बुधवार, 8 नवंबर 2017

अनार

अनार (Pomegranate)
 
वैज्ञानिक नाम (Botanical name):-              (Punica granatum L.)।
कुल (Family) :-                                        (Punicaceae)
गुणसूत्र संख्या (Chromosome number):-   2n =  16 

अनार:-
अनार खाने में स्वादिष्ट व देखने में आकर्षक फल हैं। यह विटामिन का बहुत अच्छा स्त्रोत हैं, इसमें विटामिन ए,  सी, ई और फोलिक एसिड प्रचुर मात्रा  में होता हैं। भारत में इसकी बागवानी लगभग 1200 हेक्टेयर भूमि में की जाती हैं।अनार की बागवानी महाराष्ट्र में अन्य राज्यों की अपेक्षा काफी बड़े पैमाने पर 800 हेक्टेयर भूमि में की जाती हैं। शेष भाग गुजरात, उत्तर प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु में हैं। भारत के अलावा इसकी बागवानी स्पेन, मोरक्को, मिश्र, ईरान, अरब, अफगानिस्तान में बड़े पैमाने पर तथा बर्मा, चीन, जापान व संयुक्त राज्य अमेरिका में भी इसकी बागवानी की जाती हैं।

उत्पत्ति:-
अनार का मूलस्थान ईरान हैं। अनार सर्वप्रथम 17वीं शताब्दी में चीन से भारत आया और धीरे-धीरे इसकी बागवानी देश के विभिन्न क्षेत्रों में शुरू की गई।

 
जलवायु:-
शुष्क एवं अर्द्ध शुष्क क्षेत्र की जलवायु (जाड़ों में सामान्य ठंडक, गर्मयों में गर्म) अनार की खेती के लिये अति उत्तम हैं। फलों की वृद्धि तथा पकने के समय 40 डिग्री से० तापमान (गर्म व शुष्क जलवायु) उपयुक्त रहता हैं। 11 डिग्री से० से कम तापमान का पौधों की वृद्धि पर बुरा प्रभाव पड़ता हैं। पूर्ण विकसित फलों में रंग,दानों  रंग व मिठास  लिये अपेक्षाकृत कम तापमान  आवश्यकता होती हैं। वातावरण, मृदा में नमी एवं तापमान में अत्यधिक उतार-चढ़ाव से फलों के फटने की समस्या बढ़ जाती हैं, जिससे उनकी गुणवत्ता पर विपरीत प्रभाव पड़ता हैं।
 
भूमि:-
अनार के पौधें में लवण एवं क्षारीयता सहन करने की अद्भुत क्षमता होती हैं। मृदा का पी० एच० मान 6.5 से 7.5 अच्छा माना जाता हैं। अनार की खेती के लिये उचित जल निकास वाली, गहरी बलुई दोमट भूमि सबसे अच्छी मानी जाती हैं। परन्तु क्षारीय भूमि व लवणीय भूमि में भी अनार की अच्छी पैदावार ली जा सकती हैं।
 
प्रजातियाँ:-
  • पर्णपाती किस्म:- ऐसी किस्मों में पौधों को सभी पत्तियाँ झड़ जाती हैं। इनमें फूल एवं फसल हेतु जाड़ों में काम तापमान की आवश्यकता होती हैं। ऐसा न होने पर अच्छी फलत नहीं मिलती हैं। अत: पर्णपाती किस्मों को उत्तर प्रदेश के मैदानी इलाकों में नहीं लगाना चाहिये।
  • सदाबहार किस्म:- ऐसी किस्मों में पौधों की पत्तियाँ नहीं झड़ती हैं अत: कम ठण्डक वाले इलाकों में इसकी खेती की जाती हैं। इसकी प्रमुख किस्में गनेश, ढोलका, बेसिन, सीडलेस, काबुली, मुसकैट, जोधपुरी आदि हैं।
  • शुष्क एवं अर्ध शुष्क जलवायु की किस्म:- जालोर सीडलेस, जी-137, पी-२३, मृदुला, भगवा आदि  हैं।
  • अन्य किस्म:- अलांडी व मास्क्रेट आदि किस्म भी उगाई जाती हैं।
पौध तैयार करना (प्रवर्धन,Propogation):-
अनार का प्रवर्धन बीज, कलम व गूटी द्वारा किया जाता हैं। नवम्बर अथवा फरवरी में पकी सख्त काष्ट कलम अनार के वानस्पतिक प्रवर्धन की सबसे आसान व व्यवसायिक विधि हैं। कलमें तैयार करने लिये एक वर्षीय पकी हुई टहनियों चुनते हैं। टहनियों की जब वार्षिक  काँट-छाँट होती हैं उस समय लगभग 15-20 सेमी० लम्बी स्वस्थ कलमें, जिनमें 3-4 स्वस्थ कलियाँ मौजूद हो, को काट कर बंडल बना लेते हैं। ऊपर का कटाव आँख के 5.5 सेमी० ऊपर व नीचे का कटाव आँख के ठीक नीचे करना चाहिये। पहचान के लिये कलम का ऊपरी कटाव तिरछा व नीचे का कटाव सीधा होना चाहिये। तत्पश्चात कटी हुई कलमों को 0.5 प्रतिशत कार्बेन्डाजिम या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड के घोल में भिगों लेना चाहिये तथा भीगे हुए भाग को छाया में सुखा लेना चाहिये। कलमों लगाने से पहले आधार भाग का 6 सेमी० सिरा 2000 पी० पी० एम० (2 ग्राम प्रति एक लीटर) आई० बी० ए० के घोल में 55 सेकण्ड के लिये उपचारित करे। इससे जड़े जल्दी फुट जाती हैं। कलमों को थोड़ा तिरछा करके रोपण करते हैं। कलम की लगभग आधी लम्बाई भूमि के भीतर व आधी बाहर रखते हैं। दो आँखे भूमि के बाहर व अन्य आँखे भूमि में गाड़ देनी चाहिये। कलम लगाने के तुरन्त बाद नियमित सिंचाई करते रहना चाहिये। लगभग 2 महीने बाद अधिक बढ़ी हुई टहनियों की कटाई-छँटाई कर देनी चाहिये। तथा समय-समय पर कृषि क्रियाएँ एवं छिड़काव आदि करते रहना चाहिये।

बाग की स्थापना (रोपण का समय):-
अनार का बगीचा लगाने के लिए रेखांकन एवं गड्ढ़ा खोदने का कार्य मई माह में पूरा कर लेना चाहिये। इसके लिये वर्गाकार या आयताकार विधि से 4 X 4 मीटर (625 पौधे प्रति एक हेक्टेयर) या 5 X 3 मीटर (666 पौधे प्रति एक हेक्टेयर) की दूरी पर, 60 X 60 X  60 सेमी० आकार के गड्डे खोदकर 0.1 प्रतिशत कार्बेन्डाजिम के घोल से अच्छी तरह भिगों देना चाहिये। तत्पश्चात 50 ग्राम प्रति एक गड्डे के हिसाब से कार्बोनिल चूर्ण व थीमेट का बुरकाव भी गड्डे भरने से पहले अवश्य करना चाहिये। जिन स्थानों पर बैक्टीरियल ब्लाइट की समस्या हो वहाँ प्रति एक गड्डे में 100 ग्राम कैल्शियम हाइपोक्लोराइट से भी उपचार करना चाहिये। ऊपरी उपजाऊ मिट्टी में 10 किग्रा० सड़ी गोबर की खाद, 2 किग्रा० वर्मीकम्पोस्ट, 2 किग्रा० नीम की खली तथा यदि सम्भव हो तो 25 किग्रा० ट्राइकोडर्मा आदि को मिलाकर गड्डों को ऊपर तक भर कर पानी डाल देना चाहिये जिससे मिट्टी अच्छी तरह बैठ जाये। पौध रोपण से एक दिन पहले 100 ग्राम नाइट्रोजन, 50 ग्राम फॉस्फोरस तथा 50 ग्राम पोटाश प्रति एक गड्डों के हिसाब से डालने से पौधों की स्थापना पर अनुकूल प्रभाव पड़ता हैं। पौध रोपण के लिये जुलाई-अगस्त का समय अच्छा रहता हैं, परन्तु पर्याप्त सिंचाई की सुविधा उपलब्ध होने पर फरवरी-मार्च में भी पौधे लगाये जा सकते हैं।

कलम को उपचारित करना:-
कलम को गड्डे में दबाने से पहले 0.1 प्रतिशत कार्बेन्डाजिम के घोल से अच्छी तरह भिगों देना चाहिये। तत्पश्चात 50 ग्राम प्रति एक गड्डे के हिसाब से कार्बोनिल चूर्ण व थीमेट का बुरकाव भी गड्डे भरने से पहले अवश्य करना चाहिये। जिन स्थानों पर बैक्टीरियल ब्लाइट की समस्या हो वहाँ प्रति एक गड्डे में 100 ग्राम कैल्शियम हाइपोक्लोराइट से भी उपचार करना चाहिये।

कृन्तन:-
अनार के पौधों में आधार से अनेक शाखाएँ निकलती रहती हैं। यदि इनको समय-समय पर निकाला न जाये तो अनेक मुख्य तने बन जाते हैं जिससे उपज तथा गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हैं। उपज तथा गुणवत्ता की दृष्टि से प्रत्येक पौधों में 3-4 मुख्य तने ही रखना चाहिये तथा शेष को समय-समय पर निकलते रहना चाहिये।
    नये पौधों को उचित आकार देने के लिये कटाई-छँटाई करना आवश्यक होता हैं। अनार में 3-4 साल तक एक ही परिपक्व शाखाओं के अग्रभाग में फूल एवं फल खिलते रहते हैं। इसलिए नियमित काँट-छाँट आवश्यक नहीं हैं। परन्तु सुखी रोगग्रस्त टहनियों, बेतरतीब शाखाओं तथा सकर्स को सुषुप्ता अवस्था में निकालते रहना चाहिये।   

खाद एवं उर्वरक:-
उर्वरक एवं सूक्ष्म पोषक तत्व निर्धारित करने के लिये मृदा परीक्षण अति आवश्यक हैं। सामान्य मृदा में 10 किग्रा० गोबर की सड़ी खाद, 250 ग्राम नाइट्रोजन, 125 ग्राम फॉस्फोरस, 125 ग्राम पोटाश प्रतिवर्ष प्रति एक पेड़ देना चाहिये। प्रत्येक वर्ष इसकी मात्रा इस प्रकार बढ़ाते रहना चाहिये कि पाँच वर्ष बाद प्रत्येक पौधों को क्रमशः 625 ग्राम नाइट्रोजन, 250 ग्राम फास्फोरस तथा 250 ग्राम पोटाश दिया जा सके।
     शुरू में तीन वर्ष तक जब पौधों में फल नहीं आ रहे हो, उर्वरकों को तीन बार में जनवरी, जून तथा सितम्बर में देना चाहिये तथा चौथे वर्ष में जब फल आने लगे तो मौसम के अनुसार दो बार में देना चाहिये। अतः गोबर की खाद व फॉस्फोरस की पूरी मात्रा तथा नाइट्रोजन व पोटाश की आधी मात्रा जुलाई में तथा शेष आधी मात्रा अक्टूबर में पौधों के चारों तरफ एक से डेढ़ मीटर की परिधि में 15-20 सेमी० गहराई में ड़ालकर मिट्टी में मिला देना चाहिये। अनार की खेती में सूक्ष्म पोषक तत्वों का एक अलग महत्त्व हैं। इसके लिये जिंक सल्फेट 6 ग्राम, फेरस सल्फेट 4 ग्राम तथा बोरेक्स 4 ग्राम या मल्टीप्लेक्स 2 मिलीग्राम प्रति एक लीटर का घोल बनाकर पर्णीय छिडकाव फूल आने तथा फल बनने के समय करना चाहिये।

सिंचाई एवं जल प्रबन्धन:-
गर्मियों में 5-7 दिन, सर्दियों में 10-12 दिन तथा वर्षा ऋतु में 10-15 दिन के अन्तराल पर 20-40 लीटर प्रति एक पौधा सिंचाई की आवश्यकता होती हैं। अनार में टपक सिंचाई पद्धति अत्यधिक लाभप्रद हैं क्योंकि इससे 20-43 प्रतिशत पानी की बचत होती हैं, साथ ही 30-35 प्रतिशत उपज में भी बढ़ोतरी हो जाती हैं तथा फल फटने की समस्या का भी कुछ सीमा तक समाधान हो जाता हैं। मृदा नमी के संरक्षित रखने के लिये काली पॉलीथीन (150 गेज) का पलवार बिछाना चाहिये तथा कोओलीन के 6 प्रतिशत 6 ग्राम प्रति एक लीटर का घोल बनाकर पर्णीय छिडकाव करना चाहिये।

कीट:-
तना छेदक:- इस कीड़े की इल्लियाँ शाखा में छिद्र बना देती हैं। कीड़ा तने अथवा मुख्य शाखाओं में छिद्र करता हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिये छिद्रों में तारकोल ड़ालकर इल्लियों को नष्ट किया जा सकता हैं। छिद्र में पैट्रोल व् मिट्टी का तेल को भी छिद्र में भरकर कीड़ों को नष्ट किया जा सकता हैं।
अनार की तितली:-
रोकथाम:- इसे हाथ की जाली से एकत्रित करके नष्ट किया जा सकता हैं। फल बनने के बाद जब फल का छिलका सख्त हो जाता हैं तब मेटासिस्टोक्स 0.3 प्रतिशत का पानी में घोल बनाकर 15-20 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करना चाहिये।

रोग:-
पर्ण एवं फल चित्ती:- यह रोग सर्कोस्पारो तथा ग्लिओस्पोरियम नामक कवक द्वार फैलता हैं। इसमें फल व पत्ती दोनों ही प्रभावित होती हैं। उन पर छोटे-छोटे गोल भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं और बाद में फल सड़ जाते हैं।
रोकथाम:- इस रोग की रोकथाम के लिये डायथेन एम-45 या केप्टान 500 ग्राम 200 लीटर पानी में घोलकर 15 दिन के अन्तराल पर 3-4 छिड़काव करना चाहिये।
 
फूल आना:-
अनार में वर्ष भर फूल आते रहते हैं परन्तु इसके तीन मुख्य मौसम हैं जिन्हें अम्बे बहार (जनवरी-फरवरी), मृग बहार (जून-जुलाई) और हस्तबहार (सितम्बर-अक्तूबर) कहते हैं।
      वर्ष में कई बार फूल आना व फल लेते रहना उपज एवं गुणवत्ता की द्रष्टि से ठीक नहीं रहता हैं। इसमें जून-जुलाई में फूल आते हैं तथा दिसम्बर-जनवरी में फल तुड़ाई के लिये तैयार हो जाते हैं अर्थात अधिकतर फल विकास वर्षा ऋतु में पूर्ण हो जाते हैं।

अन्त: सस्यन:-
बाग लगाने के प्रारम्भिक तीन-चार वर्षों तक कतारों के बीच काफी जगह खाली रहती हैं जिसके समुचित उपयोग के लिये अन्त: सस्यन करते हैं। इस क्रिया से न केवल अतिरिक्त लाभ कमाया जा सकता हैं अपितु यह भूमि कटाव रोकने, पाले एवं तेज हवाओं से बचाने, भूमि की उर्वरकता व जल धारण क्षमता नियंत्रित रखने में भी सहायक होती हैं। दलहनी फसलें जैसे ग्वार, मोठ,मटर, लोबिया, मूँग, चना, उर्द व मूंगफली आदि की फसल उगाई जा सकती हैं।

फलों का तोडना:-
उचित देखभाल तथा उन्नत प्रबन्धन अपनाने से अनार से चौथे वर्ष में फल लिया जा सकता हैं परन्तु इसकी अच्छी फसल 6-7 वर्ष पश्चात ही मिलती हैं तथा 25-30 वर्ष तक अच्छा उत्पादन लिया जा सकता हैं। अनार के फूल,फल आने के 5-6 महीने बाद फल तोड़ने लायक हो जाते हैं। पकने पर फलों का छिलका भूरा और पीलापन लिये हुये होता हैं। पके फलों को सिकेटियर या अन्य किसी तेज धार वाले औजार से काट लिया जाता हैं।

उपज:-
अनार की उपज किस्म तथा पौधे के रखरखाव पर निर्भर करती हैं। 200-250 प्रति एक पौधे से फल प्राप्त किये जा सकते हैं। एक विकसित पेड़ पर लगभग 50-60 फल रखना उपज एवं गुणवत्ता की दृष्टि से ठीक रहता हैं। एक हेक्टेयर में 600 पौधे लग जाते हैं इस हिसाब से प्रति एक हेक्टेयर 90-120 कुन्तल तक बाजार भेजने योग्य फल मिल जाते हैं। इस हिसाब से एक हेक्टेयर से 5-6 लाख रूपये सालाना आय हो सकती हैं। लागत निकालने के बाद भी लाभ आकर्षक रहता हैं।


final 

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