से नवम्बर में की जाती हैं जबकि कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश एवं तमिलनाडु में बुवाई अप्रैल से अगस्त तक की जाती हैं। जलवायु अनुकूल होने पर कुछ भागों में दो बार की जाती हैं। एक बार मई तथा दूसरी बार अक्टूबर माह में की जाती हैं।

बुवाई का तरीका:-
बुवाई करते समय खेत में उपयुक्त नमी होनी चाहिये। खेत को छोटी-छोटी क्यारियों में बाँट लेना चाहिये। क्यारी में लहसुन की एक-एक कली को पंक्ति में उपयुक्त स्थान पर खड़ी दशा में गाड़ना चाहिये। कली का नुकीला भाग ऊपर की और होना चाहिये। लहसुन की कली को भूमि में लगभग 1/2 (आधा) सेमी० की गहराई पर गाड़ना चाहिये, जिससे गाड़ी हुई कली की शिखा मिट्टी से ढ़क जाये। पंक्ति से पंक्ति 15 सेमी० एवं पौधे से पौधे 7-10 सेमी० की दूरी पर लगाना चाहिये। लगभग एक सप्ताह में अंकुरण हो जाता हैं।

प्रसारण:-
लहसुन की गाँठ, लहसुन में उपलब्ध लहसुन की कली (जवे) से बनती हैं। गाँठ को हाथों से मसल कर कली को अलग-अलग कर लिया जाता हैं। इन्ही कलियों को बुवाई के काम में लाया जाता हैं।

निराई-गुड़ाई:-
लहसुन की फसल में 3-4 जुताई की आवश्यकता होती हैं। निराई-गुड़ाई करने से उपज अच्छी होती हैं।

खरपतवार नियंत्रण:-
लहसुन की जड़ें कम गहराई तक जाती हैं। अतः 2-3 बार उथली गुड़ाई करके खरपतवार को निकाल देना चाहिये। पेन्डीमैथीलिन 3.5 लीटर या ऑक्सी-फ्लोरफेन 1 लीटर मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करते हैं।
 
सिंचाई|:-
लहसुन की फसल में लगभग 5-6 सिंचाई की आवश्यकतानुसार होती हैं। सर्दी के मौसम में 15-20 दिन के अन्तर पर व गर्मी में प्रति सप्ताह सिंचाई की आवश्यकता होती हैं कन्दों की खुदाई करने के 15-20 दिन पूर्व सिंचाई बन्द कर देनी चाहिये।

खुदाई एवं सुखना:-

लहसुन की पत्ती जब सुख जाएँ एवं ऊपरी भाग भूमि की सतह पर झुक जाये तब खुदाई का उपयुक्त समय होता हैं। लहसुन की पत्ती जब हरी अवस्था में तब खुदाई नही करनी चाहिये। खुदाई के बाद गाँठों को छाया में हवादार स्थान पर 2-3 दिन तक सुखाया जाता हैं। गाँठों को कटी हुई पत्तियों से ढककर धूप से बचाना चाहिये।

लहसुन की गाँठों में समय से पूर्व अंकुरण को रोकने के उपाय:-
  • नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश का उचित मात्रा में प्रयोग करना
  • नाइट्रोजन की आती मात्रा बुवाई से पूर्व तथा शेष मात्रा बुवाई के 45 एव 60 दिन पर देनी चाहिये
  • दूरी को कम करना चाहिये (15X7सेमी०)
  • साइकोसेल अथवा मेलिक हाइड्राजाइड का 1.5 ग्राम प्रति लीटर पानी का घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिये
  • निचले खेतों में बुवाई नही करनी चाहिये
  • अधिक व बार-बार सिंचाई नही करनी चाहिये तथा खेत में पानी रुकना नही चाहिये
  • नाइट्रोजन का अधिक प्रयोग ना करे। अधिक नाइट्रोजन देने से गाँठे कम मजबूत व कली खोखली रह जाती हैं।
कीट:-
माइट:- इसके प्रकोप से पत्ती टेढ़ी हो जाती हैं, जिन पर पीली व हरी धारियाँ बन जाती हैं। पत्ती को कली से बाहर निकालने में कठिनाई होती हैं। अंकुरण में देरी होती हैं। पत्ती भी सही नही निकलती हैं। भण्डारण में अधिक समय तक इनका प्रकोप होने की सम्भावना बढ़ जाती हैं।
रोकथाम:- मिथाइल ब्रोमाइड 1 किग्रा० मात्रा

