सोमवार, 28 दिसंबर 2020

Insecticides


Technical Name :- Acephate 75% SP (एसीफेट 75% एसपी

Mode of Action :-Systemic

Target Crops, Insects & Dose/ acre :-

Crops            Insects                                                                                                    Dose/acre

Cotton            Jassids                                                                                                    156 gm/acre

                       Bollworms                                                                                             312 gm/acre 

Rice                Yellow stem borer, Leaf folder, Plant hoppers, Green leaf hopper       266-400 gm/acre

Safflower       Aphids                                                                                                    312 gm/acre

Application :- Foliar

 

Technical Name :- Acephate 97% DF (एसीफेट 97% डीएफ)

Mode of Action :- Systemic

Target Crops, Insects & Dose/ acre :-

Crops            Insects                                                                                                        Dose/acre

Cotton            Jassids & Bollworm Complex                                                                   180-240 gm/acre

Rice                Yellow stem borer, Leaf folder, Plant hoppers, Green leaf hopper            300 gm/acre

Application :- Foliar



Technical Name :- Flonicamid 50% WG (फ्लोनीकामिड 50% डब्लूजी @ 60 ग्राम प्रति एकड़)

Mode of Action :- Systemic and Stomach, Selective Feeding Blocker, Systemic and Translaminar

Target Crops, Insects & Dose/ acre :-

Crops        Insects                                                        Dose/acre

Cotton       Aphids, Jassids, Whiteflies, Thrips             60 gm/acre

Paddy        Brown Plant Hopper(BPH), White              60 gm/acre

                   Backed Plant HopperWBPH), Green 

                    Leaf Hopper (GLH).

Application :- Foliar

Packing :- 30gm, 60gm, 150gm, 250gm, 500gm


Technical Name :- Chlorfluazuron 5.4% EC (क्लोरफ्लुजुरोन 5.4% ईसी @ 600-800 एमएल/एकड़)

Mode of Action :- Contact and Stomach

Target Crops, Insects & Dose/ acre :-

Crops            Insects                                                                                            Dose/acre

Cabbage        Diamondback Moth (DBM), Tobacco leaf eating caterpillar        600 ml/acre

Cotton            American Bollworm, Tobacco leaf eating caterpillar                    600-800 ml/ acre

Application :- Foliar

Recommended dose/acre :- 600-800 ml/acre

Packing :- 100ml, 250ml, 500ml, 1lt, 5lt


Technical Name :- Bifenthrin 10% EC (बिफेंथ्रीन 10% ईसी @ 200-40 एमएल/ एकड़)

Mode of Action :- Sodium Channel Modulator

Target Crops, Insects & Dose/ acre :-

Crops            Insects                                                                       Dose/acre

Cotton            Bollworms, Whitefly                                                320 ml/acre

Paddy            Stem borer, Leaf folder, Green leaf hopper              200 ml/acre

Sugarcane      Termites                                                                    400 ml/acre

Application :- Foliar

Recommended dose/acre :- 200-400 ml/acre

Packing :- 100ml, 250ml, 500ml, 1lt, 5lt


Technical Name :- Imidacloprid 17.8% SL (इमिडाक्लोप्रिड 17.8% एसएल @ .5 एमएल/ लीटर पानी)

Mode of Action :- Systemic 

Target Crops, Insects & Dose/ acre :-

Crops                               Insects                                                             Dose/acre

Chilli                                   Aphids, Jassids, Thrips                                        125-250 ml/acre

Citrus                                 Leafmoner, Psylla                                                50 ml/acre

Cotton                                 Aphids, Jassids, Thrips, Whitefly                       100-125 ml/acre

Grapes                          Flea beetle                                                            300-400 ml/acre

Groundnut                   Aphids, Jassids                                                    100-125 ml/acre

Mango                           Hopper                                                                 2-4 ml/ Tree

Okra (Bhindi)              Aphids, Jassids, Thrips                                        100 ml/acre

Paddy (Rice)                 BPH*, GLH*, WBPH*                                       100-125 ml/acre

Sunflower                     Jassids, Thrips, Whitefly                                      100 ml/acre

Sugarcane                    Termite                                                                  350 ml/acre

Tomato                         Whitefly                                                                150-175 ml/acre

Application :- Foliar

Recommended dose/acre :- 75-100 ml/acre

Packing :- 100ml, 250ml, 500ml, 1lt


Technical Name :- Cartap Hydrochloride 4% GR (कारटाप हाइड्रोक्लोराइड 4% जीआर@ 7.5-10 kg/acre)

Mode of Action :- Systemic and Contact

Target Crops, Insects & Dose/ acre :-

Crops                               Insects                                                             Dose/acre

Paddy Stem borer 7.5 kg/acre

 Leaf folder, Whorl maggot 7.5-10 kg/acre

Application :- Soil application, Broadcasting

Recommended dose/acre :- 7.5-10kg/ acre

Packing :- 1kg, 5x5kg & 1x50kg drum


Technical Name :- 

Mode of Action :- 

Major Crops :- 

Target Insect :- 

Application :- 

Recommended dose/acre :- 

Packing :- 


Technical Name :- 

Mode of Action :- 

Major Crops :- 

Target Insect :- 

Application :- 

Recommended dose/acre :- 

Packing :- 


Technical Name :- Novaluron 10% EC (नोवालूरॉन 10% ईसी @ 300 - 400  ग्राम प्रति एकड़)

Mode of Action :- Contact and Stomach

Major Crops :- Cotton (400 gm), Cabbage (300 gm), Tomato (300 gm), Chilli (150 gm), Bengal gram (300 gm)

Target Pests :- American Bollworm, Fruit pod borer, Diamond back moth, Tobacco Caterpillar.



