रविवार, 25 नवंबर 2018

सेब (Apple)

वैज्ञानिक नाम (Botanical name):- (Malus pulmila or Malus sylvestris Mill)
कुल (Family) :- (Rosaceae)
गुणसूत्र संख्या (Chromosome number):- 2n =  24



सेब:- भारत की पहाड़ी भागों में पैदा किये जाने वाले विविध फलों में सेब का स्थान प्रमुख हैं।
उत्पत्ति:-
सेब की उत्पत्ति पश्चिमी एशिया के काला सागर एवं कैस्पियन सागर" के बीच किसी शीतोष्ण भाग में हुई हैं। यहाँ से यूरोप और संसार के दूसरे शीतोष्ण भागों में इसके पौधे का वितरण हुआ तथा इस समय भारत के पहाड़ी भागों में उगाये जाने वाले फलों में इसका मुख्य स्थान हैं।
जलवायु:-
सेब एक ऐसा (शीतोष्ण कटिबंधीय) फल हैं जो केवल ठंडी जलवायु में ही उगाया जा सकता हैं। सेब को फलने व फूलने के लिए पर्याप्त ठंडक का होना अति आवश्यक हैं। इसके लिए सर्दियों में लगभग 2-3 महीने 45 डिग्री फारेनहाइट एवं उससे नीचे तापमान की आवश्यकता होती हैं। सेब के बगीचे उन स्थानों पर सफल नहीं हो पाते है जहाँ अप्रैल माह में पाले का प्रकोप बहुत अधिक होता हैं। उन सभी पहाड़ियों पर सेब उगाया जा सकता हैं जिनकी ऊँचाई 1500-2400 मीटर तक होती हैं। जिन स्थानों पर वर्षा अधिक होती हैं वह स्थान सेब के लिए उपयुक्त नही होते हैं। इसके लिए वार्षिक वर्षा 100-125 सेमी० तक होनी चाहिये।
भूमि:-
सेब विभिन्न प्रकार की भूमि में आसानी से उगाया जा सकता हैं। गहरी उपजाऊ दोमट भूमि जिसमें जल निकास की उचित व्यवस्था हो बहुत अच्छी रहती हैं। जमीन की गहराई लगभग 2 मीटर होनी चाहिये।
उन्नत किस्में:-
साधारणत: अधिकांश किस्मों में 34 गुणसूत्र (17 के दो जोड़े) होते हैं। उन्हें द्विगुणित किस्में कहते हैं। परन्तु यह एक जटिल बहुगुणित हें जिसमें 7 मूल गुणसूत्र हैं जो 17 के जोड़े में 4 गुणसूत्र दो बार, तीन गुणसूत्र तीन बार दोहराए जाते हैं। त्रिगुणित किस्मों में 51 गुणसूत्र होते हें। विभिन्न प्रदेशों में निम्न व्यावसायिक किस्में उगाई जाती हैं-
  • उत्तराखण्ड:- अगेती:- चौबटिया अनुपम, चौबटिया प्रिंसेज, अर्ली सनवरी, फैनी, अर्ली बरसेस्टर, बेनानी
                            मध्य:- गोल्ड स्पर, रायल डीलिशस, रेड्चीफ़, आरगनस्पर, रेड डीलिशस, कोर्ट लैण्ड,                                            मैकिनटोस, गोल्डन डीलिशस
                           पछेती:- अम्बरी, रायमर, बंकिघम, रेडफूजी
                           प्रागकर्ता किस्में:- डीलिशस समूह के लिए रेड गोल्ड तथा गोल्डेन डीलिशस के पौधें पर परागण हेतु लगभग 33 प्रतिशत लगाने चाहिए |
  • उत्तर प्रदेश:- रेड स्ट्रेकेन, अर्ली शैनबरी, फैनी, बिनौनी, ग्रीन स्वीट, किंग ऑफ पीपिन, मैकइन्टोश, जोनाथन, स्पाटिन, रेड डेलीशस, स्टार्किग, कोर्ट लैण्ड, गोल्डन डेलीशस, राईमर, इसोपस स्पॉटजन हंग, बकिघम।
  • काफी ठंडे स्थान वाली:- कोर्ट लैण्ड, स्पाटिन, मैकइन्टोरा, घाटी हेतु ट्रापाक्ल ब्यूटी, बरैड।
  • जम्मू व् कश्मीर:- बिनौनी, आइस पीक, काक्स ओरेन्ज, पीपिन, डेलीशस, ग्रेवेस्टीन, कैरी पीपिन, मैकइन्टोरा वाल्डविन, बरसी फिल्ड, अम्बरी।
  • हिमाचल प्रदेश:- रोड जून, टाईडमैन्स अर्ली, वोरसेस्टर, स्टाकिग, रेड डेलीशस, रिचर्ड, गोल्डेन डेलीशस, मैकइन्टोरा, जोनाथन, रस पीपिन, विन्टर डेलीशस, ग्रैनी स्मीथ।
प्रवर्धन:-
सेब के पौधे प्राय: कायिक विधि से तैयार किये जाते हैं। कायिक विधि शील्ड बडिंग व ग्राफ्टिंग अच्छी हैं। बडिंग अगस्त-सितम्बर तथा ग्राफ्टिंग फरवरी-मार्च में बांधते हैं। मूलवृन्त (शूट स्टोक) के लिए जंगली देशी सेब का प्रयोग करते हैं।
       अब बौनी जाति के सेब के पेड़ भी मिलने लगे हैं मालिग 9 एम० एम० 106 किस्म में लगाने से 3 वर्ष में फल आना शुरू हो जाता हैं। जबकि पौधे पर कलम लगाये हुये पेड़ों पर 6-8 वर्ष में फल आते हैं। यह अधिकतर रोग रहित होता हैं तथा कम स्थान घेरने के कारण इसे आँगन में भी लगाया जा सकता हैं।