थ्रिप्स:- यह छोटे और पीले रंग का कीट होता हैंयह कीट पत्ती का रस चूसते हैं। जिससे इनका रंग चितकबरा दिखाई देने लगता हैं। पत्तियों के शीर्ष भूरे होकर मुरझाकर सूख जाते हैं।
रोकथाम:- मेलाथियान 50 प्रतिशत ई०सी० 1 ग्राम/लीटर पानी का घोल बनाकर कीट दिखाई देते ही छिड़काव करे

रोग:-
बैंगनी धब्बा:- इस रोग के प्रभाव से पट्टी व तने पर सफ़ेद धब्बे बनते हैं जिससे पत्ती व तना कमजोर होकर गिर जाते हैं फरवरी व अप्रैल में इसका प्रकोप अधिक होता हैं
रोकथाम:- मेनकोज़ेब + कार्बनडाजिम मिश्रण की 2.5 ग्राम, मेनकोज़ेब 75 प्रतिशत डबल्यू०पी0 2.5 ग्राम या कार्बनडाजिम 46.27 प्रतिशत एस०सी० 1 ग्राम प्रति एक लीटर पानी का घोल बनाकर छिड़काव करते हैं

उपज:-
लहसुन की उपज 100-150 कुंतल प्रति हेक्टेयर प्राप्त की जा सकती हैं

भण्डारण:-
लहसुन की गाँठों को पूर्ण रूप से सुखाकर ही भण्डारण करना चाहिये। गाँठो को पत्ती सहित भण्डारण करने से हानि कम होती हैं। शीतगृह में भण्डारण लम्बी अवधि के लिये किया जा सकता हैंभण्डारण में काली फफूंद (Black Mold) नामक रोग से हानि होती हैंभण्डारण गृह हवादार होना चाहिये

फ़ाइनल

रविवार, 8 अक्तूबर 2017

प्याज


वैज्ञानिक नाम (Botanical name):-             एलियम सीपा (Alium cepa)
कुल (Family) :-                                        एलिएसी (Alliaceae)
गुणसूत्र संख्या (Chromosome number):-  2n = 14

प्याज:-
प्याज एक उपयोगी सब्जी हैं। इसे विभिन्न पकवान, मसाले और औषधि के रूप में प्रयोग किया जा सकता हैं। प्याज रबी की मुख्य फसल हैं। लेकिन इसे अब खरीफ में भी उगाया जाने लगा हैं। प्याज मुख्यत: बीज द्वारा उगायी जाती हैं। प्याज भारत के सभी प्रान्तों में उगायी जाती हैं। विश्व में भारत का प्याज का क्षेत्रफल एवं उत्पादन की द्रष्टि से दूसरा स्थान हैं। महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश, उड़ीसा एवं हरियाणा आदि राज्यों में उगायी जाती हैं।
  • प्याज में चरपराहट एक वाष्पशील तेल एलाइल डाईसल्फाईड के कारण होती हैं।
उत्पत्ति:-
प्याज की उत्पत्ति उत्तर पश्चिम भारत, अफगानिस्तान, उजबेकिस्तान व पश्चिमी ताइवान क्षेत्र में मानी जाती हैं

जलवायु:-
प्याज ठंडे मौसम की फसल हैं। इसकी पैदावार पर दिन की लम्बाई व स्थान का बहुत असर पड़ता हैं। भारत में उगायी जाने वाली किस्म के लिए उच्च तापमान व लम्बी प्रकाश अवधि की आवश्यकता पड़ती हैं। जबकी बल्ब के विकास के लिये 15.5 डिग्री से 21 डिग्री से० तापमान तथा 10 घंटे प्रतिदिन प्रकाश अवधि की आवश्यकता पड़ती हैं। लगभग 70 प्रतिशत आद्रता फसल के लिए जरूरी हैं। तापमान के बढ़ जाने से रबी की फसल पक जाती हैं। जिससे बल्ब छोटे रेह जाते हैं।

भूमि:-
प्याज प्राय: सभी प्रकार की भूमि में उगायी जा सकती हैं। जिसमें ह्यूमस (कार्बनिक पदार्थ) की मात्रा अधिक, उर्वरा शक्ति व जल निकास की व्यवस्था अच्छी हो। अधिक अम्लीय भूमि का प्याज पर बुरा असर पड़ता हैं। प्याज की खेती के लिए भूमि का पी०एच० मान 5.8 से 6.5 उपयुक्त रहता हैं।

खेत की तैयारी:-
प्याज की रोपाई करने से पहले खेत को आवश्यकतानुसार दो से तीन जुताई करके भूमि को भुरभुरी बना लिया जाता हैं, उसके बाद पाटा लगाकर खेत को समतल कर लिया जाता हैं