Technical Name :- Pymetrozine 50% WG (पाइमेट्रोजिन 50% डब्ल्यूजी @ 120  ग्राम प्रति एकड़)

Mode of Action :- Systemic

Major Crops :- Paddy

Target Pests :- Brown Plant Hopper



Technical Name :- Ethion 50% EC (इथियान 50% ईसी @ 200 - 800  एमएल प्रति एकड़)

Mode of Action :- Contact

Major Crops :- Cotton (600-800 ml), Chilli (600-800 ml), Gram (200-400 ml), Tea (200 ml), Soybean (600 ml).

Target Pests :- Mites, Thrips, Whitefly, Pod borer, Bollworms.



SP :-    Soluble Powders

DF :-   Dry Flowables



रविवार, 25 नवंबर 2018

सेब (Apple)

वैज्ञानिक नाम (Botanical name):- (Malus pulmila or Malus sylvestris Mill)
कुल (Family) :- (Rosaceae)
गुणसूत्र संख्या (Chromosome number):- 2n =  24


बुधवार, 21 नवंबर 2018

गेंहू



गेंहू (Wheat)

वैज्ञानिक नाम (Botanical name):- Triticum aestivum L.
कुल (Family) :- Gramineae
गुणसूत्र संख्या (Chromosome number) :- 2n= 



महत्त्व एवं उपयोग:-
विश्व की धान्य फसलों में गेंहू का बहुत ही महतवपूर्ण स्थान हैं। क्षेत्रफल की द्रष्टि से विश्व में धान के बाद गेंहू का स्थान आता हैं। भारत जैसे अविकसित देश में गेंहू का उपयोग प्रमुख रूप से रोटी बनाने के लिये किया जाता हैं, परन्तु विकासशील देशों में गेंहू के आटे में ग्लूटिन अधिक होने के कारण खमीर उत्पन्न करके आटे का प्रयोग डबल रोटी, बिस्कुट, बेकरी (Bakery) के लिए प्रयोग करना, सूजी या रवा, मैदा, चोकर (पशुओं के लिये), उत्तम किस्म की शराब बनाने और गेंहू का दलिया बनाकर खाने के लिये किया जाता हैं। इसके अलावा पशुओं को खिलाने के लिये भूसे का प्रयोग भी किया जाता हैं। गेंहू में मनुष्य का भोजन 74%, बीज 11% एवं पशुओं के भोजन, औद्योगिक उपयोग तथा व्यर्थ भाग 15% होता हैं ।

शुक्रवार, 16 नवंबर 2018

आलू


वैज्ञानिक नाम (Botanical name):-             सोलेनम ट्यूबरोजम (Solanum tuberosum L.)
कुल (Family) :-                                        सोलेनेसी (Solanaceae)
गुणसूत्र संख्या (Chromosome number):-  2n = 48

आलू:- सब्जी में आलू का प्रथम स्थान हैं। आलू अधिक पैदावार देने वाली फसल हैं। आलू की पैदावार 182.3 कुंतल प्रति हेक्टेयर हैं। संसार में क्षेत्रफल के हिसाब से भारत का चौथा स्थान एवं उत्पादन की दृष्टि से तीसरा स्थान हैं। भारत में आलू का 90 प्रतिशत उत्पादन जनवरी से मार्च माह में होता हैं। उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार, गुजरात, पंजाब, आसाम, व मध्य प्रदेश आदि आलू उगाने वाले प्रमुख राज्य हैं। जिनमें उत्तर प्रदेश का प्रमुख स्थान हैं। आगरा व मेरठ मण्डलों में आलू का काफी क्षेत्रफल हैं। 100 ग्राम शुष्क आलू पदार्थ से 310 किलो कैलोरी ऊर्जा, 100 ग्राम उबले आलू से 69 किलो कैलोरी ऊर्जा तथा 100 ग्राम कच्चे आलू से 80 किलो कैलोरी ऊर्जा प्रदान होती हैं।

उत्पत्ति:- आलू की उत्पत्ति दक्षिण अमेरिका के एण्डीस व चिलियन पठारों से मानी जाती हैं। सत्रहवीं शताब्दी में आलू पुर्तगालियों द्वारा भारत में लाया गया था।

जलयायु:- आलू की खेती विभिन्न प्रकार की जलवायु में सफलतापूर्वक की जा सकती हैं आलू को समुद्र तट से लगभग 3000 मीटर की ऊंचाई वाले क्षेत्रों में उगाया जा सकता हैं। आलू की खेती के लिए तापमान 20 डिग्री से० उपयुक्त हैं। पाले से फसल को काफी नुकसान होता हैं।

भूमि:- आलू की खेती क्षारीय भूमि को छोड़कर लगभग सभी प्रकार की भूमि में की जा सकती हैं। परन्तु हल्की दोमट भूमि जिसका पी०एच० मान 5 से 7 के बीच हो अच्छा माना जाता हैं। भूमि में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा पर्याप्त हो व जल निकास की व्यवस्था अच्छी हो।

खेत की तैयारी:- 2-3 जुताई करके खेत को खाली छोड़ दे आलू की फसल बोने से पहले पलेवा करना जरूरी हैं। ओट आने पर आवश्यकतानुसार जुताई करे व पाटा लगाकर खेत को समतल कर ले।

बीज:- बुवाई के लिये रोगमुक्त बीज-कन्द का प्रयोग करना चाहियेबीज 3.5 - 4.0 सेमी० आकार का होना चाहिये। बीज-कन्द बड़ा होने पर काटकर बोना चाहिये हैं। ऐसी स्थिति में एक टुकड़ा कम से कम 40 से 50 ग्राम भार का होना चाहिये, जिसमें 2 या 3 स्वस्थ आंखे भी होनी चाहिये। कटे बीज-कन्द को सितम्बर-अक्टूबर के बाद ही बोना चाहिये, अन्यथा वर्षा होने पर शीघ्र सड़ने का भय रहता हैं। तथा रोगग्रस्त भी हो जाता हैं। बीज उत्पादन के लिये केवल सम्पूर्ण कन्द को ही बोना चाहिये।
बोने का समय:- आलू की अगेती फसल की बुवाई 15 सितम्बर के आस-पास की जाती हैं। मुख्य फसल की बुवाई 15 अक्टूबर से 25 अक्टूबर तक की जाती हैं, इस समय तापमान 18-20 डिग्री से० (न्यूनतम) से 30-32 डिग्री से० (अधिकतम) रहता हैं। पछेती फसल की बुवाई का समय 15 अक्टूबर से 15 नवम्बर तक हैं।

बीज दर:- बुवाई के लिये आलू की बीज दर बीज के टुकड़ों के आकार एवं भार पर निर्भर करती हैं। आलू का बीज 35-40 कुंतल प्रति हेक्टेयर लगता हैं। जिसका आकार 3.5 से 4.0 सेमी०भार 40 से 50 ग्राम होना चाहिये।

बुवाई का तरीका:- आलू की बुवाई करने से पूर्व खेत का पलेवा करने से अंकुरण जल्दी एवं समान होता हैं। मशीन से बुवाई करने पर लाइन से लाइन की दूरी 60 सेमी० एवं कन्द की दूरी 20 सेमी० होनी चाहिये। गुलों (मेंड़) में बुवाई करने पर बीज की गहराई 8-10 सेमी० होनी चाहिये।

उपचार:- आलू के कटे बीज-कन्द को ज़िंक मैगनीज कार्बोनेट डाइथेन एम-45 के 0.5 प्रतिशत के घोल में 10 मिनट तक उपचारित करना चाहिये। उपचारित करने के बाद एक दिन के लिये बीज-कन्द को टाट से ढ़क देना चाहिये। फिर बुवाई कर देनी चाहिये। आलू को शीत गृह में भेजने से पूर्व आलू कन्द को बोरिक एसिड 3 प्रतिशत के घोल में 15 से 20 मिनट तक शोधित करके छाया में सुखा लेना चाहिये। एक बार बनाये गये घोल को 4-5 बार प्रयोग करना चाहिये।

फसल अवधि के आधार पर आलू की प्रजातियाँ:-
अगेती फसल (अवधि 70 से 80 दिन):- कुफ़री चन्द्रमुखी(200-250 कु०/हे०), कुफ़री अशोक(250-300 कु०/हे०), कुफ़री पुखराज(350-400 कु०/हे०)
मध्यम फसल (अवधि 90 से 100 दिन):- कुफ़री बहार(250-300 कु०/हे०), कुफ़री लालिमा(250-300 कु०/हे०), कुफ़री ज्योति
पछेती फसल (अवधि 110 से 120 दिन):- कुफ़री बादशाह(350-400 कु०/हे०), कुफ़री सतलुज(250-300 कु०/हे०), कुफ़री सिन्दूरी(300-400 कु०/हे०), कुफ़री आनन्द(350-400 कु०/हे०), कुफ़री चित्सोना-1, कुफ़री चित्सोना-2
प्रसंस्करण हेतु आलू की किस्म:- कुफ़री चित्सोना-1(350-400 कु०/हे०), कुफ़री चित्सोना-2(300-350 कु०/हे०), कुफ़री चन्द्रमुखी, कुफ़री ज्योति, लवकार

खाद एवं उर्वरक:-
यदि खेत में हरी खाद वाली फसल ना लगायी गयी हो तो इस अवस्था में गोबर की सड़ी हुई खाद 50-300 कुंतल प्रति हेक्टेयर खेत तैयार करते समय प्रयोग करते हैं। 150 कुंतल प्रति हेक्टेयर गोबर की खाद डालने से फास्फोरस और पोटाश की लगभग आधी मात्रा और 300 कुंतल प्रति हेक्टेयर प्रयोग करने से लगभग सम्पूर्ण मात्रा मिल जाती हैं। यदि गोबर की खाद नही हैं तो रसायनिक उर्वरक द्वारा नाइट्रोजन 90 किग्रा० (360 किग्रा० कैल्शियम, अमोनियम नाइट्रेट), फास्फोरस 80 किग्रा० (500 किग्रा० सिंगल सुपर फॉस्फेट) और पोटाश 100 किग्रा० (170 किग्रा० म्यूरेट ऑफ पोटाश) को अच्छी तरह से मिलाकर बनायी गयी नाली में बीज- कन्दों से 5 सेमी० नीचे प्रति हेक्टेयर की दर से डालते हैं। शेष बची हुयी नाइट्रोजन की 90 किग्रा० (196 किग्रा० यूरिया) मात्रा बुवाई के 25-30 दिन बाद मिट्टी चढ़ाते समय प्रयोग करते हैं। उस समय पौधे 8-10 सेमी० के लम्बे होते हैं। मृदा में जस्ता की कमी होने पर 25 किग्रा० ज़िंक सल्फ़ेट और लोहा की कमी होने पर 50 ग्राम फेरस सल्फ़ेट प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करते हैं।
प्रसंस्करण के उद्देश्य से उगायी जाने वाली फसल को अधिक पोषण देने की वैज्ञानिक सिफ़ारिश की गयी हैं। इसके लिये नाइट्रोजन 270 किग्रा०, फास्फोरस 80 किग्रा० और पोटाश 150 किग्रा० देना चाहिये।
निराई-गुड़ाई एवं खरपतवार नियंत्रण:- बुवाई के 20-25 दिन बाद गुड़ाई करते हैं इस अवस्था में पौधे 8-10 सेमी० ऊंचाई के होते हैं। निराई-गुड़ाई के लिये लाइनों के बीच स्प्रिंग- टाइन कल्टीवेटर का प्रयोग करे। और खुरपी से खरपतवार निकालने का कार्य करना चाहिये। इसी दौरान ट्रैक्टर चालित रिजर से मेंड़ों पर मिट्टी चढ़ा देनी चाहिये।
  • बुवाई से एक या दो दिन पहले फ्ल्यूक्लोरालिन 0.7-1.0 किग्रा० सक्रिय तत्व या पैन्डीमिथेलिन 1.0 किग्रा० सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करे
  • अंकुरण से पूर्व (बुवाई के 2-3 दिन पश्चात) मैट्रीब्यूजीन 0.7-1.0 किग्रा० या आइसोप्रोटुरान 0.6 किग्रा० सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करे
  • अंकुरण होने के पश्चात (5 प्रतिशत अंकुरण होने तक) पैराक्वाट 0.5 किग्रा० प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करे। ध्यान रखें कि पौधों पर प्रत्यक्ष रूप से घोल ना गिरे।
सिंचाई:- आलू में कुल 7-8 सिंचाई की आवश्यकता होती हैं। सिंचाई करते समय ध्यान रहे कि आलू कि मेंड़ पानी में दो तिहाई से अधिक ना डूबे अन्यथा पानी की अधिकता से आलू सड़ने का भय रहता हैं।
  • पहली सिंचाई:- अंकुरण से पूर्व (बुवाई के 8-10 दिन पश्चात)
  • दूसरी सिंचाई:- स्टोलन (बरोह या शाखा) बनते समय (बुवाई के 20-21 दिन पश्चात)
  • तीसरी सिंचाई:- कन्द बनने कि प्रारम्भिक अवस्था में (बुवाई से 28-30 दिन पश्चात)
  • अन्य शेष सिंचाइयाँ:- हल्की मृदाओं में 10-12 दिन के अन्तराल पर भारी मृदाओं में 12-15 दिन के अन्तराल पर (ध्यान रहे कि अन्तिम सिंचाई आलू की खुदाई से 10 दिन पूर्व बन्द कर देनी चाहिये)

रोग (Diseases):-
पछेती झुलसा (Late blight):- यह बीमारी फाइटोफ़थोरा इंफेस्टान्स नामक फफूंद द्वारा फैलती हैं। यह रोग पौधे की पत्ती, डण्ठल व कन्द आदि भागों पर दिखाई देता हैं। इस बीमारी में पत्ती पर छोटे, हल्के पीले अनियमित आकार के धब्बे बन जाते हैं। जो शीघ्र बड़े होकर ब्राउन से काले रंग के हो जाते हैं। साथ ही पत्ती की निचली सतह पर सफ़ेद रुई सी दिखाई देती हैं। शुष्क मौसम में फफूंद से प्रभावित भाग भूरे रंग का हो जाता हैं। कन्द पर छिछला, लाल भूरे रंग का शुष्क गलन पाया जाता हैं। रोग का प्रकोप 10-20 डिग्री से० तापमान, 80 % आद्रता व वर्षा होने की स्थिति में अधिक होता हैं।
रोकथाम:- रोग आने की पूर्व (रोग होने की सम्भावना होने पर) मेन्कोजेब 0.20 प्रतिशत , रोग आने पर मेटालेक्सिल 0.25 प्रतिशत प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करे
काली रूसी (Black scurf):- फफूंदी की रोगकारी अपूर्ण अवस्था राइजोक्टोनिया सोलेनाई तथा थेनाटेफोरस कुकुमेरिस पूर्ण अवस्था के कारण यह रोग होता हैं। इसमे आलू की सतह पर गहरे भूरे रंग से काले रंग के धब्बे बन जाते हैं।
रोकथाम:- भंडारण पूर्व कन्दों को बोरिक एसिड 3 प्रतिशत के घोल में 25 मिनट तक डुबोकर उपचारित करते हैं
साधारण खुरन्द्र रोग (Common scab):- यह रोग स्ट्रेप्टोमाइसिस के कारण होता हैं। इस रोग से पैदावार में कमी नही आती लेकिन कन्द भददे हो जाते हैं। कन्द पर लाल या भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं। जिससे आलू की त्वचा खुरदुरी हो जाती हैं। यह बीमारी बीज-कन्द द्वारा फैलती हैं।
रोकथाम:- बोरिक एसिड 3 प्रतिशत के घोल में 30 मिनट तक कन्दों को डुबोकर उपचारित करते हैं। कन्द बनने की प्रारम्भिक अवस्था में खेत में नमी बनाये रखे।
वायरस द्वारा फैलने वाले रोग:- आलू के X, A, S, PVX, PVY, PVA, PVM आदि वायरस से 10 से 80 प्रतिशत तक पैदावार में कमी आती हैं। PVX वायरस पौधे की पत्ती पर हल्की चित्ति पैदा करता हैं, जिसे छाया में रखकर देखा जा सकता हैं। PVA वायरस पर्ण शिराओं की पत्तियों में हल्की मृदु  चित्ती या झुर्री पैदा करता हैं। PVM वायरस से ग्रसित पत्ती मुड़न लिए होती हैं। PVY वायरस से ग्रसित पौधे बौने रह जाते हैं। PVZ + A वायरस से पत्ती में उग्र झुर्रीदार चित्ती पड़ने से पौधे का रूप बिगड़ जाता हैं।
रोकथाम:- रोग रहित बीज का प्रयोग करे, रोगी पौधों को उखाड़ दे। माहु कीट की संख्या दिखाई देने पर ही डण्ठलों को काट दे। बीज आलू पर डाईमेथोएट 30 प्रतिशत ई०सी० 1.0 लीटर या मिथाइल ऑक्सी-डेमेटान 25 प्रतिशत ई०सी० 1 लिटर मात्रा 1000 लीटर पानी में घोलकर दिसम्बर -जनवरी में 1 से 2 छिड़काव करे।
फफूंद द्वारा फैलने वाले रोग:- अगेती व पछेती झुलसा रोग फफूंद द्वारा लगते हैं। इस रोग में पत्ती पर काले रंग के धब्बे बनते हैं। जिसके तीव्र प्रकोप से पूरा पौधा झुलस जाता हैं।
रोकथाम:- जिनेब 2.5 किग्रा० को 800 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करे

कीट (Insects and pests):-
माहू या चैंपा (Aphid):- माहू वायरस फैलाने में वाला मुख्य कीट हैं। माहू से 40-85 प्रतिशत तक नुकसान होता होता हैं। इसका प्रकोप नवम्बर के अन्तिम और दिसम्बर के प्रथम सप्ताह में अधिक दिखाई देता हैं। फसल की गुणवत्ता पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता हैं।
रोकथाम:- फोरेट 10 जी० 10 किग्रा० प्रति हेक्टेयर की दर से मिट्टी चढ़ाते समय प्रयोग करे। कीट का प्रकोप होने पर डाइमेथोएट 30 प्रतिशत ई० सी०, एजैडिरैक्टिन(नीम तेल) 0.15 प्रतिशत ई०सी० 2.5 लीटर या मिथाइल ऑक्सी-डेमेटान 25 प्रतिशत ई०सी० 1.0 लीटर मात्रा को 1000 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करे।
लीफ हॉपर:- यह एक हरा व भूरे रंग का कीड़ा होता हैं। इस कीट के निम्फ़ व प्रौढ़ हरी पत्तियों का रस चूसते हैं। जिसके कारण पत्ती भूरे रंग की होकर सूख जाती हैं। इसका प्रकोप अगेती फसल पर अधिक होता हैं।
रोकथाम:- मोनोक्रोटोफॉस 40 प्रतिशत ई०सी० 1.0  लीटर मात्रा या मिथाइल ऑक्सी-डेमेटान 25 प्रतिशत ई०सी० 1.0 लीटर को 1000 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करे। दूसरा छिड़काव 10 से 15 दिन के अन्तर पर करे।
माइट:- यह कीट पत्ती को काटते हैं। पत्तियाँ नीचे की और मुड़ जाती हैं। पत्ती का आकार छोटा व पत्ती के नीचे का हिस्सा ताँबे के रंग का हो जाता हैं। अगेती फसल पर अधिक रोग होता हैं।
रोकथाम:- डाइकोफोल 18 प्रतिशत ई०सी० को 2.0 लीटर मात्रा को 1000 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करे
कट वर्म कीट:- यह कीट की ईल्ली फसल को नुकसान करती हैं। सर्वप्रथम डण्ठल, तना व शाखा उसके बाद कन्द में छिद्र बनाकर नुकसान करता हैं।
रोकथाम:- मोनोक्रोटोफॉस 20 प्रतिशत ई०सी० 2.5  लीटर मात्रा को 1000 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करे
सफ़ेद मक्खी:- इस मक्खी के प्रकोप से आलू की फसल में वायरस संवाहन होता हैं। मक्खी पत्ती का रस चूसती हैं। जिससे पौधा कुरूप हो जाता हैं। यह अगेती व मुख्य दोनों फसलों में लगता हैं।
रोकथाम:- एमिडाक्लोप्रिड 0.3 प्रतिशत का छिड़काव करे

खुदाई एवं भण्डारण:- आलू की खुदाई का कार्य जनवरी-फरवरी माह में शुरू हो जाता हैं। अर्थात अगेती फसल की खुदाई 60-70 दिन बाद कर लेते हैं। 30 डिग्री से० तापक्रम बढ़ने से पूर्व खुदाई का कार्य समाप्त कर लेना चाहिये। खुदाई के बाद कम से कम 10-15 दिन तक छिलका मजबूत होने के लिए ढेर पर रखे। आलू का ढेर छाया में बनाना चाहिये। भण्डारण करने से पूर्व 10-15 दिन बाद आलू की छटाँई का कार्य करना चाहिये

उपज:-
जल्दी तैयार होने वाली फसल पैदावार कम देती हैं जबकि लम्बी अवधि वाली फसल अधिक उपज देती हैं सामान्य किस्म की अपेक्षा संकर किस्म अधिक पैदावार देती हैं आलू की पैदावार 600-800 कुंतल प्रति हेक्टेयर हैं

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बुधवार, 8 नवंबर 2017

अनार

अनार (Pomegranate)
 
वैज्ञानिक नाम (Botanical name):-              (Punica granatum L.)।
कुल (Family) :-                                        (Punicaceae)
गुणसूत्र संख्या (Chromosome number):-   2n =  16 

अनार:-
अनार खाने में स्वादिष्ट व देखने में आकर्षक फल हैं। यह विटामिन का बहुत अच्छा स्त्रोत हैं, इसमें विटामिन ए,  सी, ई और फोलिक एसिड प्रचुर मात्रा  में होता हैं। भारत में इसकी बागवानी लगभग 1200 हेक्टेयर भूमि में की जाती हैं।अनार की बागवानी महाराष्ट्र में अन्य राज्यों की अपेक्षा काफी बड़े पैमाने पर 800 हेक्टेयर भूमि में की जाती हैं। शेष भाग गुजरात, उत्तर प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु में हैं। भारत के अलावा इसकी बागवानी स्पेन, मोरक्को, मिश्र, ईरान, अरब, अफगानिस्तान में बड़े पैमाने पर तथा बर्मा, चीन, जापान व संयुक्त राज्य अमेरिका में भी इसकी बागवानी की जाती हैं।

उत्पत्ति:-
अनार का मूलस्थान ईरान हैं। अनार सर्वप्रथम 17वीं शताब्दी में चीन से भारत आया और धीरे-धीरे इसकी बागवानी देश के विभिन्न क्षेत्रों में शुरू की गई।

 
जलवायु:-
शुष्क एवं अर्द्ध शुष्क क्षेत्र की जलवायु (जाड़ों में सामान्य ठंडक, गर्मयों में गर्म) अनार की खेती के लिये अति उत्तम हैं। फलों की वृद्धि तथा पकने के समय 40 डिग्री से० तापमान (गर्म व शुष्क जलवायु) उपयुक्त रहता हैं। 11 डिग्री से० से कम तापमान का पौधों की वृद्धि पर बुरा प्रभाव पड़ता हैं। पूर्ण विकसित फलों में रंग,दानों  रंग व मिठास  लिये अपेक्षाकृत कम तापमान  आवश्यकता होती हैं। वातावरण, मृदा में नमी एवं तापमान में अत्यधिक उतार-चढ़ाव से फलों के फटने की समस्या बढ़ जाती हैं, जिससे उनकी गुणवत्ता पर विपरीत प्रभाव पड़ता हैं।
 
भूमि:-
अनार के पौधें में लवण एवं क्षारीयता सहन करने की अद्भुत क्षमता होती हैं। मृदा का पी० एच० मान 6.5 से 7.5 अच्छा माना जाता हैं। अनार की खेती के लिये उचित जल निकास वाली, गहरी बलुई दोमट भूमि सबसे अच्छी मानी जाती हैं। परन्तु क्षारीय भूमि व लवणीय भूमि में भी अनार की अच्छी पैदावार ली जा सकती हैं।
 
प्रजातियाँ:-
  • पर्णपाती किस्म:- ऐसी किस्मों में पौधों को सभी पत्तियाँ झड़ जाती हैं। इनमें फूल एवं फसल हेतु जाड़ों में काम तापमान की आवश्यकता होती हैं। ऐसा न होने पर अच्छी फलत नहीं मिलती हैं। अत: पर्णपाती किस्मों को उत्तर प्रदेश के मैदानी इलाकों में नहीं लगाना चाहिये।
  • सदाबहार किस्म:- ऐसी किस्मों में पौधों की पत्तियाँ नहीं झड़ती हैं अत: कम ठण्डक वाले इलाकों में इसकी खेती की जाती हैं। इसकी प्रमुख किस्में गनेश, ढोलका, बेसिन, सीडलेस, काबुली, मुसकैट, जोधपुरी आदि हैं।
  • शुष्क एवं अर्ध शुष्क जलवायु की किस्म:- जालोर सीडलेस, जी-137, पी-२३, मृदुला, भगवा आदि  हैं।
  • अन्य किस्म:- अलांडी व मास्क्रेट आदि किस्म भी उगाई जाती हैं।
पौध तैयार करना (प्रवर्धन,Propogation):-
अनार का प्रवर्धन बीज, कलम व गूटी द्वारा किया जाता हैं। नवम्बर अथवा फरवरी में पकी सख्त काष्ट कलम अनार के वानस्पतिक प्रवर्धन की सबसे आसान व व्यवसायिक विधि हैं। कलमें तैयार करने लिये एक वर्षीय पकी हुई टहनियों चुनते हैं। टहनियों की जब वार्षिक  काँट-छाँट होती हैं उस समय लगभग 15-20 सेमी० लम्बी स्वस्थ कलमें, जिनमें 3-4 स्वस्थ कलियाँ मौजूद हो, को काट कर बंडल बना लेते हैं। ऊपर का कटाव आँख के 5.5 सेमी० ऊपर व नीचे का कटाव आँख के ठीक नीचे करना चाहिये। पहचान के लिये कलम का ऊपरी कटाव तिरछा व नीचे का कटाव सीधा होना चाहिये। तत्पश्चात कटी हुई कलमों को 0.5 प्रतिशत कार्बेन्डाजिम या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड के घोल में भिगों लेना चाहिये तथा भीगे हुए भाग को छाया में सुखा लेना चाहिये। कलमों लगाने से पहले आधार भाग का 6 सेमी० सिरा 2000 पी० पी० एम० (2 ग्राम प्रति एक लीटर) आई० बी० ए० के घोल में 55 सेकण्ड के लिये उपचारित करे। इससे जड़े जल्दी फुट जाती हैं। कलमों को थोड़ा तिरछा करके रोपण करते हैं। कलम की लगभग आधी लम्बाई भूमि के भीतर व आधी बाहर रखते हैं। दो आँखे भूमि के बाहर व अन्य आँखे भूमि में गाड़ देनी चाहिये। कलम लगाने के तुरन्त बाद नियमित सिंचाई करते रहना चाहिये। लगभग 2 महीने बाद अधिक बढ़ी हुई टहनियों की कटाई-छँटाई कर देनी चाहिये। तथा समय-समय पर कृषि क्रियाएँ एवं छिड़काव आदि करते रहना चाहिये।

बाग की स्थापना (रोपण का समय):-
अनार का बगीचा लगाने के लिए रेखांकन एवं गड्ढ़ा खोदने का कार्य मई माह में पूरा कर लेना चाहिये। इसके लिये वर्गाकार या आयताकार विधि से 4 X 4 मीटर (625 पौधे प्रति एक हेक्टेयर) या 5 X 3 मीटर (666 पौधे प्रति एक हेक्टेयर) की दूरी पर, 60 X 60 X  60 सेमी० आकार के गड्डे खोदकर 0.1 प्रतिशत कार्बेन्डाजिम के घोल से अच्छी तरह भिगों देना चाहिये। तत्पश्चात 50 ग्राम प्रति एक गड्डे के हिसाब से कार्बोनिल चूर्ण व थीमेट का बुरकाव भी गड्डे भरने से पहले अवश्य करना चाहिये। जिन स्थानों पर बैक्टीरियल ब्लाइट की समस्या हो वहाँ प्रति एक गड्डे में 100 ग्राम कैल्शियम हाइपोक्लोराइट से भी उपचार करना चाहिये। ऊपरी उपजाऊ मिट्टी में 10 किग्रा० सड़ी गोबर की खाद, 2 किग्रा० वर्मीकम्पोस्ट, 2 किग्रा० नीम की खली तथा यदि सम्भव हो तो 25 किग्रा० ट्राइकोडर्मा आदि को मिलाकर गड्डों को ऊपर तक भर कर पानी डाल देना चाहिये जिससे मिट्टी अच्छी तरह बैठ जाये। पौध रोपण से एक दिन पहले 100 ग्राम नाइट्रोजन, 50 ग्राम फॉस्फोरस तथा 50 ग्राम पोटाश प्रति एक गड्डों के हिसाब से डालने से पौधों की स्थापना पर अनुकूल प्रभाव पड़ता हैं। पौध रोपण के लिये जुलाई-अगस्त का समय अच्छा रहता हैं, परन्तु पर्याप्त सिंचाई की सुविधा उपलब्ध होने पर फरवरी-मार्च में भी पौधे लगाये जा सकते हैं।

कलम को उपचारित करना:-
कलम को गड्डे में दबाने से पहले 0.1 प्रतिशत कार्बेन्डाजिम के घोल से अच्छी तरह भिगों देना चाहिये। तत्पश्चात 50 ग्राम प्रति एक गड्डे के हिसाब से कार्बोनिल चूर्ण व थीमेट का बुरकाव भी गड्डे भरने से पहले अवश्य करना चाहिये। जिन स्थानों पर बैक्टीरियल ब्लाइट की समस्या हो वहाँ प्रति एक गड्डे में 100 ग्राम कैल्शियम हाइपोक्लोराइट से भी उपचार करना चाहिये।

कृन्तन:-
अनार के पौधों में आधार से अनेक शाखाएँ निकलती रहती हैं। यदि इनको समय-समय पर निकाला न जाये तो अनेक मुख्य तने बन जाते हैं जिससे उपज तथा गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हैं। उपज तथा गुणवत्ता की दृष्टि से प्रत्येक पौधों में 3-4 मुख्य तने ही रखना चाहिये तथा शेष को समय-समय पर निकलते रहना चाहिये।
    नये पौधों को उचित आकार देने के लिये कटाई-छँटाई करना आवश्यक होता हैं। अनार में 3-4 साल तक एक ही परिपक्व शाखाओं के अग्रभाग में फूल एवं फल खिलते रहते हैं। इसलिए नियमित काँट-छाँट आवश्यक नहीं हैं। परन्तु सुखी रोगग्रस्त टहनियों, बेतरतीब शाखाओं तथा सकर्स को सुषुप्ता अवस्था में निकालते रहना चाहिये।   

खाद एवं उर्वरक:-
उर्वरक एवं सूक्ष्म पोषक तत्व निर्धारित करने के लिये मृदा परीक्षण अति आवश्यक हैं। सामान्य मृदा में 10 किग्रा० गोबर की सड़ी खाद, 250 ग्राम नाइट्रोजन, 125 ग्राम फॉस्फोरस, 125 ग्राम पोटाश प्रतिवर्ष प्रति एक पेड़ देना चाहिये। प्रत्येक वर्ष इसकी मात्रा इस प्रकार बढ़ाते रहना चाहिये कि पाँच वर्ष बाद प्रत्येक पौधों को क्रमशः 625 ग्राम नाइट्रोजन, 250 ग्राम फास्फोरस तथा 250 ग्राम पोटाश दिया जा सके।
     शुरू में तीन वर्ष तक जब पौधों में फल नहीं आ रहे हो, उर्वरकों को तीन बार में जनवरी, जून तथा सितम्बर में देना चाहिये तथा चौथे वर्ष में जब फल आने लगे तो मौसम के अनुसार दो बार में देना चाहिये। अतः गोबर की खाद व फॉस्फोरस की पूरी मात्रा तथा नाइट्रोजन व पोटाश की आधी मात्रा जुलाई में तथा शेष आधी मात्रा अक्टूबर में पौधों के चारों तरफ एक से डेढ़ मीटर की परिधि में 15-20 सेमी० गहराई में ड़ालकर मिट्टी में मिला देना चाहिये। अनार की खेती में सूक्ष्म पोषक तत्वों का एक अलग महत्त्व हैं। इसके लिये जिंक सल्फेट 6 ग्राम, फेरस सल्फेट 4 ग्राम तथा बोरेक्स 4 ग्राम या मल्टीप्लेक्स 2 मिलीग्राम प्रति एक लीटर का घोल बनाकर पर्णीय छिडकाव फूल आने तथा फल बनने के समय करना चाहिये।

सिंचाई एवं जल प्रबन्धन:-
गर्मियों में 5-7 दिन, सर्दियों में 10-12 दिन तथा वर्षा ऋतु में 10-15 दिन के अन्तराल पर 20-40 लीटर प्रति एक पौधा सिंचाई की आवश्यकता होती हैं। अनार में टपक सिंचाई पद्धति अत्यधिक लाभप्रद हैं क्योंकि इससे 20-43 प्रतिशत पानी की बचत होती हैं, साथ ही 30-35 प्रतिशत उपज में भी बढ़ोतरी हो जाती हैं तथा फल फटने की समस्या का भी कुछ सीमा तक समाधान हो जाता हैं। मृदा नमी के संरक्षित रखने के लिये काली पॉलीथीन (150 गेज) का पलवार बिछाना चाहिये तथा कोओलीन के 6 प्रतिशत 6 ग्राम प्रति एक लीटर का घोल बनाकर पर्णीय छिडकाव करना चाहिये।

कीट:-
तना छेदक:- इस कीड़े की इल्लियाँ शाखा में छिद्र बना देती हैं। कीड़ा तने अथवा मुख्य शाखाओं में छिद्र करता हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिये छिद्रों में तारकोल ड़ालकर इल्लियों को नष्ट किया जा सकता हैं। छिद्र में पैट्रोल व् मिट्टी का तेल को भी छिद्र में भरकर कीड़ों को नष्ट किया जा सकता हैं।
अनार की तितली:-
रोकथाम:- इसे हाथ की जाली से एकत्रित करके नष्ट किया जा सकता हैं। फल बनने के बाद जब फल का छिलका सख्त हो जाता हैं तब मेटासिस्टोक्स 0.3 प्रतिशत का पानी में घोल बनाकर 15-20 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करना चाहिये।

रोग:-
पर्ण एवं फल चित्ती:- यह रोग सर्कोस्पारो तथा ग्लिओस्पोरियम नामक कवक द्वार फैलता हैं। इसमें फल व पत्ती दोनों ही प्रभावित होती हैं। उन पर छोटे-छोटे गोल भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं और बाद में फल सड़ जाते हैं।
रोकथाम:- इस रोग की रोकथाम के लिये डायथेन एम-45 या केप्टान 500 ग्राम 200 लीटर पानी में घोलकर 15 दिन के अन्तराल पर 3-4 छिड़काव करना चाहिये।
 
फूल आना:-
अनार में वर्ष भर फूल आते रहते हैं परन्तु इसके तीन मुख्य मौसम हैं जिन्हें अम्बे बहार (जनवरी-फरवरी), मृग बहार (जून-जुलाई) और हस्तबहार (सितम्बर-अक्तूबर) कहते हैं।
      वर्ष में कई बार फूल आना व फल लेते रहना उपज एवं गुणवत्ता की द्रष्टि से ठीक नहीं रहता हैं। इसमें जून-जुलाई में फूल आते हैं तथा दिसम्बर-जनवरी में फल तुड़ाई के लिये तैयार हो जाते हैं अर्थात अधिकतर फल विकास वर्षा ऋतु में पूर्ण हो जाते हैं।

अन्त: सस्यन:-
बाग लगाने के प्रारम्भिक तीन-चार वर्षों तक कतारों के बीच काफी जगह खाली रहती हैं जिसके समुचित उपयोग के लिये अन्त: सस्यन करते हैं। इस क्रिया से न केवल अतिरिक्त लाभ कमाया जा सकता हैं अपितु यह भूमि कटाव रोकने, पाले एवं तेज हवाओं से बचाने, भूमि की उर्वरकता व जल धारण क्षमता नियंत्रित रखने में भी सहायक होती हैं। दलहनी फसलें जैसे ग्वार, मोठ,मटर, लोबिया, मूँग, चना, उर्द व मूंगफली आदि की फसल उगाई जा सकती हैं।

फलों का तोडना:-
उचित देखभाल तथा उन्नत प्रबन्धन अपनाने से अनार से चौथे वर्ष में फल लिया जा सकता हैं परन्तु इसकी अच्छी फसल 6-7 वर्ष पश्चात ही मिलती हैं तथा 25-30 वर्ष तक अच्छा उत्पादन लिया जा सकता हैं। अनार के फूल,फल आने के 5-6 महीने बाद फल तोड़ने लायक हो जाते हैं। पकने पर फलों का छिलका भूरा और पीलापन लिये हुये होता हैं। पके फलों को सिकेटियर या अन्य किसी तेज धार वाले औजार से काट लिया जाता हैं।

उपज:-
अनार की उपज किस्म तथा पौधे के रखरखाव पर निर्भर करती हैं। 200-250 प्रति एक पौधे से फल प्राप्त किये जा सकते हैं। एक विकसित पेड़ पर लगभग 50-60 फल रखना उपज एवं गुणवत्ता की दृष्टि से ठीक रहता हैं। एक हेक्टेयर में 600 पौधे लग जाते हैं इस हिसाब से प्रति एक हेक्टेयर 90-120 कुन्तल तक बाजार भेजने योग्य फल मिल जाते हैं। इस हिसाब से एक हेक्टेयर से 5-6 लाख रूपये सालाना आय हो सकती हैं। लागत निकालने के बाद भी लाभ आकर्षक रहता हैं।


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