रोपण का समय:-
सेब के पौधे की रोपाई के लिए जनवरी माह उपयुक्त रहता हैं। पौधे की रोपाई की दूरी मूलवृन्तों पर निर्भर करती हैं। बहुत बौने मूलवृन्तों को 1-1.5 मीटर, बौने मूलवृन्तो को 2-2.5 मीटर, अर्ध बौनों को 3-4 मीटर, प्रबल को 4-6 मीटर और अधिकतम प्रबल पौधों को 6-8 मीटर की दूरी पर लगाना चाहिये।
कृन्तन:-
पर्णपाती फलों में कृन्तन। फलत के लिए विशेष महत्वपूर्ण समझी जाती हैं। सेब में वृद्धि एवं फलत का अनुपात ठीक रखने के लिए कृन्तन करना जरूरी हैं। सेब में आरम्भ की काँट-छाँट कई विधि से की जा सकती हैं जैसे- भृंगाकार (Vase shaped or open centre from), सवृंत केन्द्रीय या अग्रणी विधि (Half standard from), सपरिवर्तित अग्रणी विधि (Modified leader system)
      सेब को अधिकतर सपरिवर्तित अग्रणी विधि से ट्रेन किया जाता हैं। इस विधि में पौधों को लगाते समय जमीन से 75 सेमी० छोड़कर काट दिया जाता हैं। तने के चारों तरफ 3-5 मुख्य शाखायें बढ़ने डी जाती हैं। पौधे लगते समय अगर उसमें शाखायें है तो उन्हें ऊपर से थोड़ा सा काट देना चाहिये।
  • प्रथम सुषुप्तावस्था कृन्तन:- सेब के पौधे जाड़ों (सुषुप्तावस्था) में लगाये जाते हैं। लगाने के तुरन्त बाद भूमि से लगभग 30 इंच (75 सेमी०) की ऊँचाई पर से पौधों को काट देते हैं। इन शाखाओं को काटने से नई शाखायें निकलती हैं। इसलिये इन शाखाओं को उस स्थान से काटना चाहिये जहाँ से नई शाखाओं की वृद्धि करनी होती हैं।
  • द्वितीय ग्रीष्मकालीन कृन्तन:- दूसरे वर्ष हर पौधे के तने से तीन या चार शाखायें निकलती हैं। सबसे ऊपर वाली शाखा को 12-15 इंच (30-37.5 सेमी०) की ऊँचाई से काट देते हैं। दूसरी शाखाओं को तने से बिल्कुल काट दिया जाता हैं।
  • तृतीय ग्रीष्म कालीन कृन्तन:- सामान्यतया इस समय किसी भी प्रकार की कृन्तन की आवश्यकता नहीं होती हैं।
  • चतुर्थ सुषुप्तावस्था की कृन्तन:- इस छंटाई में बगल वाली शाखा को 12-18 इंच (30-45 सेमी०) के फासले से काटा जाता हैं। यदि तने से निकलने वाली बगल की शाखा की संख्या 8 तक हो तो आठवीं शाखा से ऊपर अगुवा शाखा का पूरा भाग काट दिया जाता हैं।
  • पुराने वृक्षों का कृन्तन:- पुराने सेब के पेड़ की टहनियों की हल्की छँटाई करनी चाहिये। नये पेड़ों की तुलना में उनकी कटाई-छँटाई अधिक करनी चाहिये ताकि नई शाखायें निकलें और फल भी अधिक लगे।
  • कार्डन:- इस विधि में मुख्य तने को बढ़ने दिया जाता हैं। मुख्य तने की लम्बाई 3-4 मीटर तक रखी जाती हैं। जो शाखायें तने पर निकलती रहती हैं उन्हें काटते रहते हैं।
सिंचाई:-
सिंचाई की संख्या नमी पर निर्भर करती हैं। पलवार के प्रयोग से सिंचाई संख्या घटाई जा सकती हैं। पलवार को सूखे मौसम के बाद हटा देना चाहिये।
खाद:-
 सामान्यतया: प्रत्येक फल वृक्ष को 20 ग्राम नाइट्रोजन, 45 ग्राम फॉस्फोरस और 20 ग्राम पोटाश दिया जाता हैं। ये मात्रा वर्ष में तीन बार दी जानी चाहिये। नाइट्रोजन की मात्रा का 3/5 भाग, फॉस्फोरस की पूरी मात्रा और पोटाश की आधी मात्रा को फरवरी के दूसरे पखवाड़े, नाइट्रोजन की पूरी मात्रा का 1/5 भाग तथा पोटाश की शेष मात्रा को अप्रैल के अन्तिम सप्ताह में प्रयोग करना चाहिये। नाइट्रोजन की शेष मात्रा (अर्थात पूरी मात्रा के 1/5 भाग) को अक्तूबर में फल तोड़ने के उपरान्त डालना चाहिये।
फूल आना:-
सेब में फूल आने का समय अप्रैल माह हैं।
फल आना:-
पंखुड़ी गिरने के 70-80 दिन के भीतर फल पकते हैं। किस्म व स्थान विशेष के अनुसार जून-नवम्बर तक फल तैयार होते हैं।
  