बुवाई का समय:-
  • खरीफ- गटिठयों  की बुवाई फरवरी में की जाती हैं। क्यारी में बीज की बुवाई जून में की जाती हैं और रोपाई अगस्त के प्रथम सप्ताह में की जाती हैं। खरीफ में उत्पादन 200-250 कुंतल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होता हैं। खरीफ की एग्रीफाउन्ड डार्क रेड, बसवन्त-780, एन-53 आदि प्रमुख किस्म हैं।
  • रबी- बीज की बुवाई 15 अक्टूबर से 15 नवम्बर तक की जाती हैं। पौधे की रोपाई का कार्य बुवाई के 7-8 सप्ताह बाद किया जाता हैं। रबी में उत्पादन 300-350 कुंतल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होता हैं। रबी की एग्रीफाउन्ड लाइट रेड, कल्यानपुर रेड, पूसा रेड, नासिक रेड आदि प्रमुख किस्म हैं।
बीज दर:-
प्याज का बीज एक हेक्टेयर में 8-10 किलोग्राम पर्याप्त होता हैं

प्रजातियाँ:-
प्याज की प्रजातियाँ निम्न हैं- कल्यानपुर लाल,  पूसा लाल, नासिक लाल, नासिक सफ़ेद, पटना लाल, पटना सफ़ेद, पंजाब सलैक्स्न, हिसार-1 फैन्जीरा, धूलिया, बेलारी, उदयपुर-101, उदयपुर-102 और उदयपुर -103 आदि अच्छी किस्म हैं।

खाद एवं उर्वरक:-
प्याज की अच्छी फसल के लिए अन्तिम जुताई से पहले सड़ी हुई गोबर की खाद 200-250 कुंतल प्रति हेक्टेयर की दर से मिलाना चाहिये। रोपाई के समय नाइट्रोजन 75 किग्रा०, फास्फोरस 60 किग्रा० और पोटाश 60 किग्रा० प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिये। खड़ी फसल में नाइट्रोजन 60 किग्रा० प्रति हेक्टेयर की दर से दो बार देनी चाहिये। पहली आधी मात्रा रोपाई के एक माह बाद तथा शेष मात्रा दो से ढाई माह पर बुरकाव द्वारा देनी चाहिये। बुरकाव के बाद सिंचाई कर देनी चाहिये।

पौध तैयार करना:-
बीज को ऊंची उठी हुई समतल क्यारी में भी बोया जा सकता हैं। क्यारी की चौड़ाई 0.60 मीटरलम्बाई सुविधानुसार रखते हैं। 4 सप्ताह तक सिंचाई फव्वारे से करे। एक हेक्टेयर भूमि में प्याज लगाने के लिए 1/20 से 1/10 हेक्टेयर भूमि में पौधशाला की क्यारी तैयार की जाती हैं। क्यारी तैयार करते समय मिट्टी को बहुत महीन बना लेना चाहिये जिससे भूमि में नमी बनी रहे और अंकुरण के लिए उपयुक्त तापमान मिल सके। क्यारी  में बीज अक्तूबर के प्रथम सप्ताह में बोना चाहिये। बीज को बोकर उसके ऊपर पुराल या कांस की टट्टी बिछा देनी चाहिये। अंकुरण 7-8 दिन में होने लगता हैं। अंकुरण होने पर क्यारी पर से पुराल व कांस की टट्टी को हटा देना चाहिये।

पौध की रोपाई:-
जब पौधे 7-8 सप्ताह के हो जाए तब इन्हें पौधशाला से उखाड़कर चोटी की पत्तियों का एक चौथाई भाग काट देना चाहिये। उसके बाद रोपाई कर देनी चाहियेपौधे की रोपाई मध्य नवम्बर में कर सकते हैं। पंक्ति से पंक्ति की दूरी 15 सेमी०,पौधे से पौधे की दूरी 10 सेमी० तथा गहराई 2 सेमी० तक होनी चाहिये। रोपाई के समय खेत में नमी होनी चाहिये।

सिंचाई एवं निराई-गुड़ाई:-
पहली सिंचाई रोपाई के 3-4 दिन बाद करनी चाहियेउसके बाद सर्दी में सिंचाई लगभग 10-15 दिन के अन्तर पर व गर्मी में प्रति सप्ताह की आवश्यकता होती हैं। रेतीली भूमि में गर्मी में हर तीसरे दिन सिंचाई की आवश्यकता होती हैं। कन्द के पकने के समय सिंचाई कम कर देनी चाहिये। कन्द की खुदाई के 2-3 सप्ताह पूर्व हल्की सिंचाई करनी चाहिये। प्रत्येक सिंचाई के बाद निराई और हल्की गुड़ाई करनी चाहिये। खाद डालने से पहले तथा यूरिया डालने के बाद सिंचाई करना अच्छा रहता हैं।

कीट:-
प्याज की थ्रिप्स:- यह पीले रंग  का छोटा कीड़ा होता हैं। जो पत्ती पर सफ़ेद धब्बा पैदा करता हैं। जिससे पत्ती का ऊपरी सिरा भूरे रंग में बदल जाता हैं। बाद में पत्ती झड़ जाती हैं
रोकथाम:- डाइमेक्रान 100 प्रतिशत ई०सी० 200-250 मिली० मात्रा 1000 लीटर पानी में घोलकर 1-2 बार छिड़काव करना चाहिये। इन्ड्रीन 0.01 प्रतिशत का घोल बनाकर बार-बार छिड़काव करे।
ओनीयन मैगेट:- यह मक्खियों की तरह मक्खी से छोटा कीट होता हैं
रोकथाम:- मैलाथियान 50 प्रतिशत ई० सी० 0.1 प्रातिशत का घोल बनाकर छिड़काव करे

रोग:-
डाउनी मिल्ड्रयू:- यह रोग फफूंद के कारण फैलता हैं। इस रोग में पत्ती के ऊपर सफ़ेद रंग का पाउडर दिखाई देता हैं। बाद में पत्ती सूख जाती हैं।
रोकथाम:- मैन्कोज़ेब 0.2 प्रतिशत का घोल बनाकर रोपाई के 20 दिन बाद करना चाहिये। इसके बाद 10-15 दिन के अन्तराल पर करते रहना चाहिये।
बैंगनी धब्बा रोग:- इस रोग में शुरू में पत्ती पर पीले से सफ़ेद धब्बे लगते हैं। जिसके बिच का भाग बैंगनी रंग का होता हैं। यह रोग तेज़ी से फैलता हैं। पत्तियों से फैलकर बिच के स्तंभों में पहुँच जाता हैं और प्याज गलने लगती हैं।
रोकथाम:- मैन्कोज़ेब 75 प्रतिशत डबल्यू०पी० 0.2 प्रतिशत, कॉपर ऑक्सी-क्लोराइड 50 प्रतिशत डबल्यू०पी० 0.25 प्रतिशत या क्लोरोथानोमिल 50 प्रतिशत डबल्यू०पी० 0.2 प्रतिशत का घोल बनाकर छिड़काव करे।

 खुदाई:-
प्याज की किस्म, बुवाई का समय व उपयोगिता के अनुसार प्याज की खुदाई का समय भी अलग होता हैं। प्याज खाने योग्य होने पर हाथ से उखाड़ा जाता हैंशल्ककन्द की फसल रोपाई के 3-4 माह बाद खुदाई के लिये तैयार हो जाती हैं प्याज की परिपक्वता की पहचान ऊपरी भाग को देखकर की जाती हैंजब ऊपर की लगभग 70 प्रतिशत शाखाएँ सूख जाती हैं तो प्याज की खुदाई कर लेनी चाहिये

उपज:-
प्याज के कन्द की उपज 250-300 कुंतल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती हैं

प्याज में बोल्टिंग:-

प्याज के पौधे में समय से पहले ही पुष्प डण्डी का निकाल जाना बोल्टिंग कहलाता हैं। जिसके कारण बल्ब विकसित नही हो पाते हैं। परिणामस्वरूप पैदावार प्राप्त नही होती हैं। बोल्टिंग का मुख्य कारण भूमि में नाइट्रोजन की कमी का होने तथा अधिक पुरानी पौध की रोपाई करना हैं। तापमान के कम-अधिक होने से भी बोल्टिंग हो जाती हैं। इससे बचने के लिये नाइट्रोजन का समय पर प्रयोग करना चाहिये। अधिक पुरानी पौध की रोपाई नही करनी चाहिये। संस्तुत प्रजाति की समय से बुवाई व रोपाई करनी चाहिये।

भण्ड़ारण:-
प्याज के भण्ड़ारण के लिये रोशनी और हवादार स्थान उपयुक्त हैं भण्ड़ारण में रखे प्याज को 15 दिन के अन्तर पर पलटते रहना चाहिये तथा क्षतिग्रस्त व अंकुरित कन्दों को निकाल देना चाहिये।।

final