मंगलवार, 7 नवंबर 2017

अंगूर

अंगूर (Grapes)
 
वैज्ञानिक नाम (Botanical name):-              (Vitis vinifera L.)
कुल (Family) :-                                        (Vitaeeae)
गुणसूत्र संख्या (Chromosome number):-   2n =  38
 
अंगूर:-
अंगूर का उत्पादन क्षेत्र की द्रष्टि से फलों में प्रथम स्थान हैं, विश्व के कुल फल का लगभग आधा इस भाग के अन्तर्गत आता हैं। विश्व के अनेक देशों में अंगूर उगाया जाता हैं। इसका उत्पादन लगभग 110 लाख हेक्टेयर से भी अधिक हैं। आजादी के पहले भारत में काफी क्षेत्र में अंगूर की बागवानी की जाती थी। बंटवारे के बाद धारणा थी कि भारत में अंगूर पैदा नहीं किये जा सकते। लेकिन उद्यान वैज्ञानिकों के फलस्वरूप इसकी बागवानी आज लगभग पूरे देश में की जाती हैं। दक्षिण भारत में कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश व तमिलनाडु राज्य में सर्वाधिक खेती की जाती हैं, और उत्तरी भारत में हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश व दिल्ली राज्यों में इसकी खेती की जाती हैं।
 
उत्पत्ति:-
 
 
स्थान का चुनाव:-
अंगूर की बेलें किसी भी स्थान पर लगे जा सकती हैं, लेकिन कोनों पर या कोनरों के मध्य में ही लगाना अच्छा रहता हैं। जिससे अन्य शाकीय एवं फूलों को इसकी छाया से होने वाले नुकसान से बचाया जा सके। आँगन में जहाँ पर उचित मात्रा में धूप उपलब्ध हो, इसकी बेलें लगाई जा सकती हैं।
 
जलवायु:-अंगूर उपोष्ण जलवायु का पौधा हैं। परन्तु इसकी विभिन्न किस्मों की खेती हिमालय की तलहटी से लेकर कन्याकुमारी तक की जाती हैं। पौधे की अच्छी फलत के लिए गर्म तथा सूखा मौसम उपयुक्त हैं। फलों के पकने के समय बरसात होने से दाने खट्टे रह जाते हैं तथा फटने लगते हैं। जाड़े में मौसम ठंडा होना चाहिये तथा फूल आते समय मौसम साफ रहना चाहिये।
 
मिट्टी:-
अंगूर की खेती के लिए गहरी दोमट मिट्टी जिसमें जल निकास की व्यवस्था हो अच्छी रहती हैं। ऊसरीली भूमि में अंगूर की खेती नहीं की जाती हैं।
 
उन्नत किस्में:-
उपयोग अनुसार अंगूर की जातियाँ निम्न हैं-
  • खाने वाली किस्म:- ब्स्यूटी सीडलैस, परलैट, पूसा सीडलैस, डीलाइट, काडिनल, गोल्ड, अनाब-ए-शाही, बंगलौर, ब्लू, चीमा साहबी, काली साहबी, गुलाबी, कली यम्मा।
  • डिब्बा बन्दी वाली किस्म:- थाम्पसल सीडलैस, हिराड़े, परलैट, डीलाइट।
  • शराब बनाने वाली किस्म:- ब्यूटी सीडलैस, ब्लैक चम्पा, ब्लैक मस्कट, व्हाइट रेजलिग, टिन्टा।
  • रस वाली किस्म:- ब्यूटी सीडलैस, अर्ली मस्कट, चैम्पियन, ब्लैक चम्पा, बंगलौर ब्लू।
  • सुखाई जाने वाली किस्म:- पूसा सीडलैस, किशमिश बेली, ब्लैक कीरिन्थ, मस्कट ऑफ एल्बेजेन्डर।
क्षेत्र के अनुसार अंगूर की जातियाँ निम्न हैं-
  • दक्षिण भारत के लिए:- अनाब-ए-शाही, बंगलौर ब्लू, भोकरी, ब्लैक चम्पा, चीमा साहबी, गुलाबी, काली साहबी, पनडारी साहबी, थोम्पसन सीडलैस, अर्कावती, अर्काकंचन, अर्काश्याम, अर्काहंस।
  • परलैट, ब्यूटी सीडलैस, पूसा सीडलैस, डिलाइट, हिमरोड़, किशमिश बेली, थोम्पसन सीडलैस, भारत अर्ली, काडिनल, चैम्पियन, अर्ली मस्कट, गोल्ड।
पकने के अनुसार अंगूर की जातियाँ निम्न हैं-
  • शीघ्र पकने वाली:- ब्यूटी सीडलैस, परलैट, पूसा सीडलैस, डिलाइट, थोम्पसन सीडलैस, गोल्ड, गुलाबी, हिमरोड़, किशमिश।
  • देर से पकने वाली:- अनाब-ए-शाही, बंगलौर ब्लू, चीमा साहबी, काली साहबी, साहबी, भोकरी।
 
प्रवर्धन:-
अंगूर का प्रवर्धन कटिंग द्वारा किया जाता हैं। इसके लिए 23 सेमी० लम्बी परिपक्व 3-4 गांठ वाली कटिंग का प्रयोग किया जाता हैं। उनका बण्डल बनाकर नम बालू में भंडारित कर देते हैं, अथवा सीधे तैयार क्योरियों में रोपण कर दिया जाता हैं।
 
रोपण का समय:-
एक वर्ष आयु की जड़ वाली कलमों का रोपण उत्तर भारत में जनवरी माह में किया जाता हैं। दक्षिण भारत में रोपण अक्तूबर-नवम्बर व मार्च-अप्रैल में किया जाता हैं।
 
पौधों की सफाई का काँट-छाँट:-
अंगूर को 2-3 वर्ष तक संघाई एवं काँट-छाँट द्वारा बेलों के आकार एवं सुदृढ़ ढाचें का शीर्ष प्रणाली के अनुसार तैयार करना अति आवश्यक हैं, इसलिये आरम्भ में जो 2-3 कलिकाएँ फुटाव लेती हैं, उनमें से केवल एक ही स्वस्थ एवं सीधा प्ररोह मुख्य तने के लिए जमीन से एक मीटर तक सीधा बढ़ने दिया जाता हैं। इसी समय बेल को सीधा और मजबूत बनाने के लिए बाँस या लकड़ी के टुकड़े का सहारा दिया जाता हैं। एक वर्ष पुरानी बेल के तने को जनवरी माह में एक मीटर की ऊँचाई से छंटाई कर दे जिससे शीर्ष पर 5-6 मुख्य शाखायें विकसित हो जाये। इन्ही मुख्य शाखाओं पर प्ररोह अथवा फली वाली टहनियाँ विकसित हो जाती हैं।
 
खाद एवं उर्वरक:-
एक वर्ष पुरानी बेल को अच्छी बढ़वार के लिए 15-20 किग्रा० जैविक खाद प्रति एक बेल जनवरी माह में छंटाई के तुरन्त बाद डालकर मिट्टी में अच्छी तरह से मिला देना चाहिये। 2 या 3 वर्ष की बेल में 15-20 किग्रा० जैविक खाद के साथ 250 ग्राम नाइट्रोजन, 100 ग्राम फॉस्फोरस और 100 ग्राम पोटाश उर्वरक का मिश्रण बनाकर प्रति एक बेल में डालना चाहिये। फल वाली बेल में 100 ग्राम यूरिया, 250 ग्राम सुपर फॉस्फेट और 200 ग्राम पोटैशियम सल्फेट का मिश्रण प्रति एक बेल जनवरी में छंटाई के बाद डालना चाहिये।
 