फलों की तुड़ाई:-
फलों को तोड़ने का समय किस्म, मौसम, स्थान आदि के अनुसार अलग होता हैं। फल के पक जाने के बाद ही फल को तोड़ना चाहिये। फल बहुत जल्दी या बहुत देरी से तोड़ने पर फल की श्रेणी घटिया किस्म की हो जाती हैं। जब फल हरे रंग से पीले, नारंगी अथवा लाल रंग के होने लगते हैं उस समय फल की तुड़ाई की जाती हैं। सफ़ेद व पीले रंग के बीज वाले फल न तोड़े जायें क्योंकि परिपक्वता के समय फलों के बीजों का रंग गहरे कत्थई रंग का हो जाता हैं।
ऊपज:-
सेब से लगभग 40-100 किलोग्राम प्रति एक वृक्ष से फल प्राप्त हो जाते हैं।
कीट:-
ऊली एफिड:- यह कीट छोटे-छोटे बैंगनी रंग के होते हैं। ये कीट तनों, शाखाओं व जड़ों के समूह में सफेद रुई की तरह के आवरण से ढके रहते हैं। जो पौधा का रस चूसते हैं। रोग से ग्रसित भाग पर गाँठें बन जाती हैं जिससे उत्पादन एवं पौधों की वृद्धि पर बूरा प्रभाव पड़ता हैं।
रोकथाम:- फलों की तुड़ाई के बाद 0.03 प्रतिशत मिथाइल पैराथियान या 0.025 प्रतिशत थायमेटान का छिडकाव करना चाहिये। जड़ों में लगे कीट के लिए जड़ों के तने के चारों और 45 सेमी० की चौड़ाई में 25 सेमी० गहराई तक की मिट्टी निकालकर खुली जड़ों पर 0.05 प्रतिशत मिथाइल डेमेटान का छिडकाव करना चाहिये।
रोग:-
सेब स्कैब:- यह रोग परजीवी कवक विनचुरिया इनाक्युलिस द्वारा होता हैं। यह रोग वर्षा ऋतु में तेजी से फैलता हैं। पत्ती की निचली सतह पर जैतून के रंग के बिन्दू दिखाई देने लगते हैं जो बाद में बड़े व् गहरे हो जाते हैं। फूल गिरने लगते हैं और फलों का विकास रुक जाता हैं।
रोकथाम:- बावस्टीन 0.02 प्रतिशत, डायथेन एम-45 0.03 प्रतिशत का छिडकाव करना चाहिये। पंखुड़ी गिरने, फल लगने के तीन सप्ताह के बाद तथा फल तोड़ने के तीन सप्ताह पहले छिडकाव करना चाहिये।
पाउड्री मिल्ड्रयू:- यह रोग में पत्ती के ऊपरी भाग पर सफेद चूर्ण जैसी परत बन जाती हैं जो नीचली सतह पर भी फ़ैल जाती हैं। गम्भीर अवस्था में पत्ती सिकुड़ जाती हैं तथा मुख्य प्ररोह की वृद्धि रुक जाती हैं और वे मर जाती हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिए रोग ग्रस्त शाखा को नष्ट कर दिया जाना चाहिये। चूना गंधक (1:99) या बोर्डो मिश्रण (4:4:50) का फल लगने के तुरन्त बाद छिड़क देना चाहिये।
तने का गुलाब रोग:- इस रोग में शुरू में छोटी-छोटी गुलाबी रंग की गाँठें दिखाई देती हैं जो बाद में फटकर रोग ग्रसित भाग पर हल्की गुलाबी पपड़ी बनाती हैं।
रोकथाम:- इसकी रोकथाम के लिए रोगग्रस्त भाग को 15 सेमी० नीचे से काटकर चोबटिया लेप लगा देना चाहिये। ग्रसित भाग पर लाइम मिलाकर सल्फर व मिट्टी (3:1) या वेनलेट 1.0 प्रतिशत अलसी के तेल में मिलाकर लगाया जाता हैं।
फाइनल

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें