बुधवार, 21 नवंबर 2018

गेंहू



गेंहू (Wheat)

वैज्ञानिक नाम (Botanical name):- Triticum aestivum L.
कुल (Family) :- Gramineae
गुणसूत्र संख्या (Chromosome number) :- 2n= 



महत्त्व एवं उपयोग:-
विश्व की धान्य फसलों में गेंहू का बहुत ही महतवपूर्ण स्थान हैं। क्षेत्रफल की द्रष्टि से विश्व में धान के बाद गेंहू का स्थान आता हैं। भारत जैसे अविकसित देश में गेंहू का उपयोग प्रमुख रूप से रोटी बनाने के लिये किया जाता हैं, परन्तु विकासशील देशों में गेंहू के आटे में ग्लूटिन अधिक होने के कारण खमीर उत्पन्न करके आटे का प्रयोग डबल रोटी, बिस्कुट, बेकरी (Bakery) के लिए प्रयोग करना, सूजी या रवा, मैदा, चोकर (पशुओं के लिये), उत्तम किस्म की शराब बनाने और गेंहू का दलिया बनाकर खाने के लिये किया जाता हैं। इसके अलावा पशुओं को खिलाने के लिये भूसे का प्रयोग भी किया जाता हैं। गेंहू में मनुष्य का भोजन 74%, बीज 11% एवं पशुओं के भोजन, औद्योगिक उपयोग तथा व्यर्थ भाग 15% होता हैं ।

     गेंहू में विटामिन बी1, बी2, बी6 व ई पाई जाती हैं। वसा में घुलनशील इन विटामिनों का पिसाई के समय ह्रास हो जाता हैं। सैलूलोज अधिकतर दाने के छिलके पर ही मिलता हैं। दाने में 2-3% शर्करा, सैलूलोज, फ्रक्टोज, माल्टोज, सुक्रोज, मैलीबायोज तथा टैफीनोज आदि पाया जाता हैं। इस प्रकार गेंहू पाचनशील, कार्बोहाईड्रेट्स तथा उर्जा का सस्ता साधन हैं। खनिज पदार्थों में लोहा, फॉस्फोरस, मैग्नीशियम, मैगनीज, ताँबा व जस्ता पर्याप्त मात्रा में पाया जाता हैं। अधिकांश खनिज पदार्थ भ्रूण में पाये जाते हैं। इसके अतितिक्त गेंहू में पाचन क्रिया को तेज करने वाले एन्जाइम भी पाये जाते हैं।

उत्पत्ति एवं इतिहास:-
संसार में गेंहू की खेती बहुत प्राचीन काल से की जा रही हैं। अंत: यह निश्चित रूप से कहना सम्भव नहीं हैं कि कौन-सा देश गेंहू का उत्पत्ति-स्थल हैं। गेंहू के जन्म स्थान के बारे में वैज्ञानिकों के अलग-अलग- मत हैं। मिश्र, ग्रीस तथा रोम देशों की प्राचीन सभ्यातों का मुख्य आहार नि:सन्देह गेंहू ही था। स्काटइलौज के अनुसार गेंहू लगभग 10-15 हजार वर्ष पहले भी इसकी खेती करने का वर्णन किया गया हैं। डेटमर के अनुसार इटली में गेंहू 496 ई० पू० पहुँचा।
        भारतीय गेंहू की जाति के दाने मोहनजोदड़ों की खुदाई से प्राप्त हुये हैं। इनका अंकन ईसा पूर्व 300 वर्ष पूर्व का किया गया हैं। भारतवर्ष का हिमालय पर्वत एवं हिन्दुकुश पर्वत के बीच का स्थान भारतीय गेंहू का जन्म स्थान माना जाता हैं। पिसिया गेंहू का जन्म ईसा से चौथी शताब्दी से पूर्व माना जाता हैं।

गेंहू का क्षेत्रफल वितरण:-
क्षेत्रफल की द्रष्टि से भारत का विश्व में चौथा स्थान हैं, लेकिन भारत का औसत उत्पादन 23.23 कुन्तल प्रति एक हेक्टेयर हैं। उत्तर प्रदेश हमारे देश का सर्वाधिक क्षेत्रफल में गेंहू उत्पन्न करने वाला राज्य हैं। उत्तर परदेश के सभी मैदानी व पर्वतीय क्षेत्रों में में गेंहू की खेती होती हैं। उत्पादन व क्षेत्रफल की द्रष्टि से पश्चिमी उत्तर प्रदेश अग्रणी राज्य हैं। औसत उपज प्रति हेक्टेयर भी मेरठ क्षेत्र की अधिक हैं। इसके बाद क्रमश: मध्य प्रदेश, पंजाब व राजस्थान का नम्बर आता हैं। केरल, मणिपुर व नागालैण्ड आदि राज्यों को छोड़कर सभी प्रान्तों में गेंहू की खेती की जाती हैं। अमेरिका देश गेंहू के क्षेत्रफल और उत्पादन दोनों ही दृष्टिओं में विश्व भर में सबसे आगे हैं। रूस, भारत, कनाडा, तुर्की और आस्ट्रेलिया अधिक क्षेत्रफल में गेंहू उगने वाले प्रमुख राष्ट्र हैं।

जलवायु:- गेंहू शीतोष्ण जलवायु की फसल हैं। गेंहू की खेती समुद्र तल से लेकर तिब्बत में कुछ स्थानों पर 4000-5000 मीटर की ऊँचाई तक की जाती हैं। गर्म प्रदेशों में गेंहू की खेती शरद ऋतु में की जाती हैं। गेंहू की फसल गर्म जलवायु के लिये अनुपयुक्त हैं।

तापक्रम:-
गेंहू ठंडे मौसम की फसल है। गेंहू की खेती के लिए 15-25 डिग्री से० तापमान उपयुक्त रहता हैं तथा वार्षिक वर्षा 40-150 सेमी० पर्याप्त होती हैं। भारत के दक्षिणी क्षेत्रों में 15 डिग्री से० पर भी गेंहू की खेती की जा सकती हैं। गेंहू के बीज जमाव के लिये न्यूनतम तापमान 38-42 फ़ारेनहाइट (3.5-5.5 डिग्री से०), इष्टतम 68-77 डिग्री फ़ारेनहाइट तथा अधिकतम तापमान 95 डिग्री फ़ारेनहाइट (35 डिग्री से०) उपयुक्त रहता हैं। फसल पकने के लिये इष्टतम तापमान 58-60 डिग्री फ़ारेनहाइट (25 डिग्री से०) उचित रहता हैं। तापमान अधिक होने पर फसल समय से पहले ही पक जाती हैं और इस प्रकार दाने की बढ़वार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हैं। पकने के समय 90 डिग्री फ़ारेनहाइट (30 डिग्री से०) से अधिक तापक्रम होने पर फसल जल्दी पक जाती हैं और उपज कम हो जाती हैं।

आद्रता:-
गेंहू की फसल में पौधों की वृद्धि के लिये मध्यम (50-60%) आद्रता की आवश्यकता होती हैं। परन्तु फसल के पकते समय कम आद्रता, गर्म मौसम आवश्यक हैं। इस समय गर्म मौसम के साथ वायुमण्डल में अगर आद्रता बढ़ जाती हैं तो फसल पर बीमारियों का आक्रमण होने लगता हैं।

भूमि:-
गेंहू की खेती के लिये दोमट भूमि सर्वोत्तम हैं। मटियार और रेतीली भूमियों में भी गेंहू की खेती की जाती हैं। पूर्वी पंजाब और उत्तर प्रदेश में गंगा-जमुना के दोआब में गेंहू की खेती एल्यूवियल मृदा पर भी की जा सकती हैं। गेंहू के लिये भूमि खरपतवार रहित होनी चाहिये। गेंहू की खेती के लिये मृदा का पी० एच० मान 5.0-7.5 के बीच में होना चाहिये। अधिक अम्लीय और अधिक क्षारीय भूमि गेंहू की फसल के लिये उपयुक्त नहीं हैं। क्योंकि मृदा पी० एच० मान 5 से कम और 7.5 से अधिक होने पर पौधों को पोषक तत्त्व आवश्यक मात्रा में प्राप्त नहीं हो पाते हैं।
जातियाँ:-
गेंहू घास कुल का एक वर्षीया पौधा हैं। इसका वंश ट्रिटिकम हैं। ट्रिटिकम अस्टिवम, पिसिया गेंहू के नाम से जाना जाता है और संसार के लगभग सभी देशों में उगाया जा सकता हैं। टेट्राप्लायाड गेंहू में से केवल ड्यूरम ही ऐसा गेंहू है जो सबसे अधिक उगाया जाता हैं। इसे सख्त या कठिया गेहूँ के नाम से भी जाना जाता हैं। ईमर गेंहू दक्षिणी भारत के कुछ क्षेत्रों में उगाया जाता हैं।
  • बौने गेंहू का इतिहास:- भारत में बौने गेहूँ की खेती प्राचीन काल से होती आ रही हैं। परन्तु इसका कम उत्पादन क्षमता व अधिक रोग ग्रसित होने के कारण इसकी खेती अधिक प्रचलित नहीं हो पाई हैं।
               मैक्सिकों तथा संयुक्त राज्य के वैज्ञानिकों ने जापान में, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, नोरिन नाम का गेहूँ उगता हुआ पाया। इस गेंहू की उत्पादन क्षमता व ऊँचाई बहुत कम थी। इस जाति के गेहूं में अनेक अन्य दोष भी थे। वैज्ञानिकों ने नोरिन गेहूं का संकरण अमेरिकन जातियों से किया और नये गुण वाली जाति विकसित की। बौने गेहूँ की "जेन्स" नामक जाति 1961 में सर्वप्रथम अमेरिका में वितरित की गई हैं। भारतीय वैज्ञानिकों ने अमेरिका के राकफैलर फाउंडेशन से 1963 में सर्वप्रथम गेहूँ की जाति का बीज प्राप्त किया। प्रारम्भ में सोनारा-64, सोनारा-63 व लरमारोहो व मायों-64 नामक जातियों का बीज प्राप्त हुआ। सन् 1965 में सोनारा-64 व लरमोरोहो का बीज कृषकों को भारत में वितरित किया गया। बाद में कल्याण सोना, सोनालिका, सफ़ेद लरमा व छोटी लरमा आदि जातियाँ विकसति की गयीं। इसके बाद 1970 में दो बौनी जातियाँ जैसे हीरा, यू०पी०-301 विकसित की गई।
खेत की तैयारी:-
गेहूँ की बुवाई अधिकतर खरीफ ऋतू में मक्का, ज्वार, धान आदि की फसलों की कटाई के बाद की जाती हैं। गेहूँ से पहले खरीफ की फसल उगाने में एक बात का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिये कि खेत 20 अक्टूबर तक खाली हो जाना चाहिये। मृदा में पानी की कमी होने पर पलेवा करके एक जुताई गहरी व 2-3 जुताइयाँ देशी हल या कल्टीवेटर से क्रोस (आर-पार) जुताई करनी चाहिये। सख्त और अधिक खरपतवार वाली भूमियों को तैयार करने के लिये आवश्यकतानुसार एक से दो जुताई या अधिक जुताई कर सकते हैं। जुताई के बाद नमी को बनाये रखने व खेतों को भुरभुरा बनाने के लिए पाटा लगाना आवश्यक हैं।
बीज:-
बीज सदैव प्रमाणित तथा ऐसी जाति का होना चाहिये जोकि बोये जाने वाले क्षेत्र की परस्थितियों के अनुकूल हो। बीज में किसी दूसरी जाति के बीज नहीं मिले होने चाहिये। बोने से पहले बीज अंकुरण प्रतिशत का परीक्षण कर लेना चाहिये।
बीज उपचार:-
बीज जनित रोगों से फसल को बचाने व अंकुरण अच्छा करने के लिये बीजों का उपचार किया जाता हैं। यदि बीज उपचारित न हो तो उसे थायराम 2.5 ग्राम प्रति एक किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर लेना चाहिये। उपचारित करने के लिये वाईटाबैक्स, स्ग्रोसन जी० एन० या सेरेसान का भी प्रयोग कर सकते हैं।
बीज की मात्रा:-
बीज की मात्रा गेहूँ बोने की विधि, जाति, बोने का समय व बुवाई के समय मृदा में नमी की मात्रा पर मुख्यत: निर्भर करती हैं।
  • हल की पीछे पंकियों में बुवाई:-     90-100 किलोग्राम प्रति एक हेक्टेयर।
  • सीड ड्रिल से बुवाई:-                   80-100 किलोग्राम प्रति एक हेक्टेयर।
  • डिबलिंग विधि से बुवाई:-             25-30 किलोग्राम प्रति एक हेक्टेयर।
  • पछेती बुवाई:-                            125-155 किलोग्राम प्रति एक हेक्टेयर।
बोने की गहराई:-गेहूँ की बौनी जातियों का भ्रूण अग्र चोल औसतन 5 सेमी० लम्बा होता हैं। इसलिये बोने की गहराई 5 सेमी० से अधिक नहीं होनी चाहिये अन्यथा अंकुरण घटकर उपज पर बुरा प्रभाव डालता है। बौनी जातियों के गेहूँ की गहराई 4-5 सेमी० तक होनी चाहिये।
बोने की विधियाँ:-
 आमतौर पर गेहूँ की बुवाई चार विधि से (छिटकवाँ विधि, कूँड़ में चोगे, सीड ड्रिल तथा डिबलिंग विधि) की जाती हैं | गेहूँ बुवाई हेतु स्थान विशेष की परिस्थिति अनुसार विधियाँ प्रयोग में लाई जाती हैं |

1. छिटकवाँ विधि- इस विधि में बीज को हाथ से सामान रूप से खेत में छिटक दिया जाता हैं | देशी हल अथवा पाटा चलाकर बीज को मिट्टी से ढ़क दिया जाता हैं | इस 
विधि से गेहूं उन स्थानो पर बोया जाता हैं जहाँ अधिक वर्षा होने या मिट्टी भारी दोमट होने से नमी अपेक्षाकृत अधिक समय तक बनी रहती हैं | इस विधि से बोये गये गेहूँ का अंकुरण ठीक से नही होता, पौधे अव्यवस्थित ढंग से उगते हैं, बीज अधिक मात्रा में लगता हैं और निराई-गुड़ाई करने में असुविधा होती हैं | परन्तु अति सरल विधि होने के कारण कृषक इसे अधिक अपनाते हैं |


2. हल की पीछे कूँड़ में बुवाई- गेहूँ बोने की यह सबसे अधिक प्रचलित विधि हैं | हल की पीछे कूँड़ में बीज गिराकर दो विधियों से बुवाई की जाती हैं |

a. हल के पीछे कूँड़ में बुवाई (केरा विधि)- इस विधि का प्रयोग उन स्थानों पर किया जाता हैं जहाँ बुवाई अधिक क्षेत्र में की जाती हैं तथा खेत में पर्याप्त नमी हो | इस विधि में देशी हल के पीछे बनी कूड़ों में जब एक व्यक्ति खाद और बीज मिलाकर हाथ से बोता चलता हैं तो इस विधि को केरा विधि कहते हैं | हल के घूमकर दूसरी बार आने पर पहले बने कूँड़ कुछ स्वयं ही ढ़क जाते हैं | सम्पूर्ण खेत में बुवाई हो जाने के बाद पाटा चलते हैं, जिससे बीज भी ढ़क जाता हैं और खेत भी चोरस हो जाता हैं |

b. देशी हल की पीछे नाई बाँधकर बुवाई (पोरा विधि)- इस विधि का प्रयोग असिंचित क्षेत्रों या नमी की कमी वाले क्षेत्रों में किया जाता हैं | इसमें नाई, बाँस या चैंगा हल के पीछे बंधा रहता हैं | एक ही आदमी हल चलाता हैं तथा दूसरा बीज डालने का कार्य करता हैं | इसमें उचित दूरी पर देशी हल द्वारा 5-8 सेमी० गहरे कूँड़ में बीज पड़ता हैं | इस विधि में बीज सामान गहराई में पड़ते हैं जिससे उनका समुचित अंकुरण होता हैं | कार्यक्षमता बढ़ाने के लिए देशी हल के स्थान पर कल्टीवेटर का प्रयोग कर सकते हैं क्योंकि कल्टीवेटर से एक बार में तीन कूँड़ बनते हैं |

3. सीड ड्रिल द्वारा बुवाई-
4. डिबलर द्वारा बुवाई-
5. फर्ब विधि द्वारा बुवाई-
6. शून्य कर्षण सीड ड्रिल द्वारा बुवाई-
7. जीरो टिल सीड ड्रिल मशीन-






बुवाई का समय:-
असिंचित दशा में गेंहू की बुवाई अक्टूबर के दूसरे पक्ष से नवम्बर का प्रथम पक्ष और सिंचित दशा में नवम्बर के प्रथम सप्ताह से 25 नवम्बर तक की जाती हैं।

बुवाई:-
गेंहू की बुवाई समय से एवं पर्याप्त नमी में करनी चाहिये और देर से पकने वाली प्रजाति की बुवाई समय से अवश्य कर देनी चाहिये। अन्यथा उपज में कमी हो जाती हैं। बुवाई करने में जितना विलम्ब होता जाता हैं उतनी ही पैदावार कमी आती हैं। दिसम्बर में बुवाई करने पर गेंहू की पैदावार में 3 से 4 कुंतल एवं जनवरी में बुवाई करने पर 4 से 5 कुंतल प्रति हेक्टेयर प्रति सप्ताह की दर से घटती जाती हैं। गेंहू की बुवाई सीडड्रिल से करनी चाहिये।
बीज दर:-
गेंहू की लाइन से लाइन में बुवाई करने पर सामान्य दाना 100 किलोग्राम व मोटा दाना 125 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर लगता हैं। छिटकवां बुवाई करने पर सामान्य दाना 125 किलोग्राम व मोटा दाना 150 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर लगता हैं। सीमित सिचाई वाले क्षेत्र में रेज्ड विधि से बुवाई करने पर सामान्य दाना 75 किलोग्राम व मोटा दाना 100 किलोग्राम लगता हैं। बीज को बोने से पहले जमाव प्रतिशत अवश्य देख लें। राजकीय अनुसंधान केंद्र पर यह सुविधा नि:शुल्क उपलब्ध हैं। यदि बीज अंकुरण क्षमता कम हो तो उसी के अनुदार बीज दर को बढ़ा लेना चाहिये।

मृदा उपचार:-
बुवाई से पूर्व 2.5 किलोग्राम जैव कवकनाशी को 60 किलोग्राम गोबर की खाद में मिलाकर प्रति हेक्टेयर भूमि को उपचारित करे।
बीज उपचार:-
बीज को अनावृत कण्डुआ व करनाल बन्ट के लिए उपचारित करना जरूरी होता हैं जैसे- 4 ग्राम जैव कवक नाशी (ट्राइकोडरमा आधारित), अथवा रासायनिक उपचार नियंत्रण हेतू 2 ग्राम कार्बोक्सिल, 2.5 ग्राम थीरम 75 प्रतिशत डी०एस०/डबल्यू०एस०, 2.5 ग्राम कार्बेण्डाजिम 50 प्रतिशत डबल्यू०पी० से उपचारित किया जाता हैं
पंक्ति की दूरी:-
सामान्य दशा में बुवाई करने पर पंक्ति से पंक्ति की दूरी 18 सेमी० से 23 सेमी० एवं गहराई 5 सेमी० होनी चाहिये हैं।
विलम्ब से बुवाई करने पर पंक्ति से पंक्ति की दूरी 15 सेमी० से 18 सेमी० एवं गहराई 4 सेमी0 होनी चाहिये हैं।
बुवाई की विधि:-
गेंहू की बुवाई हल के पीछे कूँड़ों में या फर्टि सीड ड्रील द्वारा की जाती हैं। कल्ले निकालने के बाद प्रति वर्गमीटर 400 से 500 बालीयुक्त पौधे अवश्य हो। अन्यथा उपज पर इसका बुरा प्रभाव पड़ता हैं।
उर्वरक की मात्रा:-
उर्वरक का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर ही करना चाहिये। गेंहू की अच्छी उपज लेने के लिए मक्का, धान, ज्वार, बाजरा खरीफ फसलों के बाद भूमि में नाइट्रोजन 150 किग्रा०, फास्फोरस 60 किग्रा० और 40 पोटाश 40 किग्रा० प्रति हेक्टेयर, विलम्ब से बुवाई करने पर नाइट्रोजन 80 किग्रा०, फास्फोरस 40 किग्रा० और 30 पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिये। बुंदेलखण्ड क्षेत्र में नाइट्रोजन 120 किग्रा०, फास्फोरस 60 किग्रा०, 40 पोटाश और 30 किग्रा० गंधक प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिये।
सिचाई:-
गेंहू की फसल में सिचाई की निम्न अवस्था होती हैं-
पहली सिचाई:- बुवाई के 20-25 दिन बाद करते हैं। (क्राउन रूट, तजमूल अवस्था)
दूसरी सिचाई:- बुवाई के 40-45 दिन बाद करते हैं। (कल्ले बनते समय)
तीसरी सिचाई:- बुवाई के 60-65 दिन बाद करते हैं। (दीर्घ सन्धि, गांठ बनते समय)
चौथी सिचाई:- बुवाई के 80-85 दिन बाद करते हैं। (पुष्पावस्था)
पाँचवीं सिचाई:- बुवाई के 100-105 दिन बाद करते हैं। (दुग्धावस्था)
छठी सिचाई:- बुवाई के 115-120 दिन बाद करते हैं। (दाना भरते समय)
     दोमट या भारी भूमि में चार सिचाई करके भी अच्छी उपज प्राप्त की जा सकती हैं। परंतु प्रत्येक सिचाई गहरी होनी चाहिये।
पहली सिचाई बोने के 20-25 दिन बाद करते हैं
दूसरी सिचाई बोने के 55 दिन बाद करते हैं
तीसरी सिचाई 85 दिन बाद करते हैं
चौथी सिचाई 105-110 दिन बाद करते हैं
नोट:- सीमित सिचाई साधन की दशा में यदि तीन सिचाई की सुविधा उपलब्ध हो तो तजमूल अवस्था, बाली निकालने से पूर्व और दुग्धावस्था पर करे। दो सिचाई उपलब्ध होने पर ताजमूल व पुष्पावस्था पर करे। यदि एक ही सिचाई उपलब्ध हो तो ताजमूल अवस्था पर करे

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