सिंचाई:-
गर्मियों में प्रत्येक सप्ताह और सर्दियों में 15 दिन के अन्तराल पर सिंचाई की जाती हैं। फूल व फल लगने के समय सिंचाई जरुर करनी चाहिये। फल के टिकाव के पश्चात सिंचाई करते रहना चाहिये। इसी समय फलों तथा पौधों में वृद्धि होती हैं। पकने के समय हल्की-सी नमी की कमी होनी चाहिये। जाड़ों में अधिक नमी होनी चाहिये। फूल खिलते समय व नवम्बर से जनवरी तक सिंचाई नहीं करनी चाहिये।
 
कीट:-
चैफर बोटल:- यह कीट अंगूर से पत्तियों की छांटकर छलनी कर देता हैं। बाली वाली सूंडीयां मुख्य रूप से नई बेलों की पत्त्यियों को खाती हैं।
रोकथाम:- इस कीट से बचाव के लिए 10 प्रतिशत बी० एच० सी० धूल, मैलाथियान, डायजिनान, पोलिथियान 0.05 प्रतिशत का छिडकाव एक बार जून के अन्तिम सप्ताह में और जुलाई-सितम्बर तक 15 दिन के अन्तराल पर छिडकाव करते रहना चाहिये।
स्फेल कीट:- यह कीट बहुत छोटा, सफ़ेद रंग का पतला कीट होता हैं। यह टहनी, शाखा व तने पर चिपका रहता हैं तथा रस चूसकर बेलों को सूखा देते हैं।
रोकथाम:- इस कीट से बचाव के लिए 10 प्रतिशत बी० एच० सी० धूल, मैलाथियान, डायजिनान, पोलिथियान 0.05 प्रतिशत का छिडकाव एक बार जून के अन्तिम सप्ताह में और जुलाई-सितम्बर तक 15 दिन के अन्तराल पर छिडकाव करते रहना चाहिये। 
थ्रिप्स:- यह पीले रंग का कीड़ा होता हैं। यह पत्ती व फूलों के गुच्छों से रस चूसता हैं। जिससे पत्तियाँ किनारे से मुड़ जाती हैं, तथा पीली पड़कर गिर जाती हैं, फूल सूख जाते हैं।
रोकथाम:- इस कीट से बचाव के लिए 10 प्रतिशत बी० एच० सी० धूल, मैलाथियान, डायजिनान, पोलिथियान 0.05 प्रतिशत का छिडकाव एक बार जून के अन्तिम सप्ताह में और जुलाई-सितम्बर तक 15 दिन के अन्तराल पर छिडकाव करते रहना चाहिये।
 
रोग:-
सन्थ्रक्नोज एवं सर्कास्वोरा:- यह पत्ती धब्बा रोग हैं। इनके आक्रमण से पत्तियाँ सूखकर गिर जाती हैं तथा टहनियाँ भी पूरी तरह से सूख जाती हैं।
रोकथाम:- इनकी रोकथाम के लिए ब्लाईटॉक्स 0.3 प्रतिशत का छिड़काव एक बार जून के अन्तिम सप्ताह में तथा दूसरा 15 दिन के अन्तराल पर करना चाहिए।
 
फलों की तुड़ाई:- अंगूर के गुच्छों को तुड़ाई पूर्ण रूप से पकने के बाद की जानी चाहिये। प्रात:काल सावधानीपूर्वक डंठल को पकड़कर तुड़ाई की जाती हैं।
 
ऊपज:-
अंगूर की ऊपज किस्म, संघाई तथा बाग की देखभाल पर निर्भर करती हैं। अंगूर के फल की औसत ऊपज 10-15 टन प्रति एक हेक्टेयर से प्राप्त होती हैं।
 
 
फाइनल 

सोमवार, 6 नवंबर 2017

बेल

बेल (Bael)
 
वैज्ञानिक नाम (Botanical name):-              (Psidium guajava L.)।
कुल (Family) :-                                        (Myrtaceae)
गुणसूत्र संख्या (Chromosome number):-   2n = 

बेल:-
बेल उत्तर भारत का पौधा हैं। बेल का फल पौष्टिक तथा औषधीय गुण वाला होता हैं।  भारत के अलावा श्रीलंका, पाकिस्तान, बंगला देश, वर्मा, थाईलैंड व दक्षिण पूर्वी एशिया आदि में इसकी बागवानी की  जाती हैं। भारत में बेल हिमालय से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक इसकी खेती होती हैं।

उत्पत्ति:-
बेल का मूल स्थान भारत हैं।

भूमि:-
बेल की खेती लगभग सभी प्रकार की भूमि में की जा सकती हैं। बंजर एवं ऊसरीली भूमि जिसका पी० एच० मान 8.0 तक हो, में भी इसकी खेती की जा सकती हैं।

जलवायु:-
इसके लिए गर्म-ठंडी जलवायु ठीक रहती हैं।

प्रजतियाँ:-
बेल की जातियाँ निम्न हैं- देवरिया, बड़ा कागजी इटावा, मिर्जापुर कागजी, बघेल, बस्ती न०-2, कागजी गोंडा न०-1, फ़ैजाबाद कागजी, कागजी गोंडा न०-3, देवरिया बड़ा चकिया, सिवान बड़ा व सिवान लम्बा आदि मुख्य किस्म हैं।

प्रवर्धन:-
बेल का प्रवर्धन बीज द्वारा ही किया जाता हैं। जिस कारण इसकी विशेष किस्म नहीं हैं। इनका कायिक प्रवर्धन करके रोपण किया जाना चाहिये। बीज के अतिरिक्त जड़ कलम अथवा अन्त: भूस्तारी बेल का प्रवर्धन किया जा सकता हैं। परन्तु पैंचबन्दी या टी चश्मा द्वारा मई-अगस्त माह तक बेल का प्रवर्धन आसानी से किया जा सकता हैं। मूल वृन्त के लिए देशी बेल के बीजू पौधे प्रयोग किये जाते हैं।

रोपण का समय:-
बेल के पौधों की रोपाई का कार्य जून-जुलाई में किया जाता हैं। बेल के पौधे में लाइन से लाइन 8 मीटर और पौधे से पौधे की दूरी 8 मीटर होनी चाहिये।

कृन्तन:-
बेल की संघाई रुपान्तरित अग्र प्ररोह विधि से करनी चाहिये। सूखी, रोगी एवं कीटयुक्त शाखाओं को निकाल देना चाहिये। काँट-छांट अप्रैल-मई और अगस्त के माह में करनी चाहिये। अगस्त में केवल पत्तियों की छटाईं की जाती हैं।

अन्त: सस्यन:-
बेल के बाग़ में लोबिया, मूंग, उर्द, मटर, चना आदि फसलें उगाई जानी चाहिये।

खाद:-
बेल के पौधे में 500 ग्राम नाइट्रोजन, 250 ग्राम फॉस्फोरस और 250 ग्राम पोटाश प्रति एक पेड़ प्रति वर्ष देना चाहिये। जून-जुलाई माह में फैलाव में नाली बनाकर उर्वरकों का प्रयोग किया जाता हैं।

फूल आना:-
बेल के पौधे में जुलाई माह में फूल आते हैं तथा फल अप्रैल-मई में तैयार हो जाते हैं।

फलों की तुड़ाई:-
जब फल का रंग गहरे हरे से बदलकर पीला हरा हो जाये तो फलों की तुड़ाई कर लेनी चाहिये। फलों को डंठल सहित तोड़ा जाता हैं। फल अप्रैल-मई में तोड़े जाते हैं।

ऊपज:-
बेल के 800-1000 फल प्रति एक पेड़ से एक वर्ष में प्राप्त किये जा सकते हैं।

कीट:-
पर्णभक्षी:- यह पेड़ की पत्तियों को काटकर नुकसान पहुँचाता हैं।
रोकथाम:- रोकथाम के लिए फलों में वर्णित दवाओं का प्रयोग करना चाहिये।

रोग:-
कैंकर:- बेल को कैंकर से काफी नुकसान होता हैं। यह जैन्थोमोनस बिल्बी वैक्टीरिया द्वारा होता हैं। प्रभावित भाग पर जलशोषित धब्बे बनते हैं जो बाद में बढ़कर भूरे हो जाते हैं। बाद में पूर्ण प्रभावित भाग के उत्तक गिर जाते हैं, और पत्तियों पर छिद्र बन जाते हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिए स्ट्रैप्टोमाईसीन सल्फेट नामक दवा के 500 भाग प्रति 10 लाख भाग पानी में घोलकर छिडकाव करना चाहिये।

final

सोमवार, 30 अक्टूबर 2017

केला

केला (Banana)
 
वैज्ञानिक नाम (Botanical name):-              (Musa Paradisica)
कुल (Family) :-                                        (Musaceal)
गुणसूत्र संख्या (Chromosome number):-   2n =  

केला:-
केला भारत का प्राचीनतम फल हैं। खाने में स्वादिष्ट, अच्छी भण्डारण क्षमता तथा प्रति इकाई क्षेत्रफल में सर्वाधिक उत्पादन के कारण व्यवसायिक स्टार पर इसकी खेती की जाती हैं। उत्तर प्रदेश के तराई वाले जनपद बहराइच, गोन्डा, बस्ती, गोरखपुर, देवरिया इत्यादि इसकी खेती के लिये प्रमुख हैं।

उत्पत्ति:-
केले का मूल स्थान दक्षिण पूर्व एशिया का कोष्ण कटिबन्धीय भाग माना जाता हैं। इस भाग असम, वर्मा, थाईलैंड और इन्डोचीन की पहाड़ियों के संगम वाला स्थान हैं। आदिकालिक खाद्य अकेले म्यूजा एक्यूमिनाटा के द्विगुणित भेद थे, जो आज भी दक्षिण पूर्व एशिया के बड़े क्षेत्रफल में उगते पाए गये हैं। बाद में केले का विकास म्यूजा बल्बीसियाना के त्रिगुणित और चतुर्गुणित विभेद के अन्य जातियों के संकरण से हुआ। त्रिगुणित एक्यूमिनाटा टाइप (ए ए ए समूह) की उत्पत्ति सम्भवत: मलेशिया में हुई। संकर समूहों की उत्पत्ति एक्यूमिनाटा जाति के निकास केन्द्र के आस-पास हुई हैं और ए बी, ए ए बी और ए बी बी समूहों की उत्पत्ति भारत में हुई। ए ए तथा ए बी बी समूहों का द्वितीय विकास केन्द्र फिलीपीन रहा हैं। एक ए बी बी बी क्लोन इन्डोचीन में जन्मा लगता हैं। भारत में केले को प्राचीनकाल से उत्पादित करने के प्रभाव मिलते हैं। ईसा से 500-600 वर्ष पूर्व के पालि बौई ग्रन्थों में इसका वर्णन हैं।

जलवायु:-
पौधे की उचित वृद्धि के लिये कम से कम 11 डिग्री से० तापमान होना बहुत आवश्यक हैं। 170-200 सेमी० वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्र सर्वोत्तम हैं। केले की फसल के लिये गर्म जलवायु, पाला पड़ना, तूफान और तेज हवा का होना उपयुक्त नहीं हैं।

भूमि:-
केले की अच्छी फसल लेने के लिये गहरी दोमट भुरभुरी और उपजाऊ मिट्टी उपयुक्त हैं जिसका पी० एच० मान 7 हो।
 
केले का वर्गीकरण:-
अधिकांश खाद्य केले की जातियां म्यूजा वंश के समूह म्यूजा के अन्तर्गत आती हैं। म्यूजा की बागवानी संसार के विस्तृत क्षेत्रफल पर की जाती हैं। खाद्य केले की जातियाँ इसी समूह की जंगली जाति म्यूजा एक्यूमिनाटा और म्यूजा बल्बीसियाना से उत्पन्न हुई हैं। इसी समूह की कुछ जातियाँ (म्यूजाबासजो) रेशे भी पैदा करती हैं। चजिमैन (1949) के अनुसार म्यूजा पैराडिजिएका जंगली जाति म्यूजा एक्यूमिनाटा से विकसित हुई हैं। कुछ अन्य जातियाँ कल्बीसिया से और एक अन्य महत्वपूर्ण व्यापारिक जाति म्यूजा सेपिएन्टम इन दोनों जंगली जातियों के संकरण से उत्पन्न हुई हैं। अत: पैराडिजिएका उद्यमी किस्मों के लिऐ उपयुक्त हैं।
 
प्रजातियाँ:-
  • पकाकर खायी जाने वाली किस्में:- हरीछाल, रोबस्टा, चीनिया, मालभोग, पूवान, अल्पान।
  • सब्जी वाली किस्में:- कोढ़िया, कम्पेयेरगंज, हाजरा, काबुली, बत्तीसा।
  • अन्य किस्में:- मन्थन, सफ़ेद बेल्ची, पहाड़ी केला, बसराई ड्वार्फ, कोठिया, मुन्यन।
प्रवर्धन एवं रोपण (Propagation and planting):-

पौधों की रोपाई के लिये सबसे पहले 2-3 मीटर दूरी पर 50 X 50 X 50 सेमी० आकार के गड्ढ़े मई माह में खोद देने चाहिये। गड्ढ़े को 15-20 दिन तक खुला रखने के बाद 20-25 किग्रा० सड़ी हुई गोबर की खाद और क्लोरोपाईरीफॉस 50 प्रतिशत  ई० सी० 3 मिली० प्रति 5 लीटर पानी में घोलकर ऊपर की की मिट्टी के साथ अच्छी तरह से मिलाकर गड्ढ़े में भर देना चाहिये। उसके बाद गड्ढ़े की सिंचाई कर देनी चाहिये।
बौनी किस्मों को 1.8 X 1.8 मिटर की दूरी पर तथा अधिक बढ़ने वाली चम्पा, नेन्द्रेन जैसी किस्मों के लिये 2.4 X 2.4 मीटर की दूरी  पौधे लगाये जाते हैं।
     केले का प्रसारण अधोभूस्तरी (Suckers) द्वारा वानस्पतिक तरीके से किया जाता हैं। अधोभूस्तरी दो तरह की होती हैं।
  • नुकीली पत्तियों वाले अधोभूस्तरी (Sword Suckers):- ये अधोभूस्तरी तीन माह की तलवारनुमा, जिनका घनकन्द पूर्ण विकसित व् गठीला हो. का प्रयोग किया जाता हैं। आन्तरिक रूप से ताकतवर होते हैं। लेकिन देखने में कमजोर लगते हैं। प्रसारण के लिये इनका ही प्रयोग किया जाता हैं।
  • चौड़ी पत्तियों वाले अधोभूस्तरी (Water सुस्केर्स):- पत्तियाँ चौड़ी होती हैं। आन्तरिक रूप से कमजोर होते हैं। देखने में ताकतवर दिखाई पड़ते हैं। ये भूस्तारी प्रसारण के लिये प्रयोग नहीं किये जाते हैं।
बुवाई का समय:-
असिंचित क्षेत्र में जून-जुलाई और सिंचित क्षेत्रों में फरवरी-मार्च में बुवाई की जाती हैं।

कृन्तन (Pruning):-
केले की खेती में एक कहावत प्रचलित हैं'केला सदा रहे अकेला'। अधिकांश जहाँ केले रोपे जाते हैं। सभी पौधों को उगने दिया जाता हैं। जिससे भूमि में उपलब्ध भोज्य पदार्थ सभी पौधों में बँट जाते हैंजो  गलत हैं। केले में रोपण के दो माह के अन्दर ही बगल से नई पुत्तियाँ निकलती हैं इन पुत्तियों को समय-समय पर काटते रहना चाहिए। रोपण के दो माह बाद 30 सेमी० व्यास का 25 सेमी० ऊँचा चबूतरा नुमा आकृति बना देनी चाहिये। इससे पौधों को आवश्यक सहारा मिल जाता हैं। तथा इन पत्तियों को सावधानीपूर्वक निकालकर अन्य जगह रोपण किया जा सकता हैं। जून में निकल रही पत्तियों को प्रत्येक पौधे के पास छोड़ देना चाहिये तथा निकालते रहे।

खाद:-
केले की फसल में नाइट्रोजन 250 ग्राम, फॉस्फोरस 100 ग्राम और पोटाश 200 ग्राम प्रति एक पौधा प्रति एक वर्ष देनी चाहिये। फॉस्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा पौधे के चारों तरफ 30 सेमी० चौड़ी नाली बनाकर मिट्टी में मिला देना चाहिये तथा नाइट्रोजन पौधे के चारों और फैलाव में छिड़ककर मिट्टी में मिला देना चाहिये। ऊर्वरकों की मात्रा को तीन बार में दिया जाता हैं। एक बार रोपने के समय, दूसरी बार रोपने एक महीने और तीसरी बार पाँच महीने बाद बराबर मात्रा में उर्वरक देना चाहिये। पाँच महीने बाद फसल  उर्वरक देना लाभदायक नहीं रहता हैं।

सिंचाई:-
पौधे को रोपने के तुरन्त बाद सिंचाई करनी चाहिये। वर्षा ऋतु को छोड़कर शेष सभी ऋतुओं में सिंचाई की जाती हैं। पौधे को किसी भी अवस्था में पानी की कमी से नुकसान नहीं होना चाहिये। गर्मियों में पौधों की 7-10 दिन, वर्षा ऋतु में 15-20 दिन और जाड़ों में 10-12 दिन अन्तर पर सिंचाई की जाती हैं। पौधों की छोटी अवस्था में चारों तरफ छोटी क्यारियाँ बनाते हैं और बाद में क्यारियों का आकार बढ़ा लेते हैं।

मल्चिंग:-
केले के थालों में पुआल, गन्ने की पत्ती व पॉलीथिन बिछा देने से सिंचाई की मात्रा आधी रह जाती हैं। खरपतवार नहीं उग पाते हैं। पौधों की वृद्धि, फलोत्पादन तथा गुणवत्ता में वृद्धि हो जाती हैं।

मिट्टी चढ़ाना:-
पौधों पर वर्षा ऋतु के बाद सदैव मिट्टी चढ़ायी जाती हैं। क्योंकि पौधे के चरों तरफ की मिट्टी घुल जाती हैं।

अन्त: सस्यन:-
बैंगन, अरबी आदि सब्जी इसके बाग़ में उगायी जा सकती हैं। केले में कद्दु वर्गीय सब्जियाँ नहीं उगायी जाती हैं। क्योंकि इनसे विषाणु रोग फैलने की सम्भावना रहती हैं। केले की मिलवां फसल  के रूप में सुपाड़ी, नारियल, कॉफ़ी आदि फसल उगायी जा सकती हैं।

फूल आना:-
प्रथम फसल के लिये केलों के रोपण के प्रव्यक्रम निकलने तक (रोपाई से लेकर फल निकलने तक) 9-12 महीने का समय लगता हैं। इसके बाद की फसल में जलवायु व बाग प्रबन्धन के अनुसार 5-7 महीने लगते हैं। निकलने के तीन महीने बाद फल परिपक्व हो जाते हैं।

फलों को तोड़ना:-
फूल आने के लगभग तीन-चार माह बाद फल तुड़ाई के लिये तैयार हो जाता हैं। जब कलियों की चारों धारियाँ तिकोनी न रहकर गोलाई लेने लगे। उसी समय फलों को पूर्ण विकसित समझना चाहिये। पूर्ण विकसित फल को तेज धार वाले औजार से काटना चाहिये।

फलों को पकाना:-
किस्म की अनुसार फल को बन्द कमरे में भरकर केले की पत्ती से ढ़क दिया जाता हैं। एक कोने में उपले जलाकर या जलती अंगीठी रखकर कमरा गीली मिट्टी से सील कर दिया जाता हैं। 48-72 घन्टे में केला खाने के लिये तैयार हो जाता हैं। प्राय: बन्द कमरे में कार्बाइड को पुड़ियों को रखकर, रख दिया जाता हैं। कार्बाइड से स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता हैं। आकर्षक रंग एवं शीघ्र पकाने के लिये इथोपान 1000 पी० पी० एम० (इथरेल 2.5 मिली० प्रति एक लीटर) सान्द्रता का घोल बनाकर और कास्टिक सोडा की 5-10 गोलियाँ मिलाकर कमरे में लकड़ी के बक्से में या केले के साथ रखने से 24 घण्टे के अन्दर फल पककर तैयार हो जाता हैं।

उपज:-
केले की फसल में समय पर रोपण करने और उचित मात्रा में खाद एवं उर्वरक का प्रयोग किया गया हैं तो 200-250 कुंतल प्रति एक हेक्टेयर तक उपज प्राप्त की जा सकती हैं।

भण्डारण:-
ड्वार्फ कैविन्डिस व रोबस्टा किस्म के पके हुये फलों को 1 डिग्री - .5 डिग्री से० तापमान तथा 80-90 प्रतिशत सापेक्ष आद्रता पर 3 सप्ताह तक शीत भण्डारित किया जा सकता हैं। बसराई के पके फलों को पकाने के लिये 11.1 डिग्री - 12.77 डिग्री से० तापमान और 85-90 प्रतिशत आद्रता पर 3 सप्ताह तक भण्डारित किया जा सकता हैं। हरे पके फलों को पकाने के लिये 20 डिग्री- 21.1 डिग्री से० तापमान और 80-85 प्रतिशत आद्रता पर 1-2 सप्ताह तक भण्डारित किया जा सकता हैं। हरे परिपक्व फलों को 12.7 डिग्री से० स निचे भण्डारित  फलियाँ ठंडक से क्षतिग्रस्त हो जाती हैं और बाद में उचित तापमान पर पकाने से भी नहीं पकती हैं।

कीट:-
वीटिल:- यह कीट कोमल पत्ती व् फलों का छिलका खुरचते हैं। बरसात में पत्ती व हरे फलों पर काली धारियाँ बन जाती हैं। फलों की वृद्धि रुक जाती हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिये जुलाई-अगस्त में प्रकोप को देखते ही मोनोक्रोटोफॉस 36 प्रतिशत एस० एल0 3 मिली० प्रति एक लीटर पानी में घोलकर दो छिड़काव करने चाहिये।
केले का धुन या बीवील:- यह कीट भूमिगत प्रकन्द में छेद करके खाना शुरू कर देता हैं। प्रकन्द सड़ने लगता हैं और पूरा पौधा नष्ट हो जाता हैं।
रोकथाम:- इस कीट से बचाव के लिये पत्तियों को एल्ड्रिन में डुबोकर रोपाई करनी चाहिये। बाग में प्रभावित पौधे के चारों तरफ एल्ड्रिन धूल 30-35 ग्राम प्रति एक पौधे के चारों तरफ बिखेरना चाहिये।

रोग:-
पनामा रोग:- इस रोग को केले का सूखना भी कहते हैं जो फ्यूसेरीयम ओक्सीस्पोरम मट्टी से जन्म लेने वाले कवक से होता हैं। पुरानी पत्ती किनारों से पिली पड़कर सूख जाती हैं। ऐसे पौधों में फलों का गुच्छों का पूर्ण विकास नहीं होता हैं।
रोकथाम:- रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिये। एक किलोग्राम सिरालन बेट 300 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिये।
बन् टॉप:- यह विषाणु जनित रोग हैं। रोगी पौधे की पट्टी छोटी होकर गुच्छे का रूप धारण कर लेती हैं। पौधे की वृद्धि एवं फलत रुक जाती हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिये रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर नष्ट  कर देना चाहिये। बाग में कद्दूवर्गीय फसलें नहीं बोनी चाहिये।
कालव्रण:- यह रोग पके फलों पर लगता हैं। फलों पर काले धब्बे पड़ने के बाद फल सड़ जाते हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिये रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर नष्ट  कर देना चाहिये। प्रभावित पौधों पर बोर्डों मिश्रण का 3-4 बार छिड़काव करना चाहिये।
पत्तियों पर धब्बे (Leaf spot):- यह केरोस्पोरा मुसेक कवक द्वारा फैलता हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिये बोर्डों मिश्रण का 4:4:50 का छिड़काव करना चाहिये।

final 

मंगलवार, 24 अक्टूबर 2017

मटर

वैज्ञानिक नाम (Botanical name):-             पाइसम सटाइवम (Pisum sativum)
कुल (Family) :-                                        लेग्यूमिनोसी (Leguminoseae)
गुणसूत्र संख्या (Chromosome number):-  2n = 14

मटर:-
मटर की खेती उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में सर्दी में और पहाड़ी क्षेत्रों में गर्मी में की जाती हैंइसकी खेती मुख्य रूप से हरी फली प्राप्त करने के लिये की जाती हैं।

उत्पत्ति:-
बाग वाली मटर का जन्म स्थान इथियोपिया तथा खेत वाली मटर का जन्म स्थान हिमालय का तराई प्रदेश अथवा सागरीय प्रदेश हैं।

जलवायु:-
मटर ठंडे मौसम की फसल हैं। मटर की फसल के लिये 13-19 डिग्री से० तापमान सर्वोत्तम हैं। बीज अंकुरण 22 डिग्री से० पर अच्छा होता हैं। तापक्रम का फल की संख्या, खट्टापन, रंग और पौष्टिक गुणों पर बहुत असर पड़ता हैं। फूल व छोटी पत्ती पाले से अधिक प्रभावित होती हैं।

भूमि:-
मटर की खेती सभी प्रकार की भूमि में की जा सकती हैं। लेकिन उचित जल निकास वाली भुरभुरी दोमट मिट्टी सर्वोत्तम होती हैं। मृदा का पी०एच० मान 6-7 अच्छा रहता हैं। अम्लीय भूमि इसके लिये अनुपयुक्त होती हैं।

खेत की तैयारी:-
खेती की 3-4 जुताई देशी हल से करते हैं। उसके बाद पाटा चलाकर खेत को समतल  करके मिट्टी को भुरभुरा बना लिया जाता हैं।

बोने का समय:-
मटर की बुवाई सिंचाई करके करनी चाहिये। मटर की बुवाई मैदानी भागों में अक्टूबर से नवम्बर तक की जाती हैं। प्राय: अगेती किस्म की बुवाई सितम्बर के दूसरे पखवाड़े में, मध्यम किस्म की बुवाई अक्टूबर के दूसरे या तीसरे सप्ताह में तथा पछेती किस्म की बुवाई अक्टूबर के अन्तिम सप्ताह से नवम्बर के प्रथम सप्ताह तक की जाती हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में मटर की बुवाई का उपयुक्त समय मार्च से मई होता हैं।
 
बीज दर:-
अगेती किस्म के लिए 100-120 किग्रा० तथा मध्यकालीन या पछेती फसल के लिए 80-90 किग्रा० प्रति हेक्टेयर की दर से बीज की जरूरत होती हैं।

बुवाई का तरीका:-
बीज को छिटकवाँ या पंक्ति दोनों विधि से बोया जाता हैं। छिटकवाँ विधि से बोने पर बीज अधिक लगता हैं। पंक्तियों में बुवाई के लिए पंक्ति से पंक्ति 30-60 सेमी० तथा पौधे से पौधे 5-10 सेमी० की दूरी  रखी जाती हैं। बीज को 2-5 सेमी० की गहराई तक बोया जा सकता हैं।
 
बीज उपचार:-
बीज को राइजोबियम कल्चर से उपचारित करके बोना चाहिये। इससे पौधे की जड़ों में अधिक जीवाणु ग्रंथिकायें बनती हैं। 3 से 5 ग्राम राइजोबियम कल्चर से प्रति एक किलोग्राम बीज को उपचारित किया जा सकता हैं।

प्रजातियाँ:-
बागवानी मटर को दो भागों में बांटा गया हैं-
  • चिकने बीज वाली मटर (Smooth seeded)
  • खुरदरे बीज वाली (Wrinkled seeded)
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली द्वारा प्रस्तावित जातियाँ निम्नलिखित हैं-
अगेती जातियाँ:-
  • असौजी तथा मेटियोर- चिकना दाना, हरी फली, 60-65 दिन में तैयार
  • अर्ली बदगर- दाना खुरदुरा, बौनी किस्म, हरी फली, 60-65 दिन में तैयार
  • आर्केल- दाना खुरदुरा, पौधे छोटे, फली अच्छी तरह भरी हुई 8-10 सेमी० लम्बी 7-8 दाने वाली, 65-70 दिन में तैयार, औसत उपज 40-60 कुंतल प्रति हेक्टेयर
  • अन्य जातियाँ- हरा बोना, जवाहर मटर-3, जवाहर मटर-4, एल्डरमैन, अर्ली जाइन्ट लिटिल मरवेल, पी०एम०-1, पी०एम०-2, वी०पी०-7802 आदि इस वर्ग की प्रमुख जातियाँ हैं।
मध्यम जातियाँ (Mid season varieties):-
  • बोनविले- दान खुरदुरा, 85 दिन में तैयार, फली लम्बी व गहरी हरी तथा दाना भरा हुआ, दाने मोटे व मीठे, उपज 100 कुंतल प्रति हेक्टेयर
  • अन्य जातियाँ- जवाहर मटर-1, जवाहर मटर-2, न्यूलाइन परफेक्सन, लिंकन, वी०एल०-2, यू०डी०-2, पी०-87, जवाहर पी०-54, जवाहर पी०-83, आजाद मटर आदि इस वर्ग की प्रमुख जातियाँ हैं।
पछेती जातियाँ (Late varieties):-
  • एन०पी०-29- दाना खुरदुरा, 100 दिन में तैयार
  • अन्य जातियाँ- सिल्विया, मल्टीफ्रीजर आदि इस वर्ग की प्रमुख जातियाँ हैं।
अन्य जातियाँ:-
  • सुपीरियर, अर्लीपरफेक्सन प्राइड ऐस, न्यू इरा आदि कैनिंन के लिए उपयुक्त हैं।
  • सिल्विया, मेल्टिंग सुगर, ड्वार्फ ग्रे सुगर आदि छिलके सहित खाने वाली जाति में प्रमुख हैं।
  • अर्ली जाइंट तथा एल्डरमैन आदि पर्वतीय क्षेत्र के लिए प्रमुख हैं।
  • न्यूलाइन परफेक्सन व ब्रिदगर- राष्ट्रीय बीज निगम द्वारा प्रस्तावित जातियाँ हैं।
  • पी०-8, पी०-35, पी०-23, मैरोफेट तथा टेलीफोन- पंजाब द्वारा प्रस्तावित जातियाँ हैं।
  • टा०-17 (चिकने दाने वाली), टा०-31, टा०-56 व यू०पी०-119 (खुरदुरे दाने वाली)- उत्तर प्रदेश द्वारा प्रस्तावित जातियाँ हैं।
  • चन्द्र शेखर कृषि एवंप्रोधोगिकी विश्वविधालय, कानपुर द्वारा मटर की नयी बौनी प्रजाति स्वाति (के०एफ०पी०डी०-24) विकसित की गई हैं। विशेषता- इसी जगह द्वारा विकसित मटर की बौनी प्रजाति अपर्णा से 7 दिन अगेती होने के साथ ही 20-25 प्रतिशत अधिक उपज देती हैं। दाना बड़ा, दाना के भार अधिक (250 ग्राम प्रति 1000),  पौधा बौना (40-50 सेमी०), उपज 35-40 कुंतल प्रति हेक्टेयर, सिंचित व असिंचित दोनों दशाओं के लिए उपयुक्त हैं।
खाद एवं उर्वरक:-
गोबर की सदी हुई खाद 200 कुंतल प्रति हेक्टेयर की दर से डालकर खेत को तैयार किया जाता हैं। नाइट्रोजन 20-50 किग्रा०, फास्फोरस 50 किग्रा० और पोटाश 30-80 किग्रा० प्रति हेकटहर की दर अन्तिम जुताई से पूर्व दी जाती हैं। नाइट्रोजन की आधी मात्रा, फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा अन्तिम जुताई से पूर्व दी जाती हैं। शेष नाइट्रोजन की मात्रा बुवाई के 20-25 दिन बाद टॉपड्रेसिंग द्वारा दी जाती हैं।

सिंचाई:-
मटर कम पानी चाहने वाली फसल हैं। मटर में पहली सिंचाई फूल आने के समय व दूसरी सिंचाई पहली सिंचाई के 25-30 दिन बाद की जाती हैं। पाला पड़ने की सम्भावना होने पर खेती की हल्की सिंचाई करनी चाहिये।

खरपतवार नियंत्रण:-
मटर की फसल में 1-2 निराई-गुड़ाई खुर्पी या कुदाल द्वारा की जाती हैं। इसके अलावा बुवाई के पूर्व या बुवाई के दो दिन बाद तक वासालीन 2-3 लीटर या पेन्डीमैथीलिन 3.3 लीटर मात्रा 1000 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करे।
 
कीट:-
माहू एवं थ्रिप्स:- ये कीट पौधे का रस चूसते हैं।
रोकथाम:- इमिडाक्लोरपीड़ 0.5 मिली०, रोगोर 30 प्रतिशत ई०सी० 1 लीटर मात्रा या मेटासिस्टाक 25 प्रतिशत ई०सी० 0.25प्रतिशत प्रति एक लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करे।
लीफ माइनर:- इस कीट की सूँडी पत्ती में पतली-पतली सुरंग बनाती हैं। तथा का पत्ती का रस चूसते हैं।
रोकथाम:- रोगोर 30 प्रतिशत ई०सी० 1 लीटर या मेटासिस्टाक 25 प्रतिशत ई०सी० 0.25प्रतिशत को 600 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से 600 लीटर पानी में घोलकर 15 दिन के अन्तराल पर आवश्यकतानुसार छिड़काव करना चाहिये।
फली छेदक कीट:- इस कीट की सूँडी फल व दाने को खाकर नुकसान करती हैं।
रोकथाम:- इन्सल्फान 35 प्रतिशत  या मैलाथियान 50 प्रतिशत ई०सी० 1.25 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से 600 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करे।

रोग:-
पाउडरी मिल्डयू:- पत्तियों, फलियों एवं तनों पर सफ़ेद पाउडर सा दिखाई देता हैं।
रोकथाम:- गन्धक 25-30 किग्रा० या कैराथेन 0.06 प्रतिशत को पानी में घोलकर 7 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करे।
उकठा:- इस रोग से पूरा पौधा मुरझा जाता है, तना सिकुड़ जाता हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिए फसल चक्र अपनाये तथा उपचारित बीज की बुवाई करे। बेवस्टीन या थीरम 3 ग्राम प्रति एक किग्रा० बीज की दर से उपचार करना चाहिये।
रस्ट (रतुआ):- सर्वप्रथम पौधे की पत्ती, तना, पर्णवृन्त तथा फली पर भूरे धब्बे पड़ते हैं। पत्ती पीली पड़कर गिरने लगती हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिए क्षतिग्रस्त पौधे को
नष्ट कर देना चाहिये। उचित फसल चक्र अपनाये तथा बीज को उपचारित करके ही बुवाई करे। पौधो पर शुरुआत से ही बोर्डों मिश्रण (5:5:50) अथवा जिनेब 3 किग्रा० प्रति हेक्टेयर की दर से पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिये।
जड़ गलन (Root rot):- उपचारित बीज का प्रयोग करे।
रोकथाम:- बीज को एरासन 2 ग्राम, थीरम या कैप्टान 3 ग्राम तथा बेवस्टीन 1 ग्राम प्रति एक किलोग्राम की दर से उपचारित करके बुवाई करनी चाहिये।

फलों की तुड़ाई:-
सब्जी की लिये हरी मटर की तुड़ाई उचित अवस्था पर करनी चाहिये। हरी फली प्राप्त करने के लिये लगभग 3 तुड़ाइयाँ की जाती हैं। प्राय: अगेती क़िस्म 50-60 दिन में मध्यकालीन एवं पछेती क़िस्म 90-100 दिन में तैयार हो जाती हैं।
  • मटर संसाधन उधोग में मटर की परिपक्वता की जांच 'हेन्ड्रोमीटर' द्वारा की जाती हैं।
उपज:-
अगेती किस्मों से 30-40 कुंतल तथा मध्यकालीन व पछेती क़िस्मों से 70-80 कुंतल प्रति हेक्टेयर की दर से हरी फली प्राप्त होती हैं।

भन्डारण:-
साधारण अवस्था में ताजी बिना छिली हुई फली का 2-3 दिन तक भन्डारण किया जा सकता हैं। परन्तु 32 डिग्री फ़रेन्हाइट तापक्रम पर तथा 85-90 प्रतिशत आपेक्षिक आदरता पर प्रशीतक ग्रहों में दो सप्ताह तक भन्डारण किया जा सकता हैं।

फ़ाइनल

सोमवार, 23 अक्टूबर 2017

मिर्च

मिर्च  (Chillie)
 
वैज्ञानिक नाम (Botanical name):-             केपसीकम एनम (Capsicum annuum L.)
कुल (Family) :-                                       सोलेनेसी (Solanaceae)
गुणसूत्र संख्या (Chromosome number):-   2n = 24,36,48
 
मिर्च:-
भारत में मिर्च 8.26 लाख हेक्टेयर भूमि में उगाया जाता हैं तथा 5.11 लाख टन सूखी मिर्च का उत्पादन होता हैं। उत्तर प्रदेश में कुल 20100 हेक्टेयर भूमि में खेती होती हैं। मिर्च का उपयोग सब्जियों और चटनियों में इस्तेमाल होने वाले प्रमुख मसाले के रूप में किया जाता हैं।
  • मिर्च में तीखापन या तेजी ओलियोरेसिन कैप्सिन नामक एक उड़नशील एल्केलाईड के कारण तथा उगता कैप्साइसीन नामक एक रवेदार उग्र पदार्थ के कारण होती हैं। बड़ी तथा छोटी 'मीठी' मिर्च एस्कार्षिक अम्ल की घवी होती हैं।
उत्पत्ति:-
 
जलवायु:-
मिर्च गर्म और आद्र जलवायु में भली-भाँती उगायी जा सकती हैं, परन्तु इसके फलों को पकते समय शुष्क मौसम का होना भी जरूरी होता हैं। बीज का अच्छा अंकुरण 18-30 डिग्री से० पर होता हैं। मिर्च को समुद्रतल से 2000 मीटर की ऊँचाई वाले क्षेत्रों में आसानी से उगाया जा सकता हैं। 15 डिग्री से० से कम और 33 डिग्री० से अधिक तापमान बड़ी मिर्च के फलों को बनने रोक देता हैं। तेज मिर्च अपेक्षाकृत अधिक गर्मी सह लेती हैं। उच्च तीव्रता वाला प्रकाश पैदावार को बढ़ाता हैं, परन्तु मिर्च में कैप्सिसिन की मात्रा को घटाता हैं तथा फलों के रंग विकास में भी पर्याप्त देरी कर देता हैं।
 
भूमि:-
मिर्च की खेती के लिये अच्छे जल निकास वाली जीवांशयुक्त दोमट मिट्टी सर्वोत्तम होती हैं। मिट्टी का पी० एच० मान 6.5 से 8 उपयुक्त रहता हैं। लेकिन जहाँ पर फसलकाल छोटा होता हैं वहाँ पर बलुई तथा दोमट मिट्टी को प्राथमिकता दी जाती हैं। मिर्च की खेती के लिये अम्लीय मिट्टी अनुयपयुक्त होती हैं।
 
भूमि की तैयारी:-
खेत में सबसे पहले मिट्टी पलटने वाले हल से एक गहरी जुताई करनी चाहिये। उसके बाद भूमि में गोबर की सड़ी खाद ड़ालकर हैरों या देशी हल से 3-4  जुताई करके, पाटा चलाकर खेत को समतल कर लेना चाहिये। ताकि अन्य जुताई के बाद गोबर की खाद मिट्टी में अच्छी तरह से मिल जाये । जिससे सिंचाई करते समय कठिनाई ना हो।
 
बोने का समय :-
  • जाड़ों की फसल:- इस वर्ग में मैदानी तथा दक्षिण क्षेत्रों में मिर्च की खेती की जाती हैं। इसकी बुवाई जून से जुलाई में तथा रोपाई अगस्त से सितम्बर में की जाती हैं।
  • गर्मी की फसल:- इसकी बुवाई नवम्बर में तथा रोपाई जनवरी में की जाती हैं।
  • बरसाती फसल और पहाड़ी क्षेत्र:- इसकी बुवाई मार्च से अप्रैल में तथा रोपाई अप्रैल से मई में की जाती हैं।
  • पाला पड़ने वाला क्षेत्र:- इसकी बुवाई अप्रैल से मई तथा रोपाई मई से जून में की जाती हैं।
बीज दर:-
मिर्च का बीज 600-700 ग्राम प्रति एक हेक्टेयर के लिए पर्याप्त  होता हैं।
 
प्रजातियां:-
मिर्च की पन्त सी-1, एन० पी० 46-ए , चंचल, पूसा ज्वाला, के०-5452, बी० सी०-1, पी० सी०-2, जवाहर-218, पूरी रैड, फजलिका-6, फजलिका-7, अबोहर-7, अबोहर-12 आदि प्रमुख किस्म हैं।
 
बीज एवं भूमि उपचार:-
बीज को बोने से पहले भूमि और बीज दोनों को उपचारित करना आवश्यक होता होता हैं। बीज को उपचारित करने के लिये थीरम 2  ग्राम प्रति 1 किलोग्राम या कॉपर सल्फेट के घोल में 8-10 मिनट तक उपचारित करना चाहिए। तथा भूमि शोधन के लिये एल्ड्रिन 5 प्रतिशत धूल 20 -25  किग्रा ० प्रति एक हेक्टेयर के लिये प्रयोग किया जाता हैं।
 
नर्सरी तैयार करना:-
मिर्च की अच्छी पैदावार लेने के लिये पहले मिर्च को नर्सरी में बोते हैं। पौध तैयार करने के लिये भूमि से 15-20 सेमी० ऊँची उठी तथा एक मीटर चौड़ी तथा लम्बाई आवश्यकतानुसार की एक क्यारी तैयार की जाती हैं। दो क्यारी के बीच 50 सेमी० गहरी और 8-10 सेमी०  चौड़ी नाली बनाते हैं, जिससे नर्सरी को आसानी से सिंचित किया जा सके और फालतू पानी को बहार निकाल सके। नर्सरी में गोबर की सड़ी हुई खाद 1-15 किग्रा० प्रति एक वर्ग फीट की दर से अच्छी तरह मिलाते  हैं। नर्सरी में बीज लाइन में बोना चाहिये। लाइन से  लाइन की दूरी 5 सेमी० तथा गहराई 1-2 सेमी० होनी चाहिये। नर्सरी को एक सप्ताह तक भूसे या सूखी घास से ढक देते हैं। एक सप्ताह तक सुबह-शाम दिन में दो बार नर्सरी को पानी से भिगोते हैं।
  • डैम्पिंग ऑफ रोग से बचाने के लिये 1 प्रतिशत बोर्डों मिश्रण का 12-15 के अन्तराल पर छिड़काव करना चाहिये।
  • कीट के प्रकोप से बचाने के लिये 2 मिली० प्रति एक लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिये।
पौध रोपण:-
पौध की रोपाई शाम के समय करनी चाहिये। पौध जब 4-6 सप्ताह की हो जाये तब रोपाई करनी चाहिये। रोपाई के तुरन्त बाद खेत में हल्का पानी देना। पौध को नाइट्रोजन यूरिया के घोल से दी जाये तो पौधे स्वस्थ रहते हैं। खरीफ में पौध की रोपाई करते समय लाइन से लाइन की दूरी 60 सेमी० और पौधे से पौधे की दूरी 45 सेमी० तथा जायद में लाइन से लाइन की दूरी 45 सेमी० और पौधे से पौधे की दूरी 30 सेमी० होनी चाहिये।
 
खाद एवं उर्वरक:-
खेत की तैयारी करते समय अन्तिम जुताई से पूर्व गोबर की सड़ी हुई खाद 200-300 कुन्तल प्रति एक हेक्टेयर की दर फैलाकर भूमि में अच्छे से मिलाना चाहिये। इसके अलावा रोपण के समय नाइट्रोजन  किग्रा०, फॉस्फोरस  किग्रा० और पोटाश  किग्रा० प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिये। नाइट्रोजन की आधी  मात्रा रोपण के समय और शेष मात्रा रोपण के बाद
 
सिंचाई:-
पहली सिंचाई रोपाई के तुरन्त बाद करनी चाहिये। इसके बाद 8-10 दिन के अन्तराल पर आवश्यकतानुसार सिंचाई।
 
निराई-गुड़ाई:-
सामान्यत: मिर्च में पहली निराई-गुड़ाई 20-25 और दूसरी निराई-गुड़ाई  35-40 दिन बाद करनी चाहिये। खेत में निराई-गुड़ाई का कार्य हाथ से खुरपे द्वारा, डोरा या कोलपा द्वारा करनी चाहिये।
 
खरपतवार नियन्त्रण:-
 खरपतवार नियन्त्रण के लिए समय-समय पर निराई-गुड़ाई करते रहना चाहिये।
 
कीट:-
थ्रिप्स :- यह कीट पत्ती का रस चूसकर हानि पहुँचाता हैं। मार्च से नवम्बर तक इस कीट का प्रकोप अधिक होता हैं।
रोकथाम:- इस कीट से नियन्त्रण के लिये मैलाथियान 50 प्रतिशत ई० सी० 0.05 प्रतिशत या मैलाथियान 5 प्रतिशत धूल 20-25 किग्रा० प्रति एक हेक्टेयर की दर से बुरकना चाहिये।
फुदका कीट:- यह कीट पत्ती तथा मुलायम शाखा का रस चूसकर हानि पहुँचाता हैं। इस कीट का प्रकोप मार्च से अक्टूबर तक अधिक होता हैं।
रोकथाम:- इस कीट से नियन्त्रण के लिये फॉस्फोमिडान 0.03 प्रतिशत, मैलाथियान 50 प्रतिशत ई० सी० 0.05 प्रतिशत या एण्डोसल्फान 0.04 प्रतिशत का पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिये।
पिली माइट:- यह कीट पत्ती का रास चूसते हैं और मिर्च में मुर्दा रोग फैलाते हैं। इसका अधिक प्रकोप फरवरी से अगस्त तक अधिक होता हैं।
रोकथाम:- इस कीट से नियन्त्रण के लिये मैटासिस्टाक्स 0.03 प्रतिशत, मोरोसाइड 0.04 या फोसालोन 0.05 प्रतिशत को पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिये।
 
रोग:-
फल गलन:- यह रोग कॉलेस्ट्रोटरीक हम कैप्सिस नामक फफूँदी के कारण होता हैं। इससे फलों पर गहरे भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं और फलों का रंग उड़ जाता हैं।
रोकथाम:- इस रोग से नियन्त्रण के लिये बीज को एग्रोसन जी० एन० से उपचारित करके बुवाई करनी चाहिये।
मोजेक:- इस रोग से पौधों की बढ़वार रुक जाती हैं। पत्ते मोटे व् मुड़ जाते हैं। पौधा झाड़ीनुमा हो जाता हैं। पत्ती पिली पड़ जाती हैं।
रोकथाम:- इस रोग से नियन्त्रण के लिये मैलाथियान 5 प्रतिशत धूल 1.0 प्रतिशत का पानी में घोल बनाकर 10-15 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करना चाहिये। रोगी पौधों को उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिये। रोग प्रतिरोधी किस्म की बुवाई करनी चाहिये।
आद्र गलन:- यह रोग पिथियम स्पीसीज या फाइटोफथोरा स्पीसीज नामक फफूँदी के कारण होता हैं। इस रोग से पौधे छोटे ही  हैं।
रोकथाम:- इस रोग से नियन्त्रण के लिये डाईथेन एम-45 का 0.03 प्रतिशत का पानी में घोल बनाकर छिड़काव किया जाता हैं।
 
फलियों की तुड़ाई:-
मिर्च की फलियाँ जब पककर लाल हो जायें तब इनकी तुड़ाई करनी चाहिये। आमतौर से फलियाँ दिसम्बर से जनवरी में पकती हैं।
 
उपज:-
ताजी मिर्च की पैदावार 40-60 कुन्तल तथा सूखी मिर्च 10-15 प्रति एक हेक्टेयर प्राप्त होती हैं।
 
भण्डारण:-
हरी मिर्च के फलों को 7-10 डिग्री से० तापमान तथा 90-95 प्रतिशत आद्रता पर 14-21 दिन तक भण्डारित किया जा सकता हैं। लाल मिर्च को 3-10 दिन तक सूर्य की तेज धुप में सुखाकर 10 प्रतिशत नमी पर भण्डारण करना चाहिये।
 
बीज उत्पादन:-
यह स्वपरागित फल हैं फिर भी परपरागण की बहुत सम्भावना रहती हैं। दो किस्मों बीच लगभग 400 मीटर की दूरी रखते हैं। बीज उत्पादन के लिये अच्छे स्वस्थ एवं पूर्ण विकसित फलों को चुना जाता हैं। पूरी पकने पर ही फल को तोड़ा जाता हैं। शिमला मिर्च में  पूरा रंग लेकर सिकुड़ने लगे, बीज के लिये तभी तोड़ना चाहियें। बीज की औसत उपज 50-80 किग्रा० प्रति एक हेक्टेयर प्राप्त होती हैं। यह उपज विभिन्न किस्मों में अलग-अलग मात्रा में पायी जाती हैं।

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