बुधवार, 11 अक्तूबर 2017

लौकी

लौकी (Bottle gourd)
 
वैज्ञानिक नाम (Botanical name):-             पाइसम सटाइवम (Lagenaria siceraria)
कुल (Family) :-                                        कुकुरबिटेएसी (Cucurbitaceae)
गुणसूत्र संख्या (Chromosome number):-  2n = 22

लौकी:-
इसकी खेती देश के अधिकतर राज्यों में की जाती हैं। वर्षभर अधिक उपज देने वाली फसल के कारण खीरावर्गीय संबजियों में लौकी का महत्वपूर्ण स्थान हैं। लौकी का 86 प्रतिशत भाग खाने के काम आता हैं।

उत्पत्ति:-
लौकी का जन्म स्थान अफ्रीका एवं भारत माने जाते हैं।

जलवायु:-
शुष्क जलवायु वाले क्षेत्र में सिंचाई की उचित व्यवस्था होने पर लौकी की खेती की जाती सकती हैं। और जायद की फसल में उच्च तापमान (35 से 42 डिग्री से०) सहन करने की क्षमता भी होती हैं।

भूमि:-
आलू की अच्छी उपज के लिए बलुई दोमट मिट्टी उपयुक्त रहती हैं। भूमि का पी०एच० मान 5.5 से 7.0 तक होना चाहिये। जल निकास की अच्छी व्यवस्था होनी चाहिये। अधिक ठंडक (पाला) पौधों के लिए हानिकारक होता हैं।

खेत की तैयारी:-
खेत की मिट्टी पलटने वाले हल से लगभग 3-4 जुताई की जाती हैं। उसके बाद पाटा चलाकर खेत को समतल करके तैयार कर लिया जाता हैं।

बुवाई का समय:-
लौकी की बुवाई जायद में फरवरी के प्रारम्भ से लेकर मार्च के प्रथम सप्ताह तक की जा सकती हैं। खरीफ की बुवाई जुलाई से अगस्त तक की जाती हैं।

बीज दर:-
लौकी की बीज दर 4-5 किग्रा० प्रति एक हेक्टेयर होती हैं।

बुवाई का तरीका:-
लौकी के बीज की बुवाई और अंकुरण के लिये खेत में उचित नमी होनी चाहिये। लौकी का बीज कतारों में थाला बनाकर 2.5 सेमी० की गहराई पर बोया जाता हैं। कतार से कतार की दूरी 2-2.5 मीटर और थालों से थालों की दूरी 1 मीटर होनी चाहिये। तथा प्रति एक थाले में 2-4 बीज बोये जाते हैं।

उपचार:-
लौकी के बीज की बुवाई कैप्टान 2 ग्राम प्रति एक किलोग्राम बीज को उपचारित करके बुवाई करनी चाहिये।
 
प्रजातियाँ:-
  • के० लाँग ग्रीव- पौधे की बढ़वार अधिक, फल हल्के रंग के लम्बे, चिकने, मुलायम, गूदेदार, 15-20 फल प्रति पौधा, औसत भार 1.5-2 किग्रा०, उपज 250-300 कुंतल प्रति एक हेक्टेयर, वर्षाकालीन, सम्पूर्ण प्रदेश में उपयुक्त, पछेती, फलत दीर्घ अवधि तक प्राप्त होता हैं।
  • आजाद हरित- पौधे मध्यम बढ़वार वाले, अगेती किस्म, खरीफ व जायद दोनों के लिए उपयुक्त, फलत 60-65 दिन में शुरू, फल छोटे 40-50 सेमी०, औसत भार 1 किग्रा०, 25-30 फल प्रति पौधा, उपज 400-500 कुंतल प्रति एक हेक्टेयर, सम्पूर्ण उत्तर प्रदेश के लिए उपयुक्त, फलत सीमित अवधि तक प्राप्त होती हैं।
  • अर्का बहार- पौधा औसतन 43 सेमी० लम्बा, 26 सेमी० घेराव का होता हैं। फल का औसतन भार 1 किग्रा०, हल्का हरा रंग, गूदा कोमल, खरीफ व जायद दोनों के लिए उपयुक्त, उपज 400-450 कुंतल प्रति एक हेक्टेयर, 115-120 दिन में पककर तैयार हो जाती हैं।
  • पूसा समर प्रोलिफीक लौंग- फल 40-45 सेमी० लम्बा, 20-25 सेमी० घेराव, रंग हल्का हरा, गूदा कोमल, खरीफ व जायद दोनों के लिए उपयुक्त, उपज 119 कुंतल प्रति एक हेक्टेयर होती हैं।
  • पूसा समर प्रोलिफीक राउण्ड- फल हरा, गोल 15 सेमी० व्यास वाले,  अधिक उपज, खरीफ व जायद दोनों के लिए उपयुक्त हैं।
  • पूसा संदेश- फल गोल, हरा रंग लुभावना, मध्यम आकार, औसतन वजन 600 ग्राम, का होता हैं।
अन्य प्रजातियाँ:-

खाद एवं उर्वरक:-
खेत की तैयारी करते समय सड़ी हुई गोबर की खाद 150-200 कुंतल प्रति हेक्टेयर की दर से डालनी चाहिये। बुवाई के समय अन्तिम जुताई से पहले नाइट्रोजन 30 किग्रा० और फास्फोरस 40 किग्रा० प्रति एक हेक्टेयर की दर से देनी चाहिये। शेष नाइट्रोजन की आधी मात्रा एक महीने बाद गुड़ाई करके नमी होने पर पौधों के थालों में देनी चाहिये।

सिंचाई:-
गर्मी के मौसम में अधिक पानी की जरूरत होती हैं। गर्मी में 4-5 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करना उपयुक्त रहता हैं। खरीफ फसल को कम पानी की जरूरत होती हैं। जो की क्षेत्र की कुल औसत वर्षा पर निर्भर करता हैं।

खरपतवार नियंत्रण:-
समय-समय पर निराई-गुड़ाई करके खरपतवार को निकलते रहना चाहिये। लवणीय पानी से सिंचाई करके कई बार गुड़ाई करनी चाहिये, ताकि जमीन पर कड़ी परत न बन सके। लताओं के फैलने के लिये लकड़ी की झाड़ियाँ खेत में कई स्थानों पर रख देनी चाहिये।

कीट:-
लाल भृंग:- यह किट बीज जमने के बाद पौधे की कोमल पत्ती को काटकर नुकसान पहुँचाता हैं।
रोकथाम:- मैलाथियान 0.1 प्रतिशत या रोगोर 0.2 प्रतिशत का घोल बनाकर 7-10 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करना चाहिये।
माहू:- यह किट पत्ती का रस चूसता हैं।
रोकथाम:- मैलाथियान 50 प्रतिशत ई०सी० 1 मिली० प्रति एक लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिये।
फल मक्खी:- यह कीट फल की प्रारम्भिक अवस्था में विकसित होते ही फल को छेदकर खराब कर देती हैं।
रोकथाम:- इन्डोसल्फान या थायोडान 6 मिली० प्रति 4.5 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिये। ऐसा करने से मक्खी द्वारा होने वाले नुकसान को रोका जा सकता  हैं।

रोग:-
चूर्णिल आसिता या छछिया रोग:- इस रोग का फसल पर बहुत भयंकर प्रकोप होता हैं। पत्ती और तने पर साफेद पाउडर जैसी परत बन जाती हैं।
रोकथाम:- बावस्टीन 2 ग्राम या केराथेन 1.5 मिली० प्रति एक लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें। गन्धक का चूर्ण 20-25 किग्रा० प्रति एक हेक्टेयर की दर से प्रयोग करने से चूर्णिल आसिता और माहू को कम किया जा सकता हैं।

उकठा रोग:-
रोकथाम:- कैप्टान 2 ग्राम प्रति एक किलोग्राम बीज को उपचारित करके बुवाई करनी चाहिये।
सूत्रकृमि:-
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिये फसल चक्र अपनायें। बुवाई के समय खेत में नीम केक या नीमागोन 30 किग्रा० प्रति एक हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिये।
विषाणु रोग:- इस रोग में पत्ती सिकुड़ जाती हैं।
रोकथाम:- रोगग्रस्त पौधे को उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिये।

उपज:-
फल की तुड़ाई उचित अवस्था पर करने से अधिक उपज प्राप्त होती हैं। दोनों मौसम की फसल की उपज में बहुत अन्तर पाया जाता हैं। इसका मुख्य कारण गर्मी में फसल की सिंचाई की व्यवस्था हैं। लौकी की एक लता से 3-10 फल प्राप्त हो जाते हैं। लौकी की औसत उपज 100-150 कुंतल प्रति एक हेक्टेयर की दर से होती हैं। जायद फसल की तुड़ाई अप्रैल से जून और खरीफ (वर्षा ऋतु) फसल की तुड़ाई सितम्बर से दिसम्बर तक चलती हैं।

भण्डारण:-
लौकी के फल को 2-3 दिन तक सामान्य तौर पर रखा जा सकता हैं।

फ़ाइनल

सोमवार, 9 अक्तूबर 2017

लहसुन


वैज्ञानिक नाम (Botanical name):-             एलियम सटाइवम (Alium sativum)
कुल (Family) :-                                        एलिएसी (Alliaceae)
गुणसूत्र संख्या (Chromosome number):-  2n = 14

लहसुन:-
भारत वर्ष में लहसुन की खेती का महत्वपूर्ण स्थान हैं। इसकी खेती सम्पूर्ण भारत में की जाती हैं। विश्व में भारत का क्षेत्रफल एवं उत्पादन की द्रष्टि से तीसरा स्थान हैं। तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश (मैनपुरी), गुजरात, मध्य प्रदेश (इन्दौर, रतलाम और मन्दसौर) आदि राज्यों में बड़े पैमाने पर उगाया जाता हैं। लहसुन मुख्यत: कलियों द्वारा उगाया जाता हैं। यह मसाले वाली एक प्रमुख फसल हैंलहसुन एक नकदी फसल हैं
  • लहसुन में चरपराहट एक तेल एलाइल प्रोपाइल डाईसल्फाइड़ तथा गन्धक के कारण होती हैं
उत्पत्ति:-
लहसुन का उत्पत्ति स्थान मध्य एशिया व भूमध्य सागरीय क्षेत्र माना जाता हैं

जलवायु:-
लहसुन का पौधा ज्यादा गर्मी व सर्दी सहन नही कर पाता हैं। इसलिये उचित वृद्धि के लिए गर्मी व सर्दी दोनों के बीच का मौसम उत्तम रहता हैं। लहसुन की खेती समुद्र तल से 1000-3000 मीटर तक की ऊंचाई वाले स्थानों पर आसानी से की जा सकती हैं।

भूमि:-
लहसुन के लिए ह्यूमस तथा पोटाश से भरपूर दोमट मिट्टी अति उत्तम मानी जाती हैं। वैसे बलुई दोमट व चिकनी मिट्टी में लहसुन की खेती की जा सकती हैं। भारी मिट्टी में लहसुन शल्क कन्द विकृत हो जाते हैं।

भूमि की तैयारी:-
खरीफ की फसल कटने के बाद 2 जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करते हैं। उसके बाद 4-5 जुताई देशी हल से करके बाद में पाटा चलाकर भूमि को समतल करते हैं एवं भुरभुरी बना लेते हैं।

प्रजाति:-
लहसुन की यमुना सफ़ेद-1 (जी-1)(अवधि 150-160, उपज 150-175), एग्रीफाउन्ड सफ़ेद (जी-41)(अवधि 140-160, उपज 130-140), यमुना सफ़ेद-2 (जी-50)(अवधि 165-170, उपज 150-155), यमुना सफ़ेद-3 (जी-282)(अवधि 140-150, उपज 175-200), एग्रीफाउन्ड पार्वती (जी-313) तथा वी०एल०जी०-7 आदि प्रमुख प्रजाति हैं

खाद एवं उर्वरक:-
खेत की अन्तिम जुताई के समय गोबर की सड़ी हुई खाद 200 कुंतल प्रति हेक्टेयर की दर से डालकर जुताई करते हैंनाइट्रोजन 100 किग्रा०, फास्फोरस 60 किग्रा० और पोटाश 120 किग्रा० प्रति हेक्टेयर की दर से भूमि में मिलाना चाहिये। इसके अलावा नाइट्रोजन 100 किग्रा० प्रति हेक्टेयर की दर से खड़ी फसल दो बार देनी चाहिये। पहली मात्रा बुवाई के 45 दिन बाद एवं दूसरी मात्रा 60 दिन पर देनी चाहिये।

बीज दर:-
लहसुन का बीज 5-7 कुंतल प्रति हेक्टेयर की दर से पर्याप्त होता हैं

बुवाई का समय:-
लहसुन की बुवाई अक्टूबर से नवम्बर में की जाती हैं जबकि कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश एवं तमिलनाडु में बुवाई अप्रैल से अगस्त तक की जाती हैं। जलवायु अनुकूल होने पर कुछ भागों में दो बार की जाती हैं। एक बार मई तथा दूसरी बार अक्टूबर माह में की जाती हैं।

बुवाई का तरीका:-
बुवाई करते समय खेत में उपयुक्त नमी होनी चाहिये। खेत को छोटी-छोटी क्यारियों में बाँट लेना चाहिये। क्यारी में लहसुन की एक-एक कली को पंक्ति में उपयुक्त स्थान पर खड़ी दशा में गाड़ना चाहिये। कली का नुकीला भाग ऊपर की और होना चाहिये। लहसुन की कली को भूमि में लगभग 1/2 (आधा) सेमी० की गहराई पर गाड़ना चाहिये, जिससे गाड़ी हुई कली की शिखा मिट्टी से ढ़क जाये। पंक्ति से पंक्ति 15 सेमी० एवं पौधे से पौधे 7-10 सेमी० की दूरी पर लगाना चाहिये। लगभग एक सप्ताह में अंकुरण हो जाता हैं।

प्रसारण:-
लहसुन की गाँठ, लहसुन में उपलब्ध लहसुन की कली (जवे) से बनती हैं। गाँठ को हाथों से मसल कर कली को अलग-अलग कर लिया जाता हैं। इन्ही कलियों को बुवाई के काम में लाया जाता हैं।

निराई-गुड़ाई:-
लहसुन की फसल में 3-4 जुताई की आवश्यकता होती हैं। निराई-गुड़ाई करने से उपज अच्छी होती हैं।

खरपतवार नियंत्रण:-
लहसुन की जड़ें कम गहराई तक जाती हैं। अतः 2-3 बार उथली गुड़ाई करके खरपतवार को निकाल देना चाहिये। पेन्डीमैथीलिन 3.5 लीटर या ऑक्सी-फ्लोरफेन 1 लीटर मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करते हैं।
 
सिंचाई|:-
लहसुन की फसल में लगभग 5-6 सिंचाई की आवश्यकतानुसार होती हैं। सर्दी के मौसम में 15-20 दिन के अन्तर पर व गर्मी में प्रति सप्ताह सिंचाई की आवश्यकता होती हैं कन्दों की खुदाई करने के 15-20 दिन पूर्व सिंचाई बन्द कर देनी चाहिये।

खुदाई एवं सुखना:-

लहसुन की पत्ती जब सुख जाएँ एवं ऊपरी भाग भूमि की सतह पर झुक जाये तब खुदाई का उपयुक्त समय होता हैं। लहसुन की पत्ती जब हरी अवस्था में तब खुदाई नही करनी चाहिये। खुदाई के बाद गाँठों को छाया में हवादार स्थान पर 2-3 दिन तक सुखाया जाता हैं। गाँठों को कटी हुई पत्तियों से ढककर धूप से बचाना चाहिये।

लहसुन की गाँठों में समय से पूर्व अंकुरण को रोकने के उपाय:-
  • नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश का उचित मात्रा में प्रयोग करना
  • नाइट्रोजन की आती मात्रा बुवाई से पूर्व तथा शेष मात्रा बुवाई के 45 एव 60 दिन पर देनी चाहिये
  • दूरी को कम करना चाहिये (15X7सेमी०)
  • साइकोसेल अथवा मेलिक हाइड्राजाइड का 1.5 ग्राम प्रति लीटर पानी का घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिये
  • निचले खेतों में बुवाई नही करनी चाहिये
  • अधिक व बार-बार सिंचाई नही करनी चाहिये तथा खेत में पानी रुकना नही चाहिये
  • नाइट्रोजन का अधिक प्रयोग ना करे। अधिक नाइट्रोजन देने से गाँठे कम मजबूत व कली खोखली रह जाती हैं।
कीट:-
माइट:- इसके प्रकोप से पत्ती टेढ़ी हो जाती हैं, जिन पर पीली व हरी धारियाँ बन जाती हैं। पत्ती को कली से बाहर निकालने में कठिनाई होती हैं। अंकुरण में देरी होती हैं। पत्ती भी सही नही निकलती हैं। भण्डारण में अधिक समय तक इनका प्रकोप होने की सम्भावना बढ़ जाती हैं।
रोकथाम:- मिथाइल ब्रोमाइड 1 किग्रा० मात्रा

थ्रिप्स:- यह छोटे और पीले रंग का कीट होता हैंयह कीट पत्ती का रस चूसते हैं। जिससे इनका रंग चितकबरा दिखाई देने लगता हैं। पत्तियों के शीर्ष भूरे होकर मुरझाकर सूख जाते हैं।
रोकथाम:- मेलाथियान 50 प्रतिशत ई०सी० 1 ग्राम/लीटर पानी का घोल बनाकर कीट दिखाई देते ही छिड़काव करे

रोग:-
बैंगनी धब्बा:- इस रोग के प्रभाव से पट्टी व तने पर सफ़ेद धब्बे बनते हैं जिससे पत्ती व तना कमजोर होकर गिर जाते हैं फरवरी व अप्रैल में इसका प्रकोप अधिक होता हैं
रोकथाम:- मेनकोज़ेब + कार्बनडाजिम मिश्रण की 2.5 ग्राम, मेनकोज़ेब 75 प्रतिशत डबल्यू०पी0 2.5 ग्राम या कार्बनडाजिम 46.27 प्रतिशत एस०सी० 1 ग्राम प्रति एक लीटर पानी का घोल बनाकर छिड़काव करते हैं

उपज:-
लहसुन की उपज 100-150 कुंतल प्रति हेक्टेयर प्राप्त की जा सकती हैं

भण्डारण:-
लहसुन की गाँठों को पूर्ण रूप से सुखाकर ही भण्डारण करना चाहिये। गाँठो को पत्ती सहित भण्डारण करने से हानि कम होती हैं। शीतगृह में भण्डारण लम्बी अवधि के लिये किया जा सकता हैंभण्डारण में काली फफूंद (Black Mold) नामक रोग से हानि होती हैंभण्डारण गृह हवादार होना चाहिये

फ़ाइनल

रविवार, 8 अक्तूबर 2017

प्याज


वैज्ञानिक नाम (Botanical name):-             एलियम सीपा (Alium cepa)
कुल (Family) :-                                        एलिएसी (Alliaceae)
गुणसूत्र संख्या (Chromosome number):-  2n = 14

प्याज:-
प्याज एक उपयोगी सब्जी हैं। इसे विभिन्न पकवान, मसाले और औषधि के रूप में प्रयोग किया जा सकता हैं। प्याज रबी की मुख्य फसल हैं। लेकिन इसे अब खरीफ में भी उगाया जाने लगा हैं। प्याज मुख्यत: बीज द्वारा उगायी जाती हैं। प्याज भारत के सभी प्रान्तों में उगायी जाती हैं। विश्व में भारत का प्याज का क्षेत्रफल एवं उत्पादन की द्रष्टि से दूसरा स्थान हैं। महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश, उड़ीसा एवं हरियाणा आदि राज्यों में उगायी जाती हैं।
  • प्याज में चरपराहट एक वाष्पशील तेल एलाइल डाईसल्फाईड के कारण होती हैं।
उत्पत्ति:-
प्याज की उत्पत्ति उत्तर पश्चिम भारत, अफगानिस्तान, उजबेकिस्तान व पश्चिमी ताइवान क्षेत्र में मानी जाती हैं

जलवायु:-
प्याज ठंडे मौसम की फसल हैं। इसकी पैदावार पर दिन की लम्बाई व स्थान का बहुत असर पड़ता हैं। भारत में उगायी जाने वाली किस्म के लिए उच्च तापमान व लम्बी प्रकाश अवधि की आवश्यकता पड़ती हैं। जबकी बल्ब के विकास के लिये 15.5 डिग्री से 21 डिग्री से० तापमान तथा 10 घंटे प्रतिदिन प्रकाश अवधि की आवश्यकता पड़ती हैं। लगभग 70 प्रतिशत आद्रता फसल के लिए जरूरी हैं। तापमान के बढ़ जाने से रबी की फसल पक जाती हैं। जिससे बल्ब छोटे रेह जाते हैं।

भूमि:-
प्याज प्राय: सभी प्रकार की भूमि में उगायी जा सकती हैं। जिसमें ह्यूमस (कार्बनिक पदार्थ) की मात्रा अधिक, उर्वरा शक्ति व जल निकास की व्यवस्था अच्छी हो। अधिक अम्लीय भूमि का प्याज पर बुरा असर पड़ता हैं। प्याज की खेती के लिए भूमि का पी०एच० मान 5.8 से 6.5 उपयुक्त रहता हैं।

खेत की तैयारी:-
प्याज की रोपाई करने से पहले खेत को आवश्यकतानुसार दो से तीन जुताई करके भूमि को भुरभुरी बना लिया जाता हैं, उसके बाद पाटा लगाकर खेत को समतल कर लिया जाता हैं

बुवाई का समय:-
  • खरीफ- गटिठयों  की बुवाई फरवरी में की जाती हैं। क्यारी में बीज की बुवाई जून में की जाती हैं और रोपाई अगस्त के प्रथम सप्ताह में की जाती हैं। खरीफ में उत्पादन 200-250 कुंतल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होता हैं। खरीफ की एग्रीफाउन्ड डार्क रेड, बसवन्त-780, एन-53 आदि प्रमुख किस्म हैं।
  • रबी- बीज की बुवाई 15 अक्टूबर से 15 नवम्बर तक की जाती हैं। पौधे की रोपाई का कार्य बुवाई के 7-8 सप्ताह बाद किया जाता हैं। रबी में उत्पादन 300-350 कुंतल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होता हैं। रबी की एग्रीफाउन्ड लाइट रेड, कल्यानपुर रेड, पूसा रेड, नासिक रेड आदि प्रमुख किस्म हैं।
बीज दर:-
प्याज का बीज एक हेक्टेयर में 8-10 किलोग्राम पर्याप्त होता हैं

प्रजातियाँ:-
प्याज की प्रजातियाँ निम्न हैं- कल्यानपुर लाल,  पूसा लाल, नासिक लाल, नासिक सफ़ेद, पटना लाल, पटना सफ़ेद, पंजाब सलैक्स्न, हिसार-1 फैन्जीरा, धूलिया, बेलारी, उदयपुर-101, उदयपुर-102 और उदयपुर -103 आदि अच्छी किस्म हैं।

खाद एवं उर्वरक:-
प्याज की अच्छी फसल के लिए अन्तिम जुताई से पहले सड़ी हुई गोबर की खाद 200-250 कुंतल प्रति हेक्टेयर की दर से मिलाना चाहिये। रोपाई के समय नाइट्रोजन 75 किग्रा०, फास्फोरस 60 किग्रा० और पोटाश 60 किग्रा० प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिये। खड़ी फसल में नाइट्रोजन 60 किग्रा० प्रति हेक्टेयर की दर से दो बार देनी चाहिये। पहली आधी मात्रा रोपाई के एक माह बाद तथा शेष मात्रा दो से ढाई माह पर बुरकाव द्वारा देनी चाहिये। बुरकाव के बाद सिंचाई कर देनी चाहिये।

पौध तैयार करना:-
बीज को ऊंची उठी हुई समतल क्यारी में भी बोया जा सकता हैं। क्यारी की चौड़ाई 0.60 मीटरलम्बाई सुविधानुसार रखते हैं। 4 सप्ताह तक सिंचाई फव्वारे से करे। एक हेक्टेयर भूमि में प्याज लगाने के लिए 1/20 से 1/10 हेक्टेयर भूमि में पौधशाला की क्यारी तैयार की जाती हैं। क्यारी तैयार करते समय मिट्टी को बहुत महीन बना लेना चाहिये जिससे भूमि में नमी बनी रहे और अंकुरण के लिए उपयुक्त तापमान मिल सके। क्यारी  में बीज अक्तूबर के प्रथम सप्ताह में बोना चाहिये। बीज को बोकर उसके ऊपर पुराल या कांस की टट्टी बिछा देनी चाहिये। अंकुरण 7-8 दिन में होने लगता हैं। अंकुरण होने पर क्यारी पर से पुराल व कांस की टट्टी को हटा देना चाहिये।

पौध की रोपाई:-
जब पौधे 7-8 सप्ताह के हो जाए तब इन्हें पौधशाला से उखाड़कर चोटी की पत्तियों का एक चौथाई भाग काट देना चाहिये। उसके बाद रोपाई कर देनी चाहियेपौधे की रोपाई मध्य नवम्बर में कर सकते हैं। पंक्ति से पंक्ति की दूरी 15 सेमी०,पौधे से पौधे की दूरी 10 सेमी० तथा गहराई 2 सेमी० तक होनी चाहिये। रोपाई के समय खेत में नमी होनी चाहिये।

सिंचाई एवं निराई-गुड़ाई:-
पहली सिंचाई रोपाई के 3-4 दिन बाद करनी चाहियेउसके बाद सर्दी में सिंचाई लगभग 10-15 दिन के अन्तर पर व गर्मी में प्रति सप्ताह की आवश्यकता होती हैं। रेतीली भूमि में गर्मी में हर तीसरे दिन सिंचाई की आवश्यकता होती हैं। कन्द के पकने के समय सिंचाई कम कर देनी चाहिये। कन्द की खुदाई के 2-3 सप्ताह पूर्व हल्की सिंचाई करनी चाहिये। प्रत्येक सिंचाई के बाद निराई और हल्की गुड़ाई करनी चाहिये। खाद डालने से पहले तथा यूरिया डालने के बाद सिंचाई करना अच्छा रहता हैं।

कीट:-
प्याज की थ्रिप्स:- यह पीले रंग  का छोटा कीड़ा होता हैं। जो पत्ती पर सफ़ेद धब्बा पैदा करता हैं। जिससे पत्ती का ऊपरी सिरा भूरे रंग में बदल जाता हैं। बाद में पत्ती झड़ जाती हैं
रोकथाम:- डाइमेक्रान 100 प्रतिशत ई०सी० 200-250 मिली० मात्रा 1000 लीटर पानी में घोलकर 1-2 बार छिड़काव करना चाहिये। इन्ड्रीन 0.01 प्रतिशत का घोल बनाकर बार-बार छिड़काव करे।
ओनीयन मैगेट:- यह मक्खियों की तरह मक्खी से छोटा कीट होता हैं
रोकथाम:- मैलाथियान 50 प्रतिशत ई० सी० 0.1 प्रातिशत का घोल बनाकर छिड़काव करे

रोग:-
डाउनी मिल्ड्रयू:- यह रोग फफूंद के कारण फैलता हैं। इस रोग में पत्ती के ऊपर सफ़ेद रंग का पाउडर दिखाई देता हैं। बाद में पत्ती सूख जाती हैं।
रोकथाम:- मैन्कोज़ेब 0.2 प्रतिशत का घोल बनाकर रोपाई के 20 दिन बाद करना चाहिये। इसके बाद 10-15 दिन के अन्तराल पर करते रहना चाहिये।
बैंगनी धब्बा रोग:- इस रोग में शुरू में पत्ती पर पीले से सफ़ेद धब्बे लगते हैं। जिसके बिच का भाग बैंगनी रंग का होता हैं। यह रोग तेज़ी से फैलता हैं। पत्तियों से फैलकर बिच के स्तंभों में पहुँच जाता हैं और प्याज गलने लगती हैं।
रोकथाम:- मैन्कोज़ेब 75 प्रतिशत डबल्यू०पी० 0.2 प्रतिशत, कॉपर ऑक्सी-क्लोराइड 50 प्रतिशत डबल्यू०पी० 0.25 प्रतिशत या क्लोरोथानोमिल 50 प्रतिशत डबल्यू०पी० 0.2 प्रतिशत का घोल बनाकर छिड़काव करे।

 खुदाई:-
प्याज की किस्म, बुवाई का समय व उपयोगिता के अनुसार प्याज की खुदाई का समय भी अलग होता हैं। प्याज खाने योग्य होने पर हाथ से उखाड़ा जाता हैंशल्ककन्द की फसल रोपाई के 3-4 माह बाद खुदाई के लिये तैयार हो जाती हैं प्याज की परिपक्वता की पहचान ऊपरी भाग को देखकर की जाती हैंजब ऊपर की लगभग 70 प्रतिशत शाखाएँ सूख जाती हैं तो प्याज की खुदाई कर लेनी चाहिये

उपज:-
प्याज के कन्द की उपज 250-300 कुंतल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती हैं

प्याज में बोल्टिंग:-

प्याज के पौधे में समय से पहले ही पुष्प डण्डी का निकाल जाना बोल्टिंग कहलाता हैं। जिसके कारण बल्ब विकसित नही हो पाते हैं। परिणामस्वरूप पैदावार प्राप्त नही होती हैं। बोल्टिंग का मुख्य कारण भूमि में नाइट्रोजन की कमी का होने तथा अधिक पुरानी पौध की रोपाई करना हैं। तापमान के कम-अधिक होने से भी बोल्टिंग हो जाती हैं। इससे बचने के लिये नाइट्रोजन का समय पर प्रयोग करना चाहिये। अधिक पुरानी पौध की रोपाई नही करनी चाहिये। संस्तुत प्रजाति की समय से बुवाई व रोपाई करनी चाहिये।

भण्ड़ारण:-
प्याज के भण्ड़ारण के लिये रोशनी और हवादार स्थान उपयुक्त हैं भण्ड़ारण में रखे प्याज को 15 दिन के अन्तर पर पलटते रहना चाहिये तथा क्षतिग्रस्त व अंकुरित कन्दों को निकाल देना चाहिये।।

final

शनिवार, 30 सितंबर 2017

नेपियर घास

वानस्पतिक नाम:- पैनीसेटम परफ्यूरियम (Pennisetum purpurium)
कुल:- ग्रैमिनी (Gramineae)
महत्व:-
इसका चारा पशुओं को काटकर खिलाया जाता हैं । इसका चारा पशुओं के लिए उस समय काम आता हैं जब अन्य चारा कम मात्रा मे उपलब्ध होते हैं । इसकी कई कटाई ली जाने के कारण काफी मात्रा मे चारा प्राप्त होता हैं । इससे पशु के लिए हे (Hay) भी तैयार की जाती हैं । यह पौष्टिक चारा हैं । लुर्सन बरसीम के साथ मिलाकर खिलाने पर जानवर इस घास को अधिक चाव से खाते हैं
      फसल कम तापक्रम पर सर्दियों में 3-4 महीने सुषुप्ता अवस्था में रहती हैं । इस समय में नेपियर घास के साथ बरसीम या लुर्सन मिलाकर बोते हैं । इन दिनों मे नेपियर के कल्ले बरसीम लुर्सन के साथ नही काटने चाहिये । गन्ने की फसल की तरह नेपियर घास भी उत्तरी भारत की जलवायु बीज बनने के उपयुक्त नही हैं । जनवरी और फरवरी मे फूल आते हैं पर बीज नही बनते हैं । बीज बाजरे की तरह के होते हैं । ग्रीन हाउस मे बीज तैयार कर सकते हैं
      नेपियर घास मे ऑक्सैलिक अम्ल की मात्रा कुछ अधिक होती हैं । इलसिए नेपियर घास को ग्वार या लोबिया के साथ मिलाकर पशुओं को खिलाना चाहिये
जलवायु:-
जहाँ तापक्रम अधिक रहता हो, वर्षा अधिक होती हो और वायुमण्डल मे आद्रता की मात्रा अधिक रहती हो, वे क्षेत्र नेपियर घास की खेती के लिए सर्वोत्तम माने जाते हैं । लगभग 200 सेमी० वार्षिक वाले क्षेत्र इसकी खेती के लिए उत्तम हैं । अधिक ठण्डी जलवायु मे फसल की अच्छी वृद्धि होती हैं । पाले का इस पर बहुत हानिकारक प्रभाव पड़ता हैं
भूमि:-
इसे विभिन्न प्रकार की भूमि मे उगा सकते हैं । परन्तु फसल की उपज भारी भूमियों की अपेक्षा हल्की भूमि मे अधिक होती हैं । उत्तम उपज के लिए दोमट अथवा बलुअर दोमट मृदा उपयुक्त हैं
खेत की तैयारी:- खेत की तैयार के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से की जाती हैं। इसके बाद 2-5 जुताइयाँ देशी हल से करते हैं। मिट्टी को भुरभुरा करने के लिए प्रत्येक जुताई के बाद पाटे का प्रयोग किया जाता हैं। भारत मे नेपियर घास की फसल रबी की फसल की कटाई के पश्चात खरीफ ऋतु मे तथा बसन्त ऋतु (फरवरी - मार्च) में बोई जाती हैं । अत: इन्ही के आधार पर खेती की तैयारी की जाती हैं
जातियाँ:-
पूसा जाइन्ट नेपियर:- {(नेपियर X बाजरा का संकरण) IARI से विकसित हैं ।} इसका चारा उत्तम गुण वाला हटा होता हैं । प्रोटीन व शर्करा अधिक मात्रा में पाया जाता हैं । चारा मुलायम, अधिक पत्तीदार होता हैं । सहन करने की क्षमता अधिक होती हैं । इसकी जड़ छोटी व उथली हुई होती हैं । जिसके कारण आगामी फसल के लिये खेत की तैयारी में कोई बाधा नही होती हैं ।
पूसा नेपियर-1:- सर्दी में चारा देती हैं । IARI से विकसित
पूसा नेपियर-2:- सर्दी में चारा देती हैं । IARI से विकसित
नेपियर बाजरा हाइब्रिड 'NB-21':- 1500-1800/ वर्ष पौधे लंबे, शीघ्र बढ़ने वाले व पत्तियाँ लम्बी, पतली, चिकनी तथा तना पतला , रोएँ नही होते हैं । कल्ले अधिम मात्रा में बनते हैं । पहली कटाई बोने के 50-60 दिन बाद व अन्य कटाई 35-40 दिन के अन्तराल पर करते हैं । यह बहुवर्षीय घास एक बार रोपने के बाद 2-3 वर्ष तक चारा देती हैं । नवम्बर से फरवरी तक कोई वृद्धि नही होती हैं ।
उपरोक्त सभी जातियाँ बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, व पंजाब के लिये उपयुक्त हैं ।
संकर नस्ल का बीज बांझ होता हैं । एक झुंड में 50 तक कल्ले फूटते हैं । अन्य जातियाँ गजराज, NB-6, NB--17, NB-25, NB-393, NB-8-95, PNB-87, PNB-72, PNB--94, IGFRI-6, IGFRI-7RBN-9 विकसित की गई हैं ।

बुवाई का समय :-
वर्षा ऋतु की बुवाई :- जिन स्थानों पर सिचाई की सुविधाएं उपलब्ध नही होती हैं । वहाँ पर नेपियर घास की बुवाई वर्षा ऋतु में जुलाई से अगस्त तक की जाती हैं
बसन्त ऋतु की बुवाई:-नेपियर घास की बुवाई का यह सबसे उत्तम समय (फरवरी से मार्च) होता हैं । परन्तु इस समय फसल की बुवाई उन स्थानों पर की जाती हैं जहाँ सिचाई की सुविधायें उपलब्ध हों
बोने का ढंग एवं बीज की मात्रा:-नेपियर घास के बीज में भी अंकुरण शक्ति होती हैं । परन्तु बीज की बुवाई करके उगाई गयी फसल में पौधों की वृद्धि अच्छी नही होती हैं । इसलिए नेपियर की बुवाई वानस्पतिक प्रसारण (Vegetative Propagation) विधि से की जाती हैं । इस प्रसारण विधि में फसल उगाने के लिए निम्नलिखित तीन पदार्थों का प्रयोग किया जा सकता हैं-
1- भूमिगत तने जिन्हें राइज़ोम (Rhizomes) कहते हैं
2- जडौधौं द्वारा (Root Slip)
3- तने के टुकड़ों द्वारा (Stem Cuting)
     इन पदार्थों में जड़ौधों पर्याप्त मात्रा मे मिलना कठिन होता हैं । और श्रम भी अधिक लगता हैं । निम्न विधियों द्वारा खेत मे लगाया जाता हैं
कुंडों में बुवाई (Furrow Sowing):-खेत को अच्छी तरह से तैयार करते हैं । खेत में उपयुक्त मात्रा मे नमी होनी चाहिए 90 सेमी० की दूरी पर हल से कूँड़ बनाकर कूँड़ मे टुकड़े डाल देते हैं और पटेला लगाकर उसे ढ़क देते हैं 10-15 दिन बाद जब टुकड़े उग जाते हैं तब खेत की सिचाई कर देते हैं । इस विधि में 7 - 10 हजार तने के टुकड़े प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता हैं 10 - 15 कुंतल जडौधौं (4 -5 हजार जड़ों के टुकड़े) या तनों के टुकड़े प्रति हेक्टेयर तक बोने के काम आते हैं
     45 अंश के कोण पर राइज़ोम अथवा तनों के टुकड़ों को गाड़ना:- इस विधि में खेत मे लगभग 50 सेमी० की दूरी पर हल से कूँड़ बनाये जाते हैं । इन कूँड़ों में 45 अंश का कोण बनाते हुये टुकड़े इस प्रकार गाड़े जाते हैं कि झुकाव उत्तर कि तरफ रहे तथा टुकड़े में उपस्थित दो कली में से एक कली भूमि के अन्दर रहे जिससे जड़ें निकाल सके तथा दूसरी कली भूमि के ऊपर रहनी चाहिये जिससे शाखा उत्पन्न हो सके । टुकड़ों का झुकाव उत्तर कि और इसलिए करते हैं जिससे वर्षा ऋतु में बोई गयी फसल पर वर्षा कि हानिकारक प्रभाव ना पड़े । खेत में टुकड़े लगाने के पश्चात शीघ्र ही खेत ही खेत में सिचाई कर देनी चाहिये । बाद मे कूँड़ों पर मिट्टी चढ़ाकर मेंड़ बना देनी चाहिये
     बुआई करने से पहले राइज़ोम और तना छोटे-छोटे टुकड़ों मे काटा जाता हैं । इसमे एक टुकड़े पर कम से कम से 2 स्वस्थ कलियाँ अवश्य उपस्थित हो । जडौधौं कि बुआई 7-8 सेमी० कि गहराई पर करते हैं

खाद:-
नेपियर घास अधिक मात्रा मे उपज देने के कारण अधिक मात्रा में भूमि से पोषक तत्व शोषित करता हैं । पौधों की अच्छी वृद्धि एवं अधिक उत्पादन के लिए पर्याप्त मात्रा में भूमि में पोषक तत्व विभिन्न खाद एवं उर्वरकों द्वारा देना चाहिये । सामान्य अवस्था में 120-150 किलोग्राम नाइट्रोजन और 50-70 किलोग्राम फास्फोरस प्रति वर्ष फसल मे देना चाहिये । भारतीय भूमि में पोटाश पर्याप्त मात्रा में पाया जाता हैं इसलिए नेपियर घास को पोटाश देने की आवश्यकता नही होती हैं । नाइट्रोजन और फास्फोरस की कुछ मात्रा फसल को गोबर की खाद से देना चाहिये । गोबर की खाद का प्रयोग खेत की तैयारी के समय करते हैं । नाइट्रोजन व फास्फोरस की आधी मात्रा का प्रयोग अमोनियम सल्फ़ेट और सुपर फास्फेट से करना बहुत अधिक लाभदायक हैं । अमोनियम सल्फ़ेट का प्रयोग टॉप ड्रेसिंग के रूप में प्रत्येक कटाई के बाद करना चाहिये । जिससे पौधों को नाइट्रोजन प्राप्त होता रहे । सुपर फास्फेट की सम्पूर्ण मात्रा का प्रयोग फसल की बुआई के समय प्रथम वर्ष में किया जाता हैं ।
सिचाई:-अच्छी उपज लेने के लिए खेत मे नमी पर्याप्त मात्रा मे होनी चाहिये । विशेषत: शीतकाल में पाले से बचाने के लिये गर्मी मे सूखे से बचाने के लिये प्रति कटाई के बाद इसमें सिचाई कर देनी चाहिये । हल्की भूमि में भारी भूमि की अपेक्षा सिचाई जल्दी करनी चाहिये ।वर्षा ऋतु में सिचाई की जरूरत नही होती हैं । ग्रीष्मकाल में 10-12 दिन और अन्य मौसम मे 20-25 दिन मे सिचाई करते हैं ।
मिश्रित खेती व फसल चक्र:-नेपियर घास में ऑक्जैलिक अम्ल की मात्रा अधिक होती हैं । ऑक्जैलिक अम्ल की मात्रा को कम करने के लिये इसके साथ दलहन फसल को मिश्रित रूप मे उगाते हैं । मिश्रित फसल में दो लाइन के बीच 2.0 मीटर का अन्तर रखना चाहिये । रबी में बरसीम, लुर्सन, जापानी सरसों, मैंथीं, जई, सैंजी, जौं व मटर तथा गर्मियों में लोबिया व ग्वार इस फसल के साथ मिश्रित रूप में उगा सकते हैं ।
निराई-गुड़ाई:-बुआई के 15 दिन बाद अन्धी गुड़ाई करनी चाहिये । प्रत्येक कटाई के करने के बाद देशी हल, कल्टीवेटर या फावड़े से निराई-गुड़ाई करते हैं जिससे खरपतवार नष्ट हो जाता हैं । निराई-गुड़ाई करने से खेत में पानी सोखने की शक्ति बढ़ जाती हैं । फसल की बढ़वार अच्छी होती हैं ।
कटाई:-सिचाई एवं उर्वरता का उचित रूप से प्रयोग करने पर नेपियर घास की प्रथम कटाई बुआई के लगभग 70-80 दिन बाद करते हैं । फसल की कटाई में एक बात का विशेष रखना चाहिये कि जब पौधे कि कटाई करे तब पौधा एक मीटर से अधिक ऊंचाई का ना हों । पौधे अधिक बढ़ जाने पर बहुत अधिक कड़े हो जाते हैं और अधिक पौष्टिक नही रहते हैं । और फसल कि शीघ्र कटाई करने पर फसल कि उपज पर प्रभाव पड़ता हैं । फसल कि अन्य कटाई 6-7 सप्ताह के अन्तर से कि जाती हैं । पौधे कि कटाई भूमि कि सतह से 8-10 सेमी० ऊपर से करे । सामान्य अवस्था में प्रतिवर्ष लगभग ४-६ कटाई मिल जाती हैं । फसल को दो तीन साल से अधिक समय तक एक खेत में नही रखना चाहिये ।
उपज:-नेपियर घास के हरे चारे कि उपज साधारणतया 00-1000 कुंतल/ हेक्टेयर होती हैं । परन्तु अच्छी फसल से 2500 कुंतल/हेक्टेयर उपज प्राप्त हो जाती हैं ।