परिचय:-
फसलों में दो प्रकार के बीज जनित रोग पाए जाते है । एक बाह्य जनित रोग- इसमें बीज एन्थ्रेक्नोज, बंधा गोभी का ब्लैक लेग, धान का जीवाणु पत्ती अंगमारी, कपास का जीवाणु अंगमारी, गेहूँ एवं जौ का अनावृत कंड तथा धान का आभारी कंड हैं । दूसरा बीज जनित एवं अल्टरनेरिया (आलू एवं टमाटर का अगेती झुलसा, सरसों कुल का अंगमारी एवं प्याज में अंगमारी), "यूजेरियम, हेल्मिन्थोस्पोरियम, सर्कोस्पोरा आदि बीज जनित रोग कारक है । इनसे अनाज व सब्जी फसलों को काफी नुकसान होता है । बीज उपचार द्वारा फसलों में होने वाले नुकसान को 15 से 20 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है ।
फसल उत्पादन में बीज की भूमि अहम हैं। एक स्वस्थ एवं उन्नत बीज ही अच्छी फसल का मुख्य आधार हैं । बोई जाने वाली किस्म जिसमें रोग/कीट रोधी क्षमता हो उसी का बुआई के लिए प्रयोग करे ।
बीजोपचार की विधियाँ:-बीज जनित रोगों की रोकथाम का सबसे सस्ता व सरल उपाय बीज को उपचार करना है, बीज को उपचार करने का मुख्य उद्देश्य बीज तथा भूमि में उपस्थित रोग जनकों से बीज की रक्षा करना हैं।
बीजोपचार की निम्नलिखित विधियाँ है:-
भौतिक विधि:- इस विधि में नमक से बीज को उपचारित करने से गेहूँ के बीज की कंडवा रोग से रोकथाम की जा सकती हैं । इसके लिए नमक का घोल बनाना होता हैं फिर उस घोल में गेंहू के बीज को कम से कम 30 मिनट तक डुबोकर रखना होता हैं । फिर बीज को पानी से बाहर निकालकर सूर्य की तेज धूप में सुखाया जाता हैं उसके बाद गेंहू के बीज की बुवाई कर दी जाती हैं ।
सूर्यताप द्वारा बीजोपचार:- इस विधि में बीज को पहले सादे पानी में 3-4 घंटे तक भिगोते है । फिर सूर्य ताप में 4 घंटे तक रखते है, जिससे बीज के आंतरिक भाग में उपस्थित रोगजनक का कवकजाल नष्ट हो जाता है । ऐसा करने से कंडवा रोग व गजनक की सुषुप्तावस्था को तोड़ा जाता हैं ।
गर्म जल द्वारा बीजोपचार:- इस विधि में जीवाणु और विषाणु से बीज की रोकथाम की जाती है । इस विधि में बीज को 53-54 डिग्री सेल्सियस तापमान पर 15 मिनट तक गर्म पानी में उबाला जाता है जिससे रोगजनक नष्ट हो जाते है । जबकि बीज अंकुरण पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता हैं । जैसे गाजर के बीज को गर्म जल में 50 डिग्री सेल्सियस पर 30 मिनट तक रखा जाये तो आल्टरनेरिया नमक रोग नष्ट हो जाता है ।
गर्म वायु द्वारा:- इसी विधि में बीज को 46 डिग्री सेल्सियस पर गर्म वायु में 2 मिनट तक रखा जाये तो मोजेक रोग का प्रकोप कम होता है । जैसे टमाटर के बीज 46 डिग्री सेल्सियस तक गर्म वायु में 2 मिनट तक रखने पर मोजेक रोग और 6 घंटे तक 29-37 डिग्री सेल्सियस पर गर्म वायु में रखने पर फाइटोपथोरा इन्फेस्टेंस रोग का असर खत्म हो जाता है ।
विकिरण द्वारा:- इस विधि में विभिन्न तीव्रता की अल्ट्रावायलेट या एक्स किरणों को अलग-अलग समय तक बीजों पर गुजारा जाता है, जिससे रोगजनक नष्ट हो जाते हैं ।
रासायनिक बीजोपचार:- इस विधि में रासायनिक दवाओं का प्रयोग किया जाता है । इस विधि में दैहिक या अदैहिक फफूंदनाशक बीज के अंदर अवशोषित होकर बीजजनित रोगाणु को नष्ट करते है या एक सुरक्षा कवच के रूप में बीज के चारों ओर एक घेरा बना लेते हैं, जिससे बीज पर रोगाणुओं का आक्रमण नही हो पाता हैं । सर्वागी फफूंदनाशक जैसे – थायरम, कैप्टान, एग्रोसान, डायथेम एम -45, डायफोलेटॉन आदि की मात्रा 2.5 से 3.0 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज को उपचरित करने के लिए पर्याप्त होती हैं । जबकि दैहिक फफूंदनाशकों जैसे – कार्बोन्डोजिम, बीटावैक्स, वेनलेट, बेनोमिल आदि की मात्रा 1.5 से 2.0 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज को उपचारित करने के लिए पर्याप्त होती है ।
सावधानियाँ:-
स्त्रोत:- कृषि विभाग, उत्तर प्रदेश सरकार
फसलों में दो प्रकार के बीज जनित रोग पाए जाते है । एक बाह्य जनित रोग- इसमें बीज एन्थ्रेक्नोज, बंधा गोभी का ब्लैक लेग, धान का जीवाणु पत्ती अंगमारी, कपास का जीवाणु अंगमारी, गेहूँ एवं जौ का अनावृत कंड तथा धान का आभारी कंड हैं । दूसरा बीज जनित एवं अल्टरनेरिया (आलू एवं टमाटर का अगेती झुलसा, सरसों कुल का अंगमारी एवं प्याज में अंगमारी), "यूजेरियम, हेल्मिन्थोस्पोरियम, सर्कोस्पोरा आदि बीज जनित रोग कारक है । इनसे अनाज व सब्जी फसलों को काफी नुकसान होता है । बीज उपचार द्वारा फसलों में होने वाले नुकसान को 15 से 20 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है ।
फसल उत्पादन में बीज की भूमि अहम हैं। एक स्वस्थ एवं उन्नत बीज ही अच्छी फसल का मुख्य आधार हैं । बोई जाने वाली किस्म जिसमें रोग/कीट रोधी क्षमता हो उसी का बुआई के लिए प्रयोग करे ।
बीजोपचार की विधियाँ:-बीज जनित रोगों की रोकथाम का सबसे सस्ता व सरल उपाय बीज को उपचार करना है, बीज को उपचार करने का मुख्य उद्देश्य बीज तथा भूमि में उपस्थित रोग जनकों से बीज की रक्षा करना हैं।
बीजोपचार की निम्नलिखित विधियाँ है:-
भौतिक विधि:- इस विधि में नमक से बीज को उपचारित करने से गेहूँ के बीज की कंडवा रोग से रोकथाम की जा सकती हैं । इसके लिए नमक का घोल बनाना होता हैं फिर उस घोल में गेंहू के बीज को कम से कम 30 मिनट तक डुबोकर रखना होता हैं । फिर बीज को पानी से बाहर निकालकर सूर्य की तेज धूप में सुखाया जाता हैं उसके बाद गेंहू के बीज की बुवाई कर दी जाती हैं ।
सूर्यताप द्वारा बीजोपचार:- इस विधि में बीज को पहले सादे पानी में 3-4 घंटे तक भिगोते है । फिर सूर्य ताप में 4 घंटे तक रखते है, जिससे बीज के आंतरिक भाग में उपस्थित रोगजनक का कवकजाल नष्ट हो जाता है । ऐसा करने से कंडवा रोग व गजनक की सुषुप्तावस्था को तोड़ा जाता हैं ।
गर्म जल द्वारा बीजोपचार:- इस विधि में जीवाणु और विषाणु से बीज की रोकथाम की जाती है । इस विधि में बीज को 53-54 डिग्री सेल्सियस तापमान पर 15 मिनट तक गर्म पानी में उबाला जाता है जिससे रोगजनक नष्ट हो जाते है । जबकि बीज अंकुरण पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता हैं । जैसे गाजर के बीज को गर्म जल में 50 डिग्री सेल्सियस पर 30 मिनट तक रखा जाये तो आल्टरनेरिया नमक रोग नष्ट हो जाता है ।
गर्म वायु द्वारा:- इसी विधि में बीज को 46 डिग्री सेल्सियस पर गर्म वायु में 2 मिनट तक रखा जाये तो मोजेक रोग का प्रकोप कम होता है । जैसे टमाटर के बीज 46 डिग्री सेल्सियस तक गर्म वायु में 2 मिनट तक रखने पर मोजेक रोग और 6 घंटे तक 29-37 डिग्री सेल्सियस पर गर्म वायु में रखने पर फाइटोपथोरा इन्फेस्टेंस रोग का असर खत्म हो जाता है ।
विकिरण द्वारा:- इस विधि में विभिन्न तीव्रता की अल्ट्रावायलेट या एक्स किरणों को अलग-अलग समय तक बीजों पर गुजारा जाता है, जिससे रोगजनक नष्ट हो जाते हैं ।
रासायनिक बीजोपचार:- इस विधि में रासायनिक दवाओं का प्रयोग किया जाता है । इस विधि में दैहिक या अदैहिक फफूंदनाशक बीज के अंदर अवशोषित होकर बीजजनित रोगाणु को नष्ट करते है या एक सुरक्षा कवच के रूप में बीज के चारों ओर एक घेरा बना लेते हैं, जिससे बीज पर रोगाणुओं का आक्रमण नही हो पाता हैं । सर्वागी फफूंदनाशक जैसे – थायरम, कैप्टान, एग्रोसान, डायथेम एम -45, डायफोलेटॉन आदि की मात्रा 2.5 से 3.0 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज को उपचरित करने के लिए पर्याप्त होती हैं । जबकि दैहिक फफूंदनाशकों जैसे – कार्बोन्डोजिम, बीटावैक्स, वेनलेट, बेनोमिल आदि की मात्रा 1.5 से 2.0 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज को उपचारित करने के लिए पर्याप्त होती है ।
फफूंदनाशक दवाओं से बीजोपचार मुख्यत: निम्न विधियों से किया जाता है:-
सूखा उपचार:- यह विधि सोयाबीन, ज्वार, मूंगफली, उड़द, मूंग, अरहर, सूर्यमुखी, गेहूँ, चना, अलसी, सरसों आदि फसलों के लिए उपयुक्त हैं । बीजोपचार के लिए बीज तथा फफूंदनाशक दवा की उपयुक्त मात्रा को किसी ड्रम या मिट्टी के घड़े में डालकर 10 मिनट तक घुमाते हैं । ऐसा करने से बीजो पर समान रूप से फफूंदनाशक चिपक जाता हैं ।
गीला उपचार:- यह विधि ऐसी फसलों के लिए प्रयोग में लाई जाती है जिसके कंद व तना बुआई के लिए प्रयोग किये जाते है, जैसे गन्ना, आलू, अदरक, हल्दी, लहसुन, अरबी आदि । कन्द व तने को उपचार करने के लिए आवश्यक मात्रा में पानी व दवा का घोल बनाकर उसमें 10 मिनट तक कन्द व तने को डुबोकर रखते हैं, फिर बुआई करते है ।
स्लीरी विधि:- यह एक व्यापारिक विधि हैं । इस विधि में बड़े स्तर पर बीजों को उपचरित किया जाता हैं । इस विधि में आवश्यकतानुसार कवकनाशी की निर्धारित मात्रा का गाढ़ा पेस्ट बनाते हैं । फिर बीज की उचित मात्रा के साथ अच्छी तरह से मिलाया जाता है । मिलाने के बाद बीज को अच्छी तरह से सुखाते हैं । सुखाने के बाद बीज को बेचने के लिए पैक कर संग्रहित कर लेते हैं ।
धुमिकरण:- जीवाणु रोगों के नियंत्रण के लिए यह एक बहुत अच्छी विधि है । इस विधि में सोयाबीन के बीजों को फामेल्डिहाइट के साथ 2 घंटे तक या हाइड्रोजाइक अम्ल के साथ 53 घंटे तक धुमिकृत करने से 80 प्रतिशत तक जीवाणु मुक्त हो जाते हैं । दीमक से बीज को बचाने के लिए कीटनाशी के रूप में क्लोरपाईरीफ़ॉस 3-7 मि.ली. प्रति किलो बीज की उपचरित करके बुआई करते हैं ।
जैविक बीजोपचार:- इस विधि में जैविक पदार्थ, हानिकारक कवक व जीवाणु के लिए स्थान, पोषक पदार्थ, जल, हवा की कमी कर देते हैं या फिर रोगजनक के शरीर से चिपककर जीवाणु को नष्ट कर देते हैं । पीथियम, राईजोक्टोनिया, फाइटोपथोर स्केलेरोशियम, मैक्रोफोमिना इत्यादि ये सभी रोग कवक या जीवाणु से उत्पन होते हैं, इनसे होने वाली विभिन्न बीमारी जैसे – जड़ गलन, आर्द्रगलन, उकठा, बीज सड़न, अंगमारी आदि है । ट्राइकोडर्मा की प्रजाति, वैसिलय सबटिलिस, स्यूडोमोनास प्रजाति, ग्लोमस आदि प्रमुख है । इनकी मात्रा 4-5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज के लिए पर्याप्त है ।
हल्दी, अदरख एवं ग्लैडिओलस के कॉर्म(घनकन्द) का उपचार:-
घनकंद उपचार के लिए 10 ग्राम जैव नियंत्रक पाउडर प्रति लीटर पानी का घोल बनाते हैं । फिर घनकन्द को घोल में डालते है । जिससे पूरा बीज अच्छी तरह से पाउडर द्वारा उपचारित हो जाए । पानी की इतनी मात्रा लेते है जिससे बीज उपचार के बाद घोल न बचे । चिकने बीज जैसे – मटर, अरहर, सोयाबीन आदि के उपचार के लिए घोल में कुछ चिपकने वाला पदार्थ जैसे – गोंद, कार्वोक्सी मिथाइल, सेलुलोज आदि मिलाते हैं । जिससे जैव नियंत्रक बीज से अच्छी तरह से चिपक जाये । इसके बाद उपचारित बीज को छाया में फैलाकर एक रात के लिए रख देते है । और अगले दिन बीज की बुआई करते है ।
पौध (बिचड़ा) उपचारण:-
पौध को खेत में रोपने से पहले पौध की जड़ को जैव नियंत्रक के घोल से उपचारित करते हैं । इसके लिए पौध को पौधशाला से उखाड़कर उसकी जड़ को पानी से अच्छी तरह साफ़ कर लेते है । फिर इसको जैव नियंत्रक घोल में आधा घंटा के लिए रख देते हैं । पौध उपचारण मुख्यत: धान, टमाटर, बैगन, गोभी, मिर्च, शिमला मिर्च इत्यादी के लिए करते है ।
बीज उपचार के लिए मात्रा:-
सूखा उपचार:- यह विधि सोयाबीन, ज्वार, मूंगफली, उड़द, मूंग, अरहर, सूर्यमुखी, गेहूँ, चना, अलसी, सरसों आदि फसलों के लिए उपयुक्त हैं । बीजोपचार के लिए बीज तथा फफूंदनाशक दवा की उपयुक्त मात्रा को किसी ड्रम या मिट्टी के घड़े में डालकर 10 मिनट तक घुमाते हैं । ऐसा करने से बीजो पर समान रूप से फफूंदनाशक चिपक जाता हैं ।
गीला उपचार:- यह विधि ऐसी फसलों के लिए प्रयोग में लाई जाती है जिसके कंद व तना बुआई के लिए प्रयोग किये जाते है, जैसे गन्ना, आलू, अदरक, हल्दी, लहसुन, अरबी आदि । कन्द व तने को उपचार करने के लिए आवश्यक मात्रा में पानी व दवा का घोल बनाकर उसमें 10 मिनट तक कन्द व तने को डुबोकर रखते हैं, फिर बुआई करते है ।
स्लीरी विधि:- यह एक व्यापारिक विधि हैं । इस विधि में बड़े स्तर पर बीजों को उपचरित किया जाता हैं । इस विधि में आवश्यकतानुसार कवकनाशी की निर्धारित मात्रा का गाढ़ा पेस्ट बनाते हैं । फिर बीज की उचित मात्रा के साथ अच्छी तरह से मिलाया जाता है । मिलाने के बाद बीज को अच्छी तरह से सुखाते हैं । सुखाने के बाद बीज को बेचने के लिए पैक कर संग्रहित कर लेते हैं ।
धुमिकरण:- जीवाणु रोगों के नियंत्रण के लिए यह एक बहुत अच्छी विधि है । इस विधि में सोयाबीन के बीजों को फामेल्डिहाइट के साथ 2 घंटे तक या हाइड्रोजाइक अम्ल के साथ 53 घंटे तक धुमिकृत करने से 80 प्रतिशत तक जीवाणु मुक्त हो जाते हैं । दीमक से बीज को बचाने के लिए कीटनाशी के रूप में क्लोरपाईरीफ़ॉस 3-7 मि.ली. प्रति किलो बीज की उपचरित करके बुआई करते हैं ।
जैविक बीजोपचार:- इस विधि में जैविक पदार्थ, हानिकारक कवक व जीवाणु के लिए स्थान, पोषक पदार्थ, जल, हवा की कमी कर देते हैं या फिर रोगजनक के शरीर से चिपककर जीवाणु को नष्ट कर देते हैं । पीथियम, राईजोक्टोनिया, फाइटोपथोर स्केलेरोशियम, मैक्रोफोमिना इत्यादि ये सभी रोग कवक या जीवाणु से उत्पन होते हैं, इनसे होने वाली विभिन्न बीमारी जैसे – जड़ गलन, आर्द्रगलन, उकठा, बीज सड़न, अंगमारी आदि है । ट्राइकोडर्मा की प्रजाति, वैसिलय सबटिलिस, स्यूडोमोनास प्रजाति, ग्लोमस आदि प्रमुख है । इनकी मात्रा 4-5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज के लिए पर्याप्त है ।
हल्दी, अदरख एवं ग्लैडिओलस के कॉर्म(घनकन्द) का उपचार:-
घनकंद उपचार के लिए 10 ग्राम जैव नियंत्रक पाउडर प्रति लीटर पानी का घोल बनाते हैं । फिर घनकन्द को घोल में डालते है । जिससे पूरा बीज अच्छी तरह से पाउडर द्वारा उपचारित हो जाए । पानी की इतनी मात्रा लेते है जिससे बीज उपचार के बाद घोल न बचे । चिकने बीज जैसे – मटर, अरहर, सोयाबीन आदि के उपचार के लिए घोल में कुछ चिपकने वाला पदार्थ जैसे – गोंद, कार्वोक्सी मिथाइल, सेलुलोज आदि मिलाते हैं । जिससे जैव नियंत्रक बीज से अच्छी तरह से चिपक जाये । इसके बाद उपचारित बीज को छाया में फैलाकर एक रात के लिए रख देते है । और अगले दिन बीज की बुआई करते है ।
पौध (बिचड़ा) उपचारण:-
पौध को खेत में रोपने से पहले पौध की जड़ को जैव नियंत्रक के घोल से उपचारित करते हैं । इसके लिए पौध को पौधशाला से उखाड़कर उसकी जड़ को पानी से अच्छी तरह साफ़ कर लेते है । फिर इसको जैव नियंत्रक घोल में आधा घंटा के लिए रख देते हैं । पौध उपचारण मुख्यत: धान, टमाटर, बैगन, गोभी, मिर्च, शिमला मिर्च इत्यादी के लिए करते है ।
बीज उपचार के लिए मात्रा:-
क्र.सं.
|
फसल का नाम
|
प्रमुख रोग एवं कीट
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रसायन/ जैव नाशी का नाम
|
रसायन/ जैव नाशी की मात्रा
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1 | धान | झुलसा/ बलास्ट, पत्र लाक्षण/ भूरी | बैकिस्टीन/ कैप्टान | ½ |
जीवाणु पर्ण अंगमारी | स्यूडोमानास फ्लोरिसेंस 0.5% | 10 | ||
अन्य कीट (दीमक) | क्लोरिपारी फ़ॉस | 3 | ||
2 | गेहूँ | अनावृत कंड | रैक्सिल/ विटावैक्स | 1.5/2.5 |
अल्टनेरिया पत्र लाक्षण, अंगमारी, हेल्मिथेस्पोरियम | बैविस्टीन | 2 | ||
दीमक | क्लोरपारीफ़ॉस 20 ई.सी. | 5 मि.ली. | ||
3 | मक्का | हेल्मिथेस्पोरियम, शीथ ब्लास्ट | थीरम/कैप्टाम | 3 |
4 | अरहर, चना, मसूर, मूंग, सनई | उकठा रोग | बैविस्टीन/थीरम | 3 |
उकठा एवं झुलसा | ट्राईकोड्रार्मा विरडी 1% WP | 9 | ||
दीमक | क्लोरपारीफ़ॉस 20 ई. सी. | 6 मिली. | ||
5 | तीसी | उकठा रोग | थीरम | 3 |
6 | सरसो | श्वेत कीटट | बैविस्टर/थीरम | 2/2 |
7 | मूंगफली | बीज एवं मिट्टी जनित रोग | बैविस्टर/थीरम | 2/2 |
8 | गन्ना | लाल सड़न रोग | बैविस्टर/थीरम | 2/2 |
ट्राईकोड्रार्मा एसपेसिज | 4-6 | |||
9 | मटर एवं अन्य फलदार सब्जी | उकठा रोग | कैप्टान/थीरम | 3 |
जड़ सड़न | बेसिलस सुटीलीस | 2.5-5 | ||
10 | भिण्डी | उकठा रोग | कैप्टान/थीरम | 3 |
11 | बैगन | जीवाणु मुरझा रोग | स्यूडोमोनस फ्लोरिसेंस 0.5% WP | 10 -15 |
12 | मिर्च | मिट्टी जनित रोग | ट्राईकोड्रामा विरिडी 1% WP | 2 |
अन्य कीट (जसीड, एफिड, थ्रीप्स) | इमिडाक्लोपिड 70 WP | 10.15 | ||
13 | शिमला मिर्च | रूट नोक्निमेटोड | स्यूडोमोनास फ्लोरिसेंस, भरलिसीलीयम क्लेमाईडोस्पोरियम | 10 |
14 | टमाटर एवं पत्तीदार सब्जी | उकठा | बैविस्टीन | 2 |
स्यूडोमोनास फ्लोरिसेंस, भरलिसीलीयम क्लेमाईडोस्पोरियम | 10 | |||
15 | गाजर, प्याज, मूली, शलजम | बीज एवं मिट्टी जनित रोग | बैविस्टीन | 2 |
ट्राईकोड्राम विरिडीह 1% WP | 2 | |||
16 | आलू | मिट्टी एवं कंद जनित रोग | साफ़/कम्पेनियन | 2 |
17 | गोभी | मृदुरोमिल असित | बैविस्टीन | 1.5-2 |
मिट्टी एवं बीज जनित रोग | ट्राईकोड्रमा विरिडीह 1% WP | 2 | ||
रूट नॉटनिमेटोड | स्यूडोमोनास फ्लोरिसेंस, भरलिसीलीयम क्लेमाईडोस्पोरियम | 10 |
- बीज को उपचारित निर्धारित मात्रा से ही करें ।
- रसायन के प्रयोग करने से पहले एक्सपायरी तिथि अवश्य देख लें ।
- उपचार के उपरान्त डब्बों अथवा थैलों को मिट्टी में अवश्य दबा देंना चाहिये ।
- रसायनों को बच्चों एवं मवेशियों से दूर रखें ।
- बीज उपचार एक कम लागत तकनीक है ।
- इसे आसानी से किसान भाई अपना सकते है ।
- बीजोपचार करने के बाद खड़ी फसल में सुरक्षा के अन्य उपयों करने की कम आवश्यकता पड़ती है ।
- किसानों को फसल में 15-20 प्रतिशत तक मुनाफ़ा मिलता है ।
स्त्रोत:- कृषि विभाग, उत्तर प्रदेश सरकार